Monday, June 25, 2018

राजा का रथ

सपने में देखा
एक राजा का रथ दौड़ रहा था
पीछे ग़ुबार में लिपटी
दौड़ रही थी उसकी सोच;
बँटी थी उसकी रियासत
आयतों में, चतुर्भुजों में
कुछ भी नहीं था गोल या सुडौल
केवल थे बस तीखे कोण
जो हिलेंगे तो काटेंगे
ठोस-तरल जो कुछ भी है
सब आपस में बाटेंगे।
फिर जो होना था वही हुआ
तीखे कोण लगे काटने
आयतों को, चतुर्भुजों को
राजा का रथ दौड़ रहा था
दौड़ रहा था, दौड़ रहा था।

तीखे कोणों से कटकर
रक्त बह रहा 
आयतों से, चतुर्भुजों से
लेकिन राजा का रथ दौड़ रहा था
सहस्रबाहु राजा 
अपनी सारी भुजाओं से 
बरसा रहा था कोड़े, रथ के घोड़ों पर
राजा का रथ दौड़ रहा था।
दौड़ दौड़ कर अब रथ
आंधी में बदल गया था
धुआँ उठने लगा जब चारों तरफ़
जल रहे थे वनस्पति, पंछी भाग रहे थे
रथ का सारथी तो कब का उड़ गया था
लेकिन राजा को मज़ा आ रहा था
फुत्कारती हवा, चिल्लाते लोग
अररा कर गिरते पेड़, लहरा कर गिरती लाशें
सबमें उसको दिख रहा था
एक सर्वशक्तिमान राजा का पराक्रम,
एक उज्ज्वल भविष्य - अपनी प्रजा का,
आयतों का, चतुर्भुजों का;
बस गोल कुछ नहीं था, सुडौल कुछ नहीं था।

होश जब आया राजा को
चारों ओर मरुभूमि थी
तपती हुई एक बालू राशि पर
उड़ती हुई धूलि थी
तभी पुकारा एक पंछी ने
निपट अकेला, बिन संगी के
-"चलो ए राजा, 
ले चलता हूँ तुम्हें एक वन में
जहाँ छाया है, पानी है
हरियाली से छन कर गिरती
किरणें कुछ दीवानी हैं"
सब कुछ खोकर, भूखा-प्यासा
राजा दौड़ा पंछी के पीछे
गिरते-पड़ते, मरते-मरते
जब राजा पहुंचा उस छोटे वन में
पूछा पंछी से -
'कौन हो तुम?
क्यूँ किया यह सब?"
पंछी बोला-
"अपनी रानियों के लिए
जो क्रीड़ा क्षेत्र बनाया तुमने
काट गिराया जिस वन को
उस वन का मैं पंछी हूँ!
अवशेष हूँ मैं उस वन का
जिससे तुम गरिमा पाते थे।
और वो देखो, वो जलाशय
समझो इसका आशय,
जल जो था तुम्हारे वन का
वो भी सूख उड़ा आकाश को
बरस कर बन गया इस उपवन का।
क्या तुम्हें पता है
अब तुम बस 
एक मरुभूमि के मालिक हो
जहाँ न वन है, न ही जलाशय
ना उद्योग न जीवन है
ना जाने इस विजय-रथ पर सवार
तुम किसे जीतने निकले हो!"
(मृत्युंजय)

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