Tuesday, June 9, 2020

लोककथाओं की कहन शैली का क्षरण हुआ है




          लोककथाओं की कहन शैली का क्षरण हुआ है - इस मत से मैं आंशिक सरोकार भर रखता हूँ। क्यूँकि मुझे अच्छी तरह पता है यह समय और समाज के बदलते रूप का प्रतिबिंब भर है न कि लोक-कथाओं के विलुप्त होने की भूमिका। ऐसी हर स्थिति वैचारिक स्तर पर आलोड़न पैदा करती है और हमें यह लगने लगता है कि हमारी एक और विरासत आधुनिकता की बलि चढ़ गई। ये मुझे उस स्थिति की याद दिलाता है जिसमें गुणाढ्य के 'बड़कहा' (वृहत्कथा) को पैशाची क़रार कर दिया गया था। या फिर वो समय, जब फणीश्वरनाथ रेणु के 'मैला आँचल' या नागार्जुन के 'बलचनमा' को अपनी प्रयोगधर्मी, आंचलिक भाषा के लिए बड़ी ओछी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था। मैं शैली के परिवर्तन को युगोचित रूपांतर कह सकता हूँ, क्यूँकि निश्चित रूप से हमारी लोक-कथाओं के परिवेश में युगीन परिवर्तन हुए हैं। साथ ही साथ मैं यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि कथा कहना और प्रस्तुत करना दो अलग-अलग विधाएं हैं। कथा कहने में, कहने और सुनने वाले, या वालों, के बीच भाव-विनिमय की ध्वनि (जैसे-हुँकारी भरना) और उसके सापेक्ष एक सघन अन्तरक्रियाशीलता (rich interactivity) का खेल होता है जो कथा के चरित्र और कथानक दोनों को विशेष प्रभावों से भरते हैं, जबकि किसी कथा की प्रस्तुति में उस सघन अन्तरक्रियाशीलता का अभाव होता है। एक प्रस्तुति को सुनना, जैसे एक व्याख्यान को सुनना, समझना और सीखना। उद्देश्य संभवतः दोनों के एक ही होते हैं, लेकिन प्रस्तुति में वो आंतरिकता नहीं होती जो लोक-कथा के पारंपरिक रूप में होती है।
            आज के दिन भले ही कथा कहने की सघन अन्तरक्रियाशीलता का अभाव हुआ हो लेकिन कथाओं की रोचकता और लोकप्रियता कम नहीं हुई। क्षेत्रीय, जनपदीय या आंचलिक लोक-गीतों में निबद्ध सरस लोक-कथाएँ अभी भी जनमानस में उत्साह और उपदेस भरते हैं। इस डिजिटली समन्वित दुनिया में इन लोककथाओं को प्रसार का एक और माध्यम मिल गया है, और उसका बहुत लाभ भी हुआ है; क्योंकि उस डिजिटल दुनिया में भाषायी विरोध या प्रतिरोध का कोई स्थान नहीं, और न ही है कोई व्याकरण या शिल्प के अनुशासन का बंधन। अपने-अपने तरीके से बेतरतीब सही, पनप रहे हैं ये जहाँ-तहाँ, मिल रहे हैं लोगों से, सभ्यताओं से, जैसा कि पहले भी होता रहा है। 'सिन्ड्रेला' की कथा विश्व में पाँच सौ रूपों में जानी जाती है, गुणाढ्य के 'वृहत्तकथा' की शैली से प्रभावित मध्य-एशिया में 'अरेबियन नाइट्स' आती है, बौद्ध जातक कथाओं और जैन आगम कथाओं के समरूप कथाएं आती हैं बाइबिल के नए टेस्टामेंट में, रामायण और महाभारत की कथाएँ अपने कई रूपांतर ले कर इंडोनेशिया, थाईलैंड और कंबोडिया में फैली हुई हैं जो कई स्थानों और प्रसंगों में भारतीय परंपरा से भिन्न हैं। 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' की नीतिवाचक कथाएँ संसार की लगभग सभी ज्ञात भाषाओं में उपलब्ध हैं, और किसी भी अर्थ में सुमेरी सभ्यता के 'गिलगमेश' या यूनानी होमर के 'इलियड' और 'ओडीसी' से कम लोकप्रिय नहीं हैं। जैसे 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' की कथा फैलती है भूमध्यसागर से उत्तरी अफ्रीका, स्पेन, इटली, ग्रीस और सारे मध्य-यूरोप में, जातकों की कथा संस्कृति पूरब में चीन, जापान, बर्मा, लाओस, कम्बोडिया, इंडोनेशिया तक फैल जाती है। 
            वर्ल्ड वाइड वेब, यू ट्यूब, गूगल सर्च इत्यादि डिजिटल फलक पर अनगिनत वीडियो और लिखित रूप में लोक-कथाएं उपलब्ध हैं, और कई वेबसाइट्स पर कथाएं विभिन्न भाषाओं में कही भी गई हैं। निश्चित रूप से इन सब में कथा-कथन की वो शैली नहीं है जिसे साठ और सत्तर दशक तक जन्मे लोग सुनते आए हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि विश्व की लोक-कथाओं का इतना विपुल भंडार भी उस दशक के जन्मे लोगों को नहीं मिला था। अपने देश में भी हम केवल अपने प्रदेश की स्थानीय लोक-कथाओं तक ही सीमित थे। वैश्वीकरण और बाज़ार ने उस स्थानीयता को खोल कर लोक-कथाओं को एक विस्तृत भूगोल दिया है। साथ ही कथा कहने की पारंपरिक और पुरानी शैली को भी एक असीम अवसर दिया है लोगों तक पहुंचने का। दुःखद है कि 'आल्हा-ऊदल', 'सोरठी-बृजभान', 'गोपीचंद' आदि के गीत-कथा का वह रूप जिसे गांवों, कस्बों में गोल बांध कर लोग सुनते थे, इस बदलाव का हिस्सा बने बगैर तितर-बितर हो गए। ऐसे ही एक भोजपुरी लोक-गीत में बुनी कथा का उपयोग मैंने भी अपनी प्रकाशाधीन भोजपुरी उपन्यास 'गंगा रतन बिदेसी' में  किया है। कथाएं हैं, लेकिन उनको सुनाने की वह लुभावनी विधि और रूप खो गए। शायद इसलिए कि एक तरफ तो उस रूप को साधने वाले लोग खोते गए, और दूसरी तरफ उन्हें रिकॉर्ड करके रखने की सुध किसी में न जागी। तो दोषी हम सब हैं, उन विधाओं को खोने के; और जब होश आया तब तक समय थोड़ा आगे निकल चुका था।
            ये सब हठात नहीं हुआ। इतिहास के कई चरणों में इस विकास को देखा जा सकता है। ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म के कर्मकांडी शिकंजे को तोड़ने की कोशिश में उपजा बौद्ध और जैन धर्म, चार्वाक का वस्तुवाद या भौतिकवाद से भरा 'लोकायत' दर्शन, मध्यकाल का भक्ति आंदोलन और लगभग उसी काल में यूरोप में उठी रेनेसाँ की लहर - सब मनुष्य-जीवन के केंद्र में व्यक्ति की प्रतिष्ठा के कारक रहे हैं। इसका असर उस काल की कथाओं और साहित्य पर भी पड़ा है। चाहे वो नीतिवादी उपदेश-कथा हो या घटनाओं की गाथा, सबमें से अप्राकृतिक तत्व को झाड़ कर निकाला गया है। औद्योगिक-क्रांति के प्रभाव से जन्मे उपनिवेशिक होड़ ने तो जैसे सदियों से बह रही लोककथा की संस्कृति की धाराओं को ही सुखा दिया था। उपनिवेशिक कन्धों पर चढ़ कर आए ईसाई धर्म का तिलस्मी, जादुई और अलौकिक कथाओं के प्रति विद्वेष भाव, नव-शिक्षित वर्ग में संदेहवादी विचारधारा के उदय और व्यापारिक शहरों और क़स्बों की स्थापना ने लोक-कथाओं की वाचिक परंपरा को बड़ा नुकसान पहुँचाया। समुदायों में बँटे किन्तु लोक-जीवन की सहभागिता के आपसी समन्वय से बंधे लोग अचानक द्वीपों में परिणत होने लगे - कुछ उपनिवेशिक शक्तियों की मार से, तो कुछ अपने अतिसक्रिय बचाव में। समाज की संरचना टूटी तो साथ-साथ साहित्य और मान्यताओं में भी विक्षेप पैदा हुआ। हर्ष का विषय यह है कि तब भी भारतवर्ष के कई कोनों में अपनी विरासत के प्रति सजग लोगों की सचेत दृष्टि लगातार इस बदलाव का आँकलन कर रही थी, और चाहे जैसे भी हो, लोक-कथाओं, लोक-नृत्य, लोक-गीतों के संकलन में लगी थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध (१८८३ ) में लाल बिहारी डे का बंगाली लोक-कथाओं का वॉरविक गौबल के कला-चित्रों के साथ संकलन, बीसवीं सदी के प्रारम्भ में दक्खिनारंजन मित्र मजूमदार की आज भी प्रसिद्ध बाल लोक-कथाओं का संकलन - 'ठाकुरमार झूली', 'ठाकुरदार झूली' 'थानदीदीर थाले' और 'दादा मोशाएर थाले', ग्रियर्सन साहब द्वारा 'जरनल ऑफ़ दी एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल', 'जरनल ऑफ़ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी' और 'इंडियन एक्टिविटी' में छापे गए 'लोकगाथा-काव्य' एवं कथाएँ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
            आज के विषय के सापेक्ष हमें सोचना यह है कि लोक-कथाओं की इस गति के लिए जो परिस्थितियां या परिस्थितिजन्य गुणक जिम्मेवार हैं, वो क्या हो सकते हैं। जो कुछ गुणक स्पष्ट प्रकाश में आये हैं, वो हैं :
1) पिछले कुछ दशकों में जाति और समुदाय-भित्तिक पहचान का लोप होता जा रहा है। नई तकनीक, नए व्यवसाय और उनसे जुड़े नए परिवेश का चयन कर लोग अपना नया परिचय  बना रहे हैं।
2) ग्रामीण हाट और बाज़ारों को शॉपिंग-मॉल ने विस्थापित करना शुरू कर दिया है।
3) क़िताबों की दुकानें ही अब नए पुस्तकालय बनते जा रहे हैं। अब हमारे स्कूल या विश्वविद्यालय के छात्र-छात्री पारंपरिक पुस्तकालयों की जगह इन बहु-गतिविधि वाले क़िताब की दुकानों में जाना चाहते हैं जहाँ पुस्तकालय की तुलना में और भी नवीन क़िताबें, पत्रिकाएँ और अन्यान्य सामग्री उपलब्ध हैं। साथ ही साथ ऐसे वातानुकूलित कोने भी उन दुकानों में मौजूद हैं जहाँ मजे से बैठकर चाय-कॉफी और फ़ास्ट-फ़ूड के साथ पढ़ाई की जा सकती है।
4) संयुक्त और विस्तृत परिवार सिमट कर एकल-परिवार बन गए हैं जहाँ माता-पिता के अलावा किसी और अंतरंग सम्बन्ध या सगोत्रीय सम्बन्धियों का वास ही नहीं होता। संयुक्त परिवारों में जो बच्चों की देख-रेख और शिक्षा, बच्चों को खाना खिलाते या सुलाते समय दादी-नानी की कहानियाँ सुन कर हुआ करती थी, वो भी अब विशेष रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों, गतिविधि-केंद्रों और विशषज्ञों के हाथ चली गई हैं।
5) तर्कवाद या हेतुवाद के विकास ने कुलीन समुदाय और यहां तक कि मध्य-वर्गीय परिवारों में भी जादुई, तिलस्मी और हिंसक लोक-कथाओं के प्रति अनिच्छा भर दी है। लेकिन ऐसा नहीं कि तिलिस्म और फैंटसी का जादू ख़त्म हो गया हो। वरना जे. के. रोलिंग के 'हैरी पॉटर' के क़िस्से कैसे इतने लोकप्रिय होते। अभिप्राय यह कि अपने बदले हुए स्वरुप में तिलिस्म और फैंटेसी की कथाएँ भी चलती हैं, और चलेंगी।
6) जाति, वर्ण, कुल, वंश या सम्प्रदाय से जुड़ी मान्यताओं में भी उत्तरोत्तर बदलाव आया है। धार्मिक और सामाजिक से ज़्यादा सशक्त होकर उभरा है आर्थिक नियतिवाद (economic determinism)। इस आर्थिक नियतिवाद ने हमारी सोच का ढर्रा भी बदल दिया है। अपने समय के सभ्यतागत लौकिक अस्तित्व और पारलौकिक आकांक्षाओं की चिंता छोड़कर आर्थिक नियतिवाद से बना अर्थपुरुष एक ऐसी भीड़ में परिवर्तित हो गया जिसके रिश्ते टूट-फूट गए और आतंरिक की जगह बाह्य यथार्थ महत्वपूर्ण होता गया। यही कारण है कि अंग्रेज़ी भाषा में संकलित या प्रचलित लोक-कथाओं को भारत में भी बल मिला। माता-पिता बच्चों को ये कथाएँ सुनाते हैं, या सीखने को कहते हैं ताकि उनमें अंग्रेजी भाषा का संचार-कौशल और दक्षता बढ़े, क्यूँकि यही वह सोपान है जो उन्हें आगे चल कर इच्छित मान्यता दिलवाएगा। 
               ज़ाहिर है कि जब समाज की संरचना टूटी तो साथ-साथ साहित्य और मान्यताओं में भी विक्षेप पैदा हुआ; और यही विक्षेप कारण बना उस विकलता का और आवश्यकता का भी जिसने जन-सामान्य की भावनाओं को कहने वाली रचना, विधा और उसकी भाषा को कुलीनता के अहंकार तले दबाना शुरू कर दिया। लेकिन लोक-कथाओं की विलक्षण शक्ति और सार्थकता को नकारना शायद इतना सहज नहीं है। मेरा यह मानना है कि हमारे लोक-साहित्य में ही इतिहास की नींव है। इतिहास चाहे जितना भी वस्तुपरक क्यूँ न हो, एक राजकीय प्रश्रय के बिना नहीं लिखा जा सकता। और इसलिए उसमें बस एक स्थूल और विराट जगत का जीवन प्रकाश पाता है, जबकि लोक-साहित्य स्थानगत, परिवेशगत, समकालीन लोक-जीवन की सोच, आचार-व्यवहार, रूढ़ि, आस्था, मान्यताओं एवं आपसी जीवन-विनिमय पर प्रकाश डालता है। चाहे वह मिथक या किंवदंती हो, या फिर किसी क्रिया-प्रक्रिया से जुड़ा जनजीवन का सच - लोक-साहित्यों में इतिहास का वह पक्ष उजागर होता है जो साधारणतया पाठ्यक्रम के इतिहास की परंपरा से अलग है। प्रत्येक वैदिक देवता किसी एक लोक-कथा से ही जन्मता है। यह सभी सभ्यताओं का सत्य है। वह चाहे अमेरिकी आदिवासियों की अज़टेक-माया सभ्यता हो या चीन की, मिस्र की, सुमेरी या अक्कादी। यदि इन कथाओं को सभ्यताओं के नीचे से हटा लिया जाए, तो सभ्यताएँ भरभरा कर ढह जाएँगी।  
            सच तो ये है कि लोक-कथाओं और लोक-साहित्य के कारण ही कई ऐसी भाषाएँ जीवित हैं जिनकी कोई लिपि नहीं। इनमें समाजशास्त्रीय ज्ञान का विपुल खज़ाना भरा है। आवश्यकता है तो बस इनमें भरे ज्ञान के भण्डार को पहचानने की और इन्हें लिपिबद्ध कर संकलित करने की। इस सन्दर्भ में मैं पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा राज्य के  'दरलोंग' जान-जाति का उदहारण देना चाहूंगा जो अभी भी अस्तित्व में तो है लेकिन १९१९ में ईसाई धर्म ग्रहण करने के बाद, इनके अधिकांश मौखिक साहित्य का लोप हो गया। 'दरलोंग' दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की 'ज़ो मी' जन-जाति का एक सम्प्रदाय है, जिसे अंग्रेजों ने म्यानमार में 'चिन', मणिपुर में 'कुकी' और मिजोरम में 'लुशाई' के नाम से पुकारा। इसलिए इन्हें 'कुकी-चिन' वर्ग से जोड़ा जाता है। विभिन्न इलाकों में रहकर भले ही इनकी बोली भी भिन्न हो गयी हो, लेकिन ये आपस में एक-दूसरे की बोली का ७० फ़ीसदी सार समझ लेते हैं। भारत के उत्तर-पूर्व के एक बड़े क्षेत्र में अवस्थित अपनी सांस्कृतिक और भौतिक जीवन एवं मौखिक साहित्य की समानता और जातीय समरूपता के लिए परिचित इस जान-जाति का मौखिक साहित्य आज के दिन विलुप्त-सा हो कर रह गया है। लेकिन अभी भी उनकी लोक-कथाएँ अपने समीपवर्ती भाषाओं में जीवित हैं, और शायद हमसे ये मांग कर रही हैं कि उन कथाओं का संकलन अन्य प्रचलित भाषाओं में की जाय। संकलन और विविध भाषाओं की लोक-कथाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद - जितना अधिक से अधिक हो सके, करना चाहिए ताकि इनमें समाए मानव-जीवन का इतिहास हमारे भविष्य में उद्धरण और सन्दर्भ बन कर समाज के काम आ सके।

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मृत्युंजय कुमार सिंह
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कलकत्ता में 'हिंदुस्तानी'


कलकत्ता में 'हिंदुस्तानी'

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसे भी देखना हो, कई बार देखना।.....
कलकत्ता शहर और उसके इर्दगिर्द बसे बंगाली समाज में 'हिंदुस्तानी' के नाम से परिचित लोगों के बारे में सोचते हुए याद आई निदा फ़ाज़ली के ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ। साथ ही उमड़ आयी कई घटनाएँ, परतों में दिख रहे कई चेहरे, कई व्यक्तित्व और उनसे जुड़ी एक इतर क़िस्म की ज़िन्दगी। रिसड़ा के छाई-रोड पर रात भर के लिए भाड़े पर लगे रिक्शे की सीट और उस पर सिकुड़ कर सिमटे हुए कई आदमी, हावड़ा के लिलुआ, घुसुरी इलाकों में जी.टी. रोड से लगे  दुकानों में खैनी की ताल ठोकते और रात गए उन्हीं सड़कों के नालों के ऊपर लगी खाट पर अपने जीवन को लिटाए लोग, राज्य-सरकार के एक कर्मचारी का पुत्र होकर मौलाली में पला-बढ़ा, कलकत्ता को अपना दूसरा घर चुना और यहीं मध्यमग्राम में रहकर, अपनी बेटी का दो बार बलात्कार सह कर, उसकी अकाल-मृत्यु देख कर, उसकी लाश जलाकर, प्रताड़ित बिहार लौटने को विवश एक व्यक्ति। हावड़ा स्टेशन के कुली, पोस्ता बाज़ार के मुठिआ-मज़दूर, फल-मंडी में घुटने भर कीचड़ में विचरते प्राणी, स्ट्रैंड रोड पर गाड़ियों की बेतरतीब दौड़ के बीच अपनी जगह बनाए ठेला पर सामान खींचते कई कृशकाय लेकिन जीवट से तने स्नायु वाले हाथ-पाँव, आदमी द्वारा खींच कर चलने वाले  'हाथ-रिक्शा' पर अपने पैसेंजर को लिए दौड़ता आदमी, जिन्हें उनके गाँव में लोग इस लिए बड़ी इज़्ज़त देते हैं क्यूँकि वो कलकत्ता शहर में काम करते हैं और सालाना अपने घर को अच्छी रक़म भेजते हैं। ब्रेबोर्न रोड, तिरट्टी बाज़ार, कोल्हू-टोला, हावड़ा से सियालदह तक बिछे एम.जी.रोड, चित्तरंजन एवेन्यू, चौरंगी-एस्प्लानेड, रबिन्द्र सरणी, ज़कारिया स्ट्रीट, फियर्स लेन, बी.बी. गांगुली स्ट्रीट, गणेश चंद्र एवेन्यू, फ्री स्कूल स्ट्रीट, एस.एन. बनर्जी रोड, लेनिन सरणी, लोहा-पट्टी, और सच पूछिए तो दक्षिण में पार्क स्ट्रीट से लेकर उत्तर में श्याम-बाज़ार तक एवं पूरब में आचार्य जगदीश चंद्र बोस- आचार्य प्रफुल्ला सेन रोड से लेकर पश्चिम में हावड़ा तक के सारे व्यापार और गतिविधियों में लगा है इनका हाथ, इनकी मेहनत और इनका साथ। टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार के २०१४ के एक रिपोर्ट के मुताबिक कलकत्ता शहर में प्रवास करने वालों में से सत्तर फ़ीसदी लोग बिहार, यू.पी. और झारखण्ड से हैं। इनमें से लगभग दस फ़ीसदी लोग एक पुश्त से ज़्यादा समय से यहाँ बसे हुए हैं। यह तथ्य ये बताता है कि आज के कलकत्ता में इन देशान्तरित प्रवासियों का निवास कलकत्ता शहर के अलावा भी चारों ओर फैल गया है। ये इन प्रवासियों की कर्म-दक्षता और विश्वसनीयता का भी प्रमाण है जिसके कारण इस शहर में लगातार इनका आगमन होता रहा। 
            बंगाल में 'अप-कन्ट्री' (बिहार और यू.पी. के लोग) देशांतरण ज़्यादातर सन १८६० के आसपास ही शुरू हुआ जिसका मूल कारण था अंग्रेज़ी कपड़े के आयात से देशी बुनकरों और हथकरघों का नाश, खेतों और फसल पर उत्तरोत्तर बढ़ते कर के दवाब से छोटे और मझोले किसानों का भूमिहीन हो जाना, परमानेंट सेटलमेंट के कारण खेतों पर से किसानों के मालिकाना का अंत और उसके फलस्वरूप किसानों के ध्यान न देने के कारण खेतों की उपज कम होते जाना, दुर्भिक्ष और प्लेग जैसी जानलेवा बीमारी। सन १८९० के बाद एक बड़ी संख्या का कलकत्ता के लिए देशांतरण हुआ जो विशेष रूप से कलकत्ता के आसपास के जूट-मिलों में था। बहरहाल चाहे वो आर्थिक दिक्कतें हों या जीवन को और भी सम्पन्न व समृद्ध बनाने का सपना, जाति-प्रथा की छूआ-छूत और भेद-भाव का दवाब हो या अंग्रेजी शासन के तहत बढ़ते हुए जूट-मिल के रोजगार का आकर्षण, एक घनी तादाद में इन तथाकथित 'हिंदुस्तानियों' का देशांतरण हुआ। कलकत्ता शहर से लगे ज़िलों के जूट-मिल में, लोहा-फोंडरी में और जहाज- घाट में - सर्वत्र आ कर बस गए ये 'हिंदुस्तानी'।
           
गवना कराइ सैंया घर बइठवले से
अपने लोभइले परदेस रे बिदेसिया।
(विरह की मारी एक स्त्री कहती है कि गवना कराके मुझे घर में ला बिठाया और स्वयं परदेस से आकर्षित होकर परदेस चले गए) - भोजपुरी के प्रसिद्ध रचनाकार भिखारी ठाकुर की इन पंक्तियों से साफ पता चलता है कि अपना गाँव-घर छोड़ कर कलकत्ता को आए अधिकांश लोगों ने कलकत्ता को अपना सामयिक पड़ाव ही माना और उसे 'परदेस' के नाम से ही पुकारा जाता रहा। बिहार और उसके समीपवर्ती यू.पी. की लोक-परंपरा (लोक-गीत, लोककथा आदि) से यह स्पष्ट होता है कि उस भू-खंड के लोगों का अपने स्थान से बाहर जाना कुछ मायने में तो सामाजिक कुरीतियों से बचने का उपाय था, लेकिन अधिकतर संख्या उनलोगों की है जो अपने आर्थिक सशक्तिकरण की मंशा से ही अपना गाँव छोड़कर कलकत्ता आए। किसी अर्थ में ये उनका अपनी मिट्टी से पलायन नहीं था। यहाँ उनका वास-स्थान और उससे जुड़े जीवन के संसाधन चाहे जितने भी दुःखद रहे हों, उनके द्वारा कमाया गया धन अपने गाँव की खेती-बारी को उन्नत करने से लेकर घर के लोगों के साज-सामान में बढ़ोतरी के ही काम आता रहा है। औद्यौगिक और बहुआयामी शिल्प के शहरों में कोई भी काम करने की आज़ादी अपने-आप में एक वरदान भी है। जैसे कि एक राजपूत लड़का कलकत्ता में मालिश करने के काम कर रहा है जिससे कि वह लगभग पंद्रह हज़ार रुपए महीने में कमा लेता है। बिना किसी तकनीकी प्रशिक्षण के किसी भी काम में इतना पैसा उसे नहीं मिल सकता, साथ ही अपने गाँव या समाज में एक राजपूत लड़के को मालिश करने के काम की छूट क़तई नहीं मिलती। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा है कलकत्ता जहाँ किसी के जात से उसके पेशे की आज़ादी नहीं सिमित होती।
            कहते हैं कि डच उपनिवेशिक सरकार ने दक्षिण अमेरिका को ले जाए गए बिहार और यू. पी. के 'गिरमिटिया' मज़दूरों को 'हिंदुस्तानी' कहना शुरू किया। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि 'गिरमिटिया' के तौर पर विदेशी उपनिवेशों में ले जाए गए अधिकाँश लोग चूँकि हिंदी से जुड़ी बोलियाँ बोलते थे इसलिए ही उनलोगों को 'हिंदुस्तानी' की संज्ञा से अभिहित किया गया। लेकिन यही बात बंगाल में रहने वाले बंगालियों के लिए मान्य शायद नहीं होगी, क्यूँकि इतिहास में एक लम्बे समय तक बिहार, बंगाल प्रांत का हिस्सा बन कर रहा है, और यहाँ के साहित्यकारों एवं अभिजात्य वर्ग के लोगों का बिहार की भाषा और संस्कृति से अच्छा-ख़ासा विनिमय होता रहा है। विभूती भूषण बंदोपाध्याय के सम्पूर्ण 'आरण्यक' की कथा बिहार (अब झारखण्ड) की मिट्टी और आबो-हवा में रची गई, हालाँकि उनकी कृति में कहीं भी बिहारियों के प्रति वह कुलीन अहंकार नहीं झलकता जो यदा-कदा रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे उन्मुक्त और विश्ववादी विचार के साहित्य में सर उठाता है। समरेश बसु की कथा 'पारी', जिसके आधार पर गौतम घोष ने अपनी विख्यात फ़िल्म 'पार' बनाई, में भी बिहार के सामाजिक अन्याय और भेद-भाव के जीवन का बहुत ही मार्मिक चित्रण है। इन साक्ष्यों के मद्देनज़र यह कहना उचित नहीं होगा कि बंगाल में बिहार और उत्तर प्रदेश के समाज के बारे में जानकारी या अभिमूल्यन की कमी है।

            इस लेख के आरंभ में ही मैं यह स्पष्ट कर चुका हूँ कि प्रवासियों की एक बहुत ही सिमित संख्या ही है जो अपने परिवार को लेकर यहाँ बस गए और उनके वंशज ने कलकत्ता को अपने स्थायी घर की तरह अपनाया, हालांकि ये लोग भी बंगाली-समाज के लिए आज तक 'हिंदोस्तानी' ही कहलाते रहे। बिहार और बिहार के पूर्वोत्तर भू-भाग से शताब्दियों तक कामकाजी सम्बंध होने के बाद भी कलकत्ता के बंगाली-समाज में वहां से आए लोगों को असभ्य, फूहड़ और गंवार समझा जाता है। कभी 'छातू-खोर' कहकर उनकी सामुदायिक उपेक्षा तो कभी 'हिंदुस्तानी' कहकर उनके साहित्यिक-सांस्कृतिक अस्तित्व को ओछा बताना, कलकत्ता में आए दिन होता रहता है ठीक वैसे ही जैसे ब्रिटिश-समाज में आज भी किसी भी दक्षिण एशियाई, वो चाहे जितना संपन्न, कुलीन और शिक्षित क्यूँ न हो, बराबर की जगह नहीं दी जाती। कभी-कभी सोचता हूँ कि बंगाल के समाज में यह अवगुण क्या अंग्रेजों के दो शताब्दी तक कलकत्ता में रह कर शासन करने का नतीजा है, या फिर कन्नौज आदि से बंगाल में लाये गए उन ब्राह्मणों की सामंती छाया का परिणाम जो आज भी इनकी मानसिकता पर हावी है।
            बंगाल के लोगों की एक बड़ी संख्या बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, गया, रांची, हज़ारीबाग़, धनबाद, गिरिडीह, मधुपुर, जसीडीह, देवघर आदि शहरों में बसी है और उनका बंगाल के अपने सगोत्रीय सम्बंध वाले लोगों से बहुत ही गहरा रिश्ता भी है; शायद ही कोई ऐसी घटना हुई हो जब उन्हें इन शहरों में अपनी भाषा, खान-पीन, रहन-सहन और संस्कृति के लिए उपेक्षा का शिकार होना पड़ा हो। बल्कि उल्टा इनके मुहल्लों की धूम-धाम वाली दुर्गा-पूजा ने सारे शहर का मन जुड़ाया है। इनके शिक्षित 'बाबू मोशाय' व्यक्तित्व, अच्छे साहित्य और संस्कार एवं भारत के स्वतंत्रता-आंदोलन में इनके महत योगदान का बखान करते लोग नहीं थकते। शरत चंद्र, रविंद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, ईश्वर चंद विद्यासागर, राजा राम मोहन राय, खुदीराम बोस जैसे नाम तो बिहार, यू.पी. और झारखण्ड के गाँव-गाँव में विख्यात हैं। आशा है कलकत्ता का समाज 'हिंदुस्तानियों' के उस योगदान को समझेगा जिसके बिना इस शहर में न तो कोई माल ढोनेवाला होता, आधे से ज़्यादा टैक्सी नहीं चलती, मिलों को ताकतवर सुरक्षा-कर्मी नहीं मिलते, कलकत्ता पुलिस के गुप्तचर-विभाग का वो सफ़ेदपोश खूँखार दल न होता जिसके नाम से कलकत्ते का हर अपराधी या अपराधी-दल थर्राता था। आज जबकि कलकत्ता में इन 'हिंदुस्तानियों' की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है और बंगाली-समाज संख्या में काम होता जा रहा है, ज़रूरत है तादात्म्य और सामंजस्य बढ़ाने की न कि अपमानजनक संबोधनों से एक-दूसरे के बीच भेद तैयार करने की। कुलीनता का अहंकार उस ढहती दीवार की तरह है जो समय के साथ दुर्बल ही होती जाएगी। बांगलादेशी चाहे जितने भी स्वभाषी हों, वो स्वदेशी तो कभी नहीं हो सकते। उनके आगमन से सामाजिक तनाव और बढ़ेगा, पृथकता और गहन होगी। 'हिंदुस्तानी' भी इस बात को समझें कि कलकत्ता अब 'परदेस' नहीं बल्कि उनके गाँव-घर का ही एक समृद्ध और प्रगतिशील रूप है। भाषायी लगाव भले न हो, लेकिन एक लंबे समय से साथ रहने से जो साझा बना है उसकी समझ तो निश्चित रूप से होनी चाहिए ताकि अपना शहर कलकत्ता सामंजस्य की मिसाल बना रहे।
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मृत्युंजय कुमार सिंह - mrityunjay.61@gmail.com.

पूर्वोत्तर भारत में साहित्य और समाज: संकट और सहभागिता की सम्भावनायें




पुराना कथन है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। यद्यपि साहित्य संवेदनशील मन और कल्पना से भरे मस्तिष्क की उपज है, इसकी कथावस्तु, चरित्र और बिम्ब एक विशेष भोगौलिक स्थान और सामाजिक-आर्थिक परिवेश को ही प्रतिबिम्बित करते हैं। यह भी सत्य है कि साहित्य केवल लिखित वाङ्गमय ही नहीं, वो भी है जो लोक परंपरा में श्रव्य और मौखिक साहित्य के विविध रूपों में पीढ़ी दर पीढ़ी विद्यमान है। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मौखिक साहित्य केवल जीवित लोगों या सभ्यता के बीच ही रह सकता है जबकि लिखित साहित्य किसी व्यक्ति, समुदाय या सभ्यता के नष्ट हो जाने पर भी अपना अस्तित्व नहीं खोता। लेकिन इसके भी अपवाद हमारे देश में हैं। जैसे कि त्रिपुरा की 'दरलोंग' जान-जाति।  
त्रिपुरा विश्वविद्यालय, त्रिपुरा के विद्वान बेंजामिन दरलोंग अपनी शोध रचना 'Literature of North East India: Oral Narratives as Documents for the Study of Ritualization in the Darlong Community of Tripura' में बताते हैं कि 'दरलोंग' जान-जाति जो अभी भी अस्तित्व में तो है लेकिन १९१९ में ईसाई धर्म ग्रहण करने के बाद, इनके अधिकांश मौखिक साहित्य का लोप हो गया। उनके अनुसार 'दरलोंग' दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की 'ज़ो मी' जान-जाति का एक सम्प्रदाय है, जिसे अंग्रेजों ने म्यानमार में 'चिन', मणिपुर में 'कुकी' और मिजोरम में 'लुशाई' के नाम से पुकारा। इसलिए इन्हें 'कुकी-चिन' वर्ग से जोड़ा जाता है। विभिन्न इलाकों में रहकर भले ही इनकी बोली भी भिन्न हो गयी हो, लेकिन ये आपस में एक-दूसरे की बोली का ७० फ़ीसदी सार समझ लेते हैं। भारत के उत्तर-पूर्व के एक बड़े क्षेत्र में अवस्थित अपनी सांस्कृतिक और भौतिक जीवन एवं मौखिक साहित्य की समानता और जातीय समरूपता के लिए परिचित इस जान-जाति का मौखिक साहित्य आज के दिन विलुप्त-सा हो कर रह गया है। 
पूर्वोत्तर भारत के साहित्य की कथावस्तु, बिम्ब एवं सार का यदि हम ध्यान से मनन करें तो उसमें अस्तित्व की असुरक्षा, अंतर्जातीय संघर्ष, विवाद और एक मुक्त सुरक्षित जीवन की लालसा का विस्तृत आयोजन दिखता है। ये असुरक्षा कई कारणों से उपजी है। एक समन्वित भू-खंड को असंगत तरीके से बाँट देने से जनित पीड़ा, एक नयी राजनीतिक इकाई या निकाय में अपना स्थान बनाने की होड़ और वेदना, व्यावसायिक बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में अपनी संस्कृति और कला को बचा कर रखने के उपाय खोजने का द्वंद्व, आज़ाद भारत की सशक्त सार्वभौमिक सत्ता से जुड़ने की दुविधा और उसे आत्मसात करने का दवाब, अपरिचित लोगों और फौजी ताकतों से जूझने की दैनन्दिन कवायद - सब मिलकर एक ऐसे अराजक भ्रम की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं जिसमें एक आम आदमी का सशंक हो उठना उतना ही लाज़मी है जितना कि हठात् किसी का एक अनजाने समुदाय में फेंक दिया जाना। पूर्वोत्तर भारत की ज़मीन और लोग मात्र १ फ़ीसदी उस देस की ज़मीन से जुड़े हैं जिसने उन्हें अपना रक्खा है, बाकी के ९९ फ़ीसदी वो विदेशी ज़मीन से जुड़े हैं - चाहे वो भूटान हो, म्यानमार, चीन, तिब्बत या बांग्लादेश। जनजातीय जीवन को यदि देखा जाय तो वो उन तथाकथित विदेशी परिवेश से अपने को ज़्यादा करीब महसूस करते हैं न कि भारत की उस ज़मीन के लोगों से जो राजनीतिक अस्तित्व के हिसाब से उनके अपने हैं। ये फल है उस तिब्बती-बर्मी भाषा और संस्कृति के एक वृहत समुदाय का जो अपने पृथक सार्वभौम घेरे के बाहर जा कर भी एक-दुसरे से जुड़ा महसूस करता है। पूर्वोत्तर भारत की साहित्यिक और कलात्मक संवेदना में ये पीड़ा अनायास ही उभर कर सामने आती है। विप्लव, विद्रोह, विरोध, भ्रष्टाचार और प्राकृतिक दुर्योग की बहुआयामी एवं मिश्रित अभिव्यक्ति पूर्वोत्तर भारत के साहित्य में जैसे सर्वव्यापी शाश्वत सत्य की तरह फैला दिखता है।
उपरोक्त नकारात्मक अभिव्यक्तियों सो थोड़ा परे हटकर जब मैंने अवलोकन किया तो मुझे परत-दर-परत प्राकृतिक सौंदर्य और हमारी वर्त्तमान राष्ट्रीय चेतना की मूल धारा के समरूप किन्तु एक अलग-सी जिजीविषा दृष्टिगत हुई। प्रदीप आचार्य द्वारा अनुवादित समीर तांती की १९५६ की कविता में ज़रा झांकें:
How can I hold hunger guilty
Hunger is my chilhood's bounty
Leaning on its shadow I played the flute
Played being Shyaam-Kanu.....
I have no quarrels with it
How can I hold hunger guilty
Hunger is my mother's first miscarriage
The third world of my agony
ये कविता एक विशेष इलाके और परिवेश में पल रही उस विषम परिस्थिति को उजागर करता है जिसमें अतृप्य भूख की वेदना बाँसुरी के माधुर्य और माँ के पहले गर्भपात की असहनीय पीड़ा को साथ लिए संताप के तृतीय जगत का निर्माण करती है। मुझे यह अभिव्यक्ति उतनी ही शाश्वत और मानवीय संवेदना से भरी दिखती है जितनी कि कवि शमशेर की वेदना से निर्मित समीर तांती के समरूप 'तृतीय जगत', जब वो अपनी कविता 'यह शाम है' में कहते हैं:
"यह शाम है
कि आसमान खेत है पके हुए अनाज का।
लपक उठीं लहू-भरी दरातियाँ,
- कि आग है: धुआँ धुआँ …"
ये भाव ‘मिशिंग’ जन-जाति के कवि जीबन नारा  की कविता 'द बुद्धा एंड अदर पोयम्स' (१९७०) में और भी मुखर हो उठते हैं:
"Mama, you are drinking more than your need
The grey crop on your head worries you no end
And you drown yourself in the cup
As we are away, you call and holler, pause and wail,
And duck your tears deeper in pillow...." (अनुवाद: प्रदीप आचार्य)
जीबन नारा पेशे से अध्यापक हैं और अखोमिया (असमिया) में लिखते हैं। अपनी शैली और तेवर में समसामयिक भी हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति में उनकी अपनी जनजाति और मिट्टी का सरोकार भाव स्पष्ट दिखता है।
यही वेदना विद्रोह बन कर फूटती है मेघन कछारी उर्फ़ मीथिंगा दाईमारी में (जो 'उल्फा' के सांस्कृतिक और प्रचार सम्बन्धी विषयों के सचिव हुआ करते थे), और विषमयी होकर मुखरित होती है उनकी कविताओं में। प्रदीप आचार्य द्वारा अनुवादित उनकी इस कविता का तेवर देखें:
"Tears make me drink till I am sozzled,
The night sky shivers at my mad rants
My ruined vitals go alert like a cat,
And the startled whore spits at me
Out of hatred, sheer hatred....
Like erosion I steadily break and splinter,
breaking against the bend in my heart"
(Megan and Stray Ramblings - Translated by Pradeep Acharya)
हृदय के मोड़ तक पहुँचते-पहुँचते पाशविक पीड़ा का रेचन है ये कविता। लेकिन ठीक इसके विपरीत सौरभ सैकिया और अनुभव तुलसी जैसे असमिया मूलधारा के कवि भी हैं जो अपने ग्रामीण रोमांस के सघन भावों की शैली और बिम्बों से गुदगुदाते हैं। कवि कबीन फूकन थोड़े रोमांस के विरोधी हैं, लेकिन मानव-सुलभ आत्मीयता और घनिष्ठ भावों को नहीं नकारते।
          लोक-जीवन की वास्तविकता समसामयिक असमिया कविताओं के लिए कोई अजीब या निराला नहीं है।  सिवानन्द काकोती की लघु-कथायें केंद्रीय असम के वैष्णव गाँवों के दैनिक दिनचर्या से जुड़े यथार्थ को प्रतिबिंबित करती हैं। अरूपा पातोंगिया कलीता का अपने समाज के नारी-जीवन की विसंगतियों के प्रति सरोकार-भाव सचमुच जानने लायक है।  मामोनी रायसम गोस्वामी (इंदिरा गोस्वामी) का ग्रामीण नारियों के जीवन का निष्कपट चित्रण और ख़री-बयानी अपने गाँव की सीमा पार कर प्रतिवेशी स्थानों तक की छाया उजागर करता दिखता है। इस समसामयिक परंपरा से परे सैयद अब्दुल मलिक (Longing for the Sunshine), नवकांत बरुआ (Kapiliparia Xadhu), देबेंद्रनाथ आचार्य (अन्य युग, अन्य पुरुष) या रोंगबोंग तेरांग (रोंगमिलिर हान्ही) अपने विविध भाव-चित्रण के विस्तार के लिए जाने जाते हैं। हाल-फ़िलहाल की रचनाओं में रीता चौधुरी की 'देवलांगखुई' और 'माकाम'(ऐतिहासिक घटनाओं से बुनी कथा) मुझे बड़ी रोचक और मर्मस्पर्शी लगी।  एक में कछारी, सूतिया और कोंच की मृतप्राय स्थानीय विरासत को पुनर्जीवित किया है, तो दूसरे (माकाम) में अंग्रज़ों के चाय-बागान में सबसे पहले लाकर बसाये गए 'चीनी मज़दूरों' के त्रासदी की कहानी है। जिस भाव की गंभीरता और करुणा से रीता जी ने उस त्रासदी का चित्रण किया है, उसे पढ़ने के बाद सारी देशभक्ति, राजनैतिक वैचारिक मूल्य और राष्ट्रवादी गौरव - बेमानी लगते हैं।
          अरुणाचल प्रदेश के असमिया भाषा के लब्ध्प्रतिष्ठ लेखक येशे दोरजी थोंगची की अपातानी, आदी, अबोर आदि जन-जातियों पर प्रकाश डालता साहित्य, लुमेर दाई का 'पहाड़ेर सिले-सिले,' 'पृथ्वीर हानहीन,' 'मोन आरु मोन' - सबमें पूर्वोत्तर भारत का जीवन-वैविध्य मुखरित है।
ये सराहनीय है कि पिछले एक-दो दशकों में न सिर्फ़ उत्तर-पूर्व राज्यों की भाषाओँ का एक भरा-पूरा साहित्य उभर कर आया है, बल्कि उनके हिंदी और अंग्रेज़ी अनुवाद की तरफ भी प्रशंसनीय पहल की गयी है। केवल केंद्रीय हिंदी संस्थान के तत्त्वावधान में पूर्वोत्तर भारत की कई भाषाओँ की लोककथा, लोकगीत और लोक जीवन से जुड़े साहित्य का अनुवाद और भाषांतरण किया गया है। इनमें से कुछ का नाम मैं लेना चाहूँगा –
1. राङगोला (कॉकबरक भाषा से) सुश्री रूपाली देबबर्मा
2. तीन भाई और एक बहन (पनार भाषा से) डॉ. संतोष कुमार
3. झील का रहस्य (ताङसा भाषा से) सुश्री मैखों मोसाङ
4. कोरदुमबेला (मिजो भाषा से) श्री एच. वानलललोमा
5. जायीबोने (गालो भाषा से) सुश्री किस्टिना कामसी
कुछ साहित्य उन रचनाकारों से आया है जिन्होंने अपने समाज और लोक जीवन की कथा या कथावस्तु पर हिंदी में मूल रचना की है। का तिडआव (कौआ) (खासी भाषा से) -संग्रह एवं भाषांतरण- श्रीमती जीन एस. डखार
कौआ था एक सुंदर पंछी
वर्तमान जैसे बदरूप नहीं
“कौवे ने ईश्वर को धोखा दिया
काले छड़े से वह ढक गया।”             
यथा खासी कहता है
कदापि झूठ न कहना
कहीं छोटी आयु में दाँत न गिर पड़े
और कूटे हुए सुपारी खाना पड़े।
अब यहाँ कितनी सूक्षमता से नीति की बात ग्रामीण लोकोक्तियों की तरह समझायी गयी है कि 'झूठ बोलना पाप है', और साथ ही ये बात भी उभर कर आई कि इस प्रदेश के लोग सुपारी खाना पसंद करते हैं। ये भी पता चला कि निश्चित रूप से यहाँ सुपारी की खेती भी होती होगी।
          इसमें कोई शक नहीं कि आर्थिक उदारता की नीति, संचार-प्रसारण के माध्यमों का आधुनिकीकरण और वर्ल्डवाइड वेब के विकास ने पूर्वोत्तर भारत की अनजानी भूमि और उससे जुड़े लोग एवं संस्कृति को भारत की मूलधारा से जोड़ने में अहम् भूमिका निभायी है। सरकार की विभिन्न विकास-सम्बन्धी पहल और विशेष रूप से 'लुक ईस्ट नीति' ने वो आस जगाई है जिसकी सदियों से ज़रुरत थी, लेकिन साथ ही साथ जाति और स्थान-मूलक भेद-भाव के नए आयाम को भी जन्म दिया है। पूर्वोत्तर भारत की 'सात बहनों' का प्रदेश मानव-विज्ञान का संग्रहालय है। लगभग २०० छोटी और बड़ी जन-जातियाँ अपनी-अपनी बोली के साथ इस प्रदेश में निवास करती हैं। केवल असम राज्य में १९२ भाषाएँ और बोलियाँ, जिनमें से ३१ ग़ैर-भारतीय हैं, बोली जाती हैं। यह इनके बहुभाषी एवं सांस्कृतिक विविधता का परिचय देता है। साथ ही यह भी बताता है कि चाहे जितने भी प्रयास किए जाएँ, हर बोली या हर भाषा में लिखे साहित्य को पाठक तभी ग्रहण कर पायेंगे जब इनका अनुवाद देश की मूलधारा से जुड़ी भाषाओं में किया जायेगा - जैसे, बांग्ला, असमिया, हिंदी और अंगरेजी। ऐसे भी अंगरेजी नागालैंड की प्रथम भाषा और मणिपुर, मेघालय एवं मिजोरम की सहायक अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। अभिप्राय यह हुआ कि असम और त्रिपुरा को छोड़कर बाकी के राज्यों में अंग्रेज़ी वहाँ के जन-जीवन से ओतप्रोत जुडी है, और इसी भाषा में वहाँ का अधिकतर साहित्य (लोकगीत या लोक कथाओं को छोड़कर) भी लिखा जाता है। निगमानन्द दास की पुस्तक ' Ecology, Myth, and Mystery: Contemporary Poetry in English from Northeast India (Sarup & Sons, 2007)' में भालचन्द्र नेमाडे कहते हैं कि भारत में क्षेत्रीय अंग्रेजी कविता का उत्तरोत्तर लोप हो जायेगा जब क्षेत्रीय भाषाओँ से अंग्रेजी में एक सुसंगठित अनुवाद का कार्यक्रम शुरू हो जायेगा। नेमाडे की सोच ये है कि क्षेत्रीय भाषाओं के अंग्रेजी रचनाकार एक मूल्य-तटस्थ क्षेत्र में काम करते हैं, दो संस्कृतियों से उकेर कर बनाया गया एक ऐसा कृत्रिम स्थान जिसमें मौलिक बिम्बों एवं भावों का विस्तार असंभव है।  ऐसी ही धारणा के शिकार हैं प्रो. एम.के.नायक जो ये मानते हैं कि भारतीय अंग्रेजी-कवि एक ऐसे वृक्ष की तरह है जिसकी जड़ें तो भारतीय मिट्टी में हैं और पत्ते पश्चिमी हवा में उड़ रहे हैं। लेकिन मैं इन धारणाओं को केवल आंशिक सहमति ही देता हूँ। ये सच है कि हमारे कई देशज भाव, अभिव्यक्ति और बिम्ब अंग्रेजी के शब्दों और भावों से शायद उतने मुखर न हो पाएँ जितना कि अपनी स्वाभाविक बोली में, लेकिन यहीं पर साहित्यकार आलोचक को पीछे छोड़ जाता है। विशेष कर एक कवि, जो शब्दों की पारिभाषिक परिधि में नहीं रचता, बल्कि भावों के उर्वर खेत तैयार करता है जिसमें शब्द स्वतः उग आते हैं।
मान कर चलें कि श्रीमान नेमाडे और नायक के मंतव्य ज्ञानोचित हैं, तो क्या वो प्रयास भी छोड़ दिया जाय जो एक मात्र विकल्प है हमारे साहित्यों, कला और शिल्पों के आपस में जुड़ने का? यदि पाब्लो नेरूदा, बालज़ाक, शेखोव, टॉलस्टॉय, माईलोज़, मिलन कुंदेरा,जेसप पानीनी का अनुवाद अंगरेजी में न होता तो क्या होता? अपनी जड़ और दीगर हवा की स्थिति तो इन्हें भी वही मिली होगी जो पूर्वोत्तर भारत या फिर किसी भी भारतीय अंग्रेज़ी-रचनाकार के लिए प्रयोज्य होगी। यह कहकर मैं अंग्रेजी भाषा की हिमायत नहीं कर रहा, और न ही हिंदी के आधिपत्य का प्रसार करने की मेरी कोई मंशा है। मैं केवल यह अनुरोध कर रहा हूँ कि सह-अस्तित्व और सहभागिता की मिसाल इस देश भारत में ऐसा कुछ न हो जिससे हमारा वैचारिक विच्छेद होता हो। आलोचना हो, विचार-विमर्श हो, नयी-नयी धारणायें आएँ, हमारे बहुभाषियों की धार पैनी हो, और हम जिस भाषा में सही उसे पढ़ पाएँ, जी पाएँ। Penguin से प्रकाशित 'The House with a Thousand Novels' की लेखिका आरुणी कश्यप कहती हैं कि भारत की मुख्य-भूमि के अंग्रेज़ी लेखकों से पूर्वोत्तर भारत के अंग्रेज़ी-लेखकों का स्वर भिन्न है क्यूँकि उनकी संवेदना की ज़मीन अलग है। पूर्वोत्तर भारत के राज्यों का भारत की मूलधारा की राजनीति से धारावाहिक टकराव और यहाँ के निवासियों के जीवन की पृथक सोच और मान्यताएँ यहाँ के साहित्य में मुखर दिखता है। विभिन्न साहित्यिक वर्गों में 'पूर्वोत्तर भारत के साहित्य' की चर्चा तभी तो एक अलग अस्मिता के तहत की जा रही है।
मेरी धारणा है कि एक अच्छी संख्या है पूर्वोत्तर भारत में उन बासिन्दों की भी जो अपने पूर्वजों के साथ उनके क्षेत्र की भाषा भी साथ लाये हैं। बांग्ला और हिन्दी-भाषी इनमें से मुख्य हैं, लेकिन मैथली और दक्खिनी भाषाओँ के भी कई ऐसे परिवार हैं जो अपने अपनाए हुए घर की भाषा में पारंगत हैं और अपने पूर्वजों की भाषा का भी अच्छा ज्ञान है। ऐसे लोगों में हमें उत्साह भरना चाहिए रचनाधर्मिता का ताकि वो अपने पूर्वजों की भाषा में अपने अपनाए घर की कथा-व्यथा, गीत-कविता, नाटक लिखें। यह भी हर्ष का विषय होना चाहिए कि हमारे देश में दुभाषियों और त्रिभाषियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। जहाँ प्रमुख भाषाओँ को बोलने वाले  दुभाषियों की जनसँख्या लगभग बीस (२०) फ़ीसदी हो चुकी है, त्रिभाषी लगभग आठ (८) फ़ीसदी हो गए हैं। उधर अल्पसंख्यक भाषा को बोलने वालों में यही जनसँख्या क्रमशः बढ़कर लगभग चालीस (४०) फ़ीसदी और १० फ़ीसदी हो गयी है।
 'एक साहित्यिक की डायरी' में एक जगह मुक्तिबोध लिखते हैं - '...मुझे अज्ञात से डर लगता है । न मालूम कौन सा अज्ञात अब मेरा इंतजार कर रहाहै । ... किंतु साथ ही इन विवशताओं से पराजित होने की आवश्यकता  नहीं है । ज्ञात  से अज्ञात की ओर जाने का कार्यक्रम बना डालो , डरो  नहीं ।ज्ञात से अज्ञात की ओर जाने से ही ज्ञान की विवशताएं टूटती रहेंगी, उसकी सरहदें टूटती रहेंगी। लेकिन जिस दिन से आप केवल ज्ञात से ज्ञात की ओर जाएंगे, उस दिन आप केवल अपनी ही  कील पर, अपने ही आसपास घूमते रहेंगे।'
‘शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
सत्य केवल एक जो कि
दुःखों का क्रम है ’ ।
(मुक्तिबोध)
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(Mrityunjay Kumar Singh)

जनता, लॉक डाउन और कोरोना- वारियर्स की चुनौतियां



कोरोना वायरस का संक्रमण-काल स्वयं में एक स्थैतिक परिवर्तक (static variable) है, जिसके सापेक्ष 'जनता' और 'कोरोना वारियर्स' के संकटों और चुनौतियों को समझना मेरे इस लेख का मुद्दा है।
मनुष्य को किसी भी तरह की यथास्थिति बहुत भाती है। हम अलग-अलग खेमों में चाहे जितने भी विरोध, प्रतिवाद और क्रांति की बातें कर लें, हमारे अंतर का जीव अपनी एक नियत जगह में जीना चाहता है। एक ऐसा अपना बनाया हुआ स्थान, जहां वह बदलाव के ख़तरे से पीड़ित तो रहता है, लेकिन उस यथास्थिति का ठहराव उसे सहज ही कुछ बदलने नहीं देता। धीरे-धीरे सुरक्षा का कवच घिसता जाता है, लेकिन तब तक यह चर जीवन, कहीं ऐसे बिंदु पर आ चुका होता है, जहां पहुंचने के दौरान हम कई समझौते कर चुके होते हैं। एक समझौता दूसरे समझौते को जन्म देता है, एक झूठ की तरह, जब तक वह हमारे जीने का साधन न बन जाए। मज़दूर का बेटा अक्सर मज़दूरी को ही अपना ध्येय मान लेता है। बहुत विरले हैं जो इस व्यूह को तोड़ पाते हैं, लेकिन इस व्यूह को तोड़ कर निकलने वाले फिर उस व्यूह की तरफ नहीं जाना चाहते। उनकी एक अलग ही दुनिया बस जाती है - एक नई दुनिया, जो धीरे-धीरे उनकी असली दुनिया मे तब्दील होती जाती है। आदमी वही जीता है, जो जीना चाहता है।
कोरोना वायरस का मनुष्यों पर इस धावे ने उस यथास्थिति की जड़ें हिला दी। वही मनुष्य जो आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस की हद में आने लगा था, जो मनुष्य की जैविक और पर-जैविक गतिविधियों को डाटा बना कर छोटे से छोटा किए जा रहा था, जिसने अपनी बुद्धि और शक्ति से दुनिया को अनगिनत क्रियाशील खंडों में बांटा, जो बिना पैसे को छुए खरबपति बना जा रहा था, अचानक अपने घुटनों पर आ गया। किसी अदृश्य मायावी तत्व ने उसकी दुनिया हिला दी। यथास्थिति की सारी दीवारें टूट गिरीं, आदमी नंगा होने लगा। उसकी बनाई हुई जगह जैसे कोई उठा कर ले गया। उसके सारे संसाधन मुँह बाये खड़े रहे। कुछ भी काम न आया। जनता और उस जनता के प्रतिनिधि, एक-दूसरे का मुंह ताक रहे हैं।
ऐसी आपदाएं या संकट एक अदृश्य भय ले कर भी आती हैं, जो मनुष्य के मनोविज्ञान को मथ कर रख देता है। उसके मस्तिष्क का जैविक मानचित्र ही बिगड़ जाता है। तर्क और युक्ति घास चरने चली जाती है, रह जाता है बस एक डर और उस डर से लड़ने या पलायन की इच्छा। ऐसी ही एक अवस्था का शिकार हुई है मज़दूरों की वह पूरी जनसंख्या, जो अभी सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे हैं और उनकी इस दुर्दशा ने देश में एक राजनीतिक मल्ल्युद्ध का परिवेश ला खड़ा किया है।
कोरोना-संक्रमण से बचाव का केवल एक ही रास्ता सामने था - सामाजिक मेलजोल को बंद करके, आपस में शारीरिक दूरी का यथासंभव निर्वाह करना। साथ ही इससे संक्रमित लोगों के संगरोध (क्वारनटाइन) की व्यवस्था तथा नाज़ुक हालत में पड़े रोगियों की अस्पताल में देखरेख की पृथक व्यवस्था भी करना उतना ही अनिवार्य था। संक्रमण चूंकि भीषण छुआछूत की बिमारी के रूप में उभर कर आया था, इसलिए इससे संक्रमित या संक्रमण के लक्षण वाले लोगों से स्वयं स्वस्थ्य-कर्मियों को भी बचा कर रखने की ज़रूरत थी।
ज़ाहिर है कि जब चीन, अमेरिका और इटली जैसे महान स्वास्थ्य सेवाओं के केंद्र यह सारे काम उचित ढंग से और समय पर नहीं कर पाए, तो भारत जैसे देश से, जहां कि देश के जी.डी.पी (सकल घरेलू उत्पाद) का मात्र डेढ़ प्रतिशत स्वास्थ्य संसाधनों के विकास पर लगाया जाता है, भला कितनी उम्मीद की जा सकती है। राज्यों की भी यही गति है। स्वतंत्र भारत में शायद ही कभी शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि पर उतना धन ख़र्च किया गया जितना कि ज़रूरी था। परिणाम किसी से छुपा नहीं है। एक कृषि-प्रधान देश में बहुसंख्यक किसान आत्महत्या करते पाए जाते हैं। आज तक बुनियादी स्वास्थ्य-सेवा वाले डॉक्टर और संसाधन, पंचायत के स्तर तक भी नहीं खड़े हो पाए। कहीं स्वास्थ्य-केंद्र है, तो संसाधन नहीं, कहीं संसाधन है तो डॉक्टर और कर्मी नहीं। ऐसी चरमराई अवस्था में पड़ी स्वास्थ्य-सेवा भला कैसे इस वैश्विक महामारी को झेल पाती।
  ‘जनता’ और ‘कोरोना वारियर्स’ एक ऐसे ही परिदृश्य के सापेक्ष खड़े हैं, जहां हर दिन, यदि एक उपाय ले कर आता है, तो साथ ही विविध समस्याओं का भंडार भी। सबसे ज़्यादा पीड़ित और प्रभावित हुए हैं उस तबक़े के लोग और परिवार जिनकी रोज़ी-रोटी हर रोज़ के कमाए धन पर आश्रित है। सरकारों के लाख अनुरोध के बाद भी भारतीय समाज में वह सदिच्छा नहीं जागी कि अपने व्यवसाय या वाणिज्य की तात्कालिक आंशिक क्षति को सह कर भी उनका काम करने वाले लोगों की मदद करें। जिनके पास साधन है, वो अपने घर में रसद-पानी का भंडार भरने में लग गए, इसके बावज़ूद भी कि लगातार सरकारें यह दिलासा देती रहीं, कि खाने-पीने की सामग्री का प्रचुर भंडार भारत के पास है और उसकी कमी आने वाले कई महीनों तक नहीं होने वाली। हताशा और भय में दबा वह तबका आने वाले समय की असुरक्षा से अधीर हो कर धीरे-धीरे कुलबुलाने लगा। लगभग छः करोड़ अंतर्राज्यीय प्रवासी मज़दूर और उनसे जुड़े ग्रामीण परिवारों के इस तरह कुलबुलाने की त्वरित गति ने पलायन का एक सैलाब ला दिया, जिसके लिए देश सशंकित तो था, लेकिन तैयार नहीं था।  
कोरोना के संक्रमण से जनता को बचाने के लिए जो तमाम संसाधन जुटाए गए या पद्धतियां बनाई गईं, उसे अंजाम देने के लिए कुछ विशेष सेवाओं के कर्मी एवं उनके सहयोगियों की ज़रूरत थी। इनमें से प्रमुख हैं स्वास्थ्य-सेवा से जुड़े अस्पताल, संस्थाएं, स्वास्थ्य सेवा के लिए ज़रूरी सामग्री और साधनों की आपूर्ति के केंद्र, विभिन्न नगर-निगम, नगरपालिका, पंचायत आदि से होने वाली सफाई, परिवेश संरक्षण और पुलिस की सारी इकाईयों का सहयोग। इन्हें ही सम्प्रति 'कोरोना वारियर्स' के नाम से जाना गया है। यहां यह बताना अनिवार्य है कि इन सारे 'कोरोना वारियर्स' की गतिविधियों से एक और भी बड़ा समुदाय जुड़ा होता है, जो अदृश्य रह कर भी उनके सारे क्रियाकलापों की नींव है।  
उपरोक्त सेवाओं को मुहैया कराने वाले मानव संसाधन का यथोचित प्रबंधन और उनकी सुरक्षा भी एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। कोई भी नीति, उपाय या पद्धति अपने कार्यान्यवन के स्तर पर आती है तो उस समय तमाम खामियां और असुविधाएं सामने खड़ी होती हैं, जिसे समझना और सुलझाना बहुत ही ज़रूरी होता है। ये सारी कमी, ख़ामी या असुविधाएं इतने ज़मीनी स्तर की होती हैं कि अच्छे से अच्छे नीति निर्धारक भी उसे देख नहीं पाते। यह दरवाज़े में लगने वाली लकड़ी के उलह जाने, कील के टूट जाने, टेढ़ी हो जाने या आपकी रसोई में अचानक गैस-बर्नर के नहीं जल पाने की असुविधा जैसे होते हैं। इनका शमन वही लोग कर पाते हैं जो इन कामों में प्रशिक्षित और दक्ष होते हैं।
जब कोरोना के प्रति हमारा देश गंभीर हुआ तब तक स्वास्थ्य-सेवा और पुलिस सेवा से जुड़े लोग यह समझ चुके थे कि उन पर कितना दवाब आने वाला है। दुर्भाग्य से स्वास्थ्य-सेवा के पास वो संसाधन समय पर नहीं जुट पाए जिसकी ज़रूरत उन्हें बड़े स्तर पर आगे होने वाली थी। उसका मूल कारण यह था कि कोरोना संक्रमण के मूलभूत लक्षणों का परिचय तो हमारे डॉक्टरों को मिल गया था, लेकिन इसके निवारण का कोई उपाय या साधन सम्पूर्ण विश्व भर में कहीं उपलब्ध नहीं था। विभिन्न विकसित देशों के नागरिक हज़ारों की संख्या में संक्रमित हो रहे थे और उसी अनुपात में मर भी रहे थे। लाज़मी है कि ऐसी किसी भी परिस्थिति में जागरूकता से अधिक भय का संचार होता है। भय का अर्थ है मनुष्य की बुद्धि का भ्रमित और विचलित होना और समुदाय में, भेड़-चाल जैसी एक अस्तव्यस्त व्यवहार का फैलना। भय सबसे पहले असुरक्षा के माध्यम से स्वार्थ को उकसाता है और स्वार्थ, अधैर्य और अवहेलना की प्रवृति को बढ़ावा देता है। इसी अधैर्य और नीति-नियम के उल्लंघन की प्रवृति के कारण ही स्वास्थ्य-कर्मियों और पुलिस के प्रति हिंसा की भावना भी भड़कती है।
तो ऐसे में, बरबस ही कुछ चुनौतियां हम सब के लिए आ खड़ी होती हैं। ये चुनौतियां हर जगह, अपनी भौगौलिक और सांस्कृतिक विविधता के कारण, अलग-अलग रूपों में पायी जाती हैं। इन सब को सूचीबद्ध करना शायद संभव नहीं होगा, लेकिन साझे के जीवन की कुछ मौलिक जिम्मेदारियाँ होती हैं जो हर क्षेत्र, हर समाज और समुदाय में लगभग एक जैसी होती हैं। उन्हीं जिम्मेवारियों के सापेक्ष मैं कुछ चुनौतियों की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा, जो 'जनता' और 'कोरोना वारियर्स' दोनों के लिए ही उपयुक्त मानी जा सकती है।
'जनता' किसी भी देश के शासन-प्रणाली की धुरी होती है। 'जनता' के हित और सरोकारों के सापेक्ष ही सरकारें और उनकी संस्थाएं अपना दायित्व नियत करती हैं, इसलिए 'जनता की चुनौतियों को 'कोरोना वारियर्स' की चुनौतियों से पृथक करके देखना मुझे युक्तिसंगत नहीं लगता।
यदि वह ‘जनता’ है तो उसे अपने अनुसार अपने जीवन को व्यवस्थित करना है जो कि अचानक कोरोना के कारण अव्यस्थित हो गया है। इसके लिए हर आदमी अपने स्तर पर निजी स्वार्थ का शिकार बनता है। फलस्वरूप, एक ऐसी अफ़रातफ़री का माहौल बन जाता है जिसमें केवल अराजकता और उग्रता जन्म लेती है। यह अराजक वातावरण हर तबके को परेशान करती है। आर्थिक रूप से चाहे वह एक सर्वहारा हो, निम्न-वर्ग, मध्यम-वर्ग या फिर उच्च-वर्ग - हम सब एक संश्लिष्ट जीवन के तंतु की तरह हैं जो कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। आज देश भर में सारी उन्नत कृषि वाले क्षेत्र, उद्योग, शिक्षा और सेवाएं, मानव-संसाधन के भीषण अभाव से ग्रस्त हैं और पता नहीं आगे कब तक रहेंगे।
इसी भय और अव्यस्त जीवन को व्यवस्थित रखने के प्रयास में रत 'कोरोना वारियर्स' के व्यक्तियों पर भी इसका असर पड़ता है। हज़ारों की संख्या में पुलिस कर्मियों का संक्रमित होना, उनमें से कई लोगों का मर जाना, सैकड़ों स्वास्थ्य कर्मियों का संक्रमित होना, सैकड़ों स्वास्थ्य कर्मियों का काम छोड़ कर भाग जाना - यह सब उसी प्रभाव का फल है। पुलिस कर्मियों में काम से पलायन के अवसर नहीं बन पाते क्योंकि यह सेवा आज्ञा और आदेश पालन के ऐसे नियमों और प्रतिबद्धताओं से बनी है जिसमें दिए गए दायित्व का पालन ही एकमात्र विकल्प है। इस महामारी के लिए उपयुक्त संसाधन की तुलना में इनकी संख्या सिमित होने के कारण इनके हर दिन की कार्य-अवधि भी बढ़ गयी। अपने काम के दौरान जनता से संपर्क में आने और उसके अस्त-व्यस्त व्यवहार के कारण भी इनका ख़तरा बढ़ता गया है। 
बाहर के राज्यों और प्रदेशों से पलायन कर अपने गाँवों में लौटने वाले लोगों में, पता नहीं कितने संक्रमित होंगे और आगे कितनों को संक्रमित करेंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनके स्थायी घरों के आसपास स्वास्थ्य परीक्षण की कितनी उचित व्यवस्था उपलब्ध है। याद रहे, अभी भी बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और ऐसे कई राज्यों में परीक्षण की गति अत्यंत ही मंद है, जिसके कारण संक्रमण की सही संख्या का अंदाज़ा लगाना भी संभव नहीं है। सम्पूर्ण भारत में अभी तक प्रतिदिन एक लाख परीक्षण भी नहीं हो पा रहे हैं।
जिस गति से हर दिन संख्या बढ़ती जा रही है, वह इस बात का सूचक है कि लॉक डाउन के बाद भी संक्रमण की श्रंखला टूटी नहीं है। इस बीच प्रवासी मज़दूरों और उनके परिवारों के पलायन ने उन्हें भी बुरी तरह से संक्रमण की चपेट में ले लिया है। उनका मानना यह है कि जब भूखे ही मरना है, तो वह किसी अँधेरी खोली में हो या सड़क पर, क्या फ़र्क़ पड़ता है।
ऐसा नहीं कि यह केवल भारत में हुआ है या हो रहा है, अमेरिका जैसे प्रगतिशील और अत्याधुनिक समाज में भी, उनके कई शहरों में लोगों ने यह कह कर लॉक डाउन का विरोध किया - "यह शरीर मेरा है, जीवन मेरा है!"... अर्थ यह हुआ कि हम चाहे जैसे अपना जीवन व्यतीत करें, सरकारों को उससे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। स्पेन में भी शुरुआत के दिनों में कुछ ऐसा ही हुआ था, जब झुण्ड के झुण्ड लोग, पार्कों और मैदानों में तफ़री करते नज़र आये। जब चारों ओर संक्रमण से लोग मरने लगे और उनकी संख्या दिन दूना बढ़ने लगी, तब जा कर उन्हें यह एहसास हुआ कि कुछ गड़बड़ है, हालांकि अमेरिका में तो मृत्यु की बढ़ती भयावह संख्या के बाद भी लोग मानने को तैयार नहीं हैं। 'जनता' का यह मनोभाव और ऐसी मानसिकता 'कोरोना वारियर्स' की एक बड़ी चुनौती है। 
उससे भी बड़ी चुनौती यह है कि गाँवों, क़स्बों या शहरी बस्तियों में रहने वाले ये लोग जब मरते हैं तो अधिकतर उन्हें किसी स्थानीय डाक्टर के सलाह पर, किसी भी एक अन्य बिमारी  से मरा हुआ मान कर, उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। विशेष कर यह जान कर कि यदि उसकी डाक्टरी परीक्षा हुई और वह संक्रमित निकला, तो उसके घर वाले अपने तरीक़े से, उसका अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाएंगे। साधरणतया ऐसा ही होता है और इसमें कोई नयी बात भी नहीं है, लेकिन वर्तमान परिस्थिति में यदि वह कोरोना-आक्रांत हुआ तो निश्चित रूप से अपने मरने तक वह कई लोगों को संक्रमित कर चुका होता है, जो आगे भी उस संक्रमण का प्रसार करते हैं।
इस बीच लॉक डाउन के कारण लगातार घरों में बंद रहने की चिढ़ और आवेग से पीड़ित हो कर पुरुषों के हाथों महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा की घटनाएं भी बढ़ी हैं। श्रमिकों के पलायन से बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की जनसंख्या में भी एक बड़ी वृद्धि हुयी है। उदहारण के लिए बिहार की जनसँख्या, लगभग साढ़े चौदह लाख इन श्रमिकों के आने से,  १.२५ % बढ़ी है। इन बेरोज़गार लोगों का बोझ अब उन उपलब्ध साधनों पर है, जो स्वयं ही अतिअल्प माना जाता है। इनकी गतिविधियों पर लगातार नज़र रखना भी कोरोना-वारियर्स के रूप में पुलिस के लिए चुनौती है।
केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय के अभाव ने भी 'कोरोना-वारियर्स' की चुनौतियां बढ़ा दी हैं, क्योंकि अंततः राज्यों द्वारा नियंत्रित निकाय होने के नाते उन्हें राज्यों के आदेशों के अनुकूल ही काम करना तो पड़ता है, लेकिन कई बार विरोधाभासी स्थितियां तैयार होती हैं जो केवल तनाव पैदा करती हैं।   
इतना सब होने के बाद भी पुलिस और नगर पालिकाओं के कर्मी ज़रुरत मंद लोगों के घरों में दवा, राशन, यहां तक कि सफाई और विसंक्रमण आदि की व्यवस्था कर रहे हैं। सरकारों की नीतियों और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर प्रवासी मज़दूरों की सुरक्षा और आवागमन के साधनों की व्यवस्था कर रहे हैं। साथ ही साथ तक़लीफ़ों में पड़ी जनता के उग्र और हिंसक आघातों का भी सामना कर रहे हैं। उसके ऊपर से हमारे समाज की अशिक्षा और अनभिज्ञता, जिसके कारण जगह-जगह पर कोरोना संबंधी परीक्षण करने वाले स्वास्थ्य-कर्मियों के दल को अनिच्छा और हिंसा का शिकार होना पड़ा है।
चंद दिनों पहले की ही बात है जब स्वामी विरक्तानंद उर्फ़ शोभन सरकार की मृत्यु पर लॉक डाउन के सारे नियम तोड़ कर कानपुर में हजारों लोगों की एक अंधविश्वासी और उत्सुक भीड़ जमा हो गयी। चाहे वह निज़ामुद्दीन, दिल्ली के मरकज़ पर हुए मज़मे में संक्रमण का ख़तरा हो या रामनवमी पर निकला लोगों का जुलूस, या फिर थाली पीटने वालों का भीड़ जुटा कर शहर में घूमना - इस तरह की सारी घटनाएं जनता की मानसिक विकृति की सूचक हैं। ऐसी भीड़ पर पुलिस द्वारा लिया गया कोई भी कड़ा क़दम जनतंत्र के ख़िलाफ़ माना जायेगा। लेकिन इसके औचित्य के बारे में कोई वैज्ञानिक ढंग से सोचे, ऐसी मानसिकता आज भी हमारे देश के लिए एक सपना-सा है।
‘कोरोना-वारियर्स’ को मालूम है कि उनके संसाधन उनकी ज़रूरतों की तुलना में सदैव कम रहेंगे, इसलिए अपने साधनों और सामग्रियों का यथोचित प्रयोग करना अनिवार्य है। यह ज़रूरी है कि स्वास्थ्य-कर्मी और पुलिस कर्मी यथासंभव सहिष्णु और सहानुभूतिशील बने रहने की चेष्टा करें। आफ़त और दुर्दिन में फंसा आदमी हमेशा नासमझ हो जाता है, लेकिन उसके कारण उससे दुर्व्यवहार करना, हमारी दिक्कतें और बढ़ाता है।

-        मृत्युंजय कुमार सिंह –
(mrityunjay.61@gmail.com)

चम्पारण सत्याग्रह और पंडित राज कुमार शुक्ल



भाइयों और बहनों,
पंडित राज कुमार शुक्ल के त्याग, संघर्ष और बलिदान की कथा केवल बेतिया, चम्पारण, मुज़फ़्फ़रपुर या सारण के लोगों की कथा नहीं अपितु उस सारे त्याग और बलिदान की कथा है जिसे औपचारिक इतिहास के पन्नों पर नहीं दर्ज़ किया गया। यह हमारे उस उदासीन आचरण की भी कथा है जिसके अंधकार में न जाने कितने ऐसे व्यक्ति और समुदाय बिना किसी नामो- निशान के लुप्त हो कर रह गए।
चम्पारण सत्याग्रह का शताब्दी-समारोह विभिन्न रूपों में कई स्थानों पर सम्पन्न हुआ। सबमें एक बात सामान्य और आम दिखी। हर समारोह, हर प्रकाशन, हर प्रदर्शनी या प्रदर्शन के केंद्र में महात्मा गाँधी हैं। निश्चित रूप से महात्मा गाँधी के महत उद्योग और परिश्रम के कारण ही चम्पारण सत्याग्रह सफल हुआ और किसानों को कम से कम अंग्रेज़ निलहों के अत्याचार से मुक्ति मिली। ये और बात है कि वहाँ के लोग बहुधा यह कहते पाए गए हैं कि 'नीलहे गए तो मिलहे आए'। ये नील की कोठी के चीनी-मिल में परिणत हो जाने की ओर संकेत करता है, जिसमें किसानों पर अत्याचार या उत्पीड़न के कम उदाहरण नहीं हैं। 
बहरहाल मैं वापस अपने विषय पर लौटते हुए यह कहना चाहता हूँ कि गाँधी जी के इस महत काम के साथ कई महत्वपूर्ण लोग भी जुड़े थे, जिनके अथक परिश्रम और संकल्प के बिना शायद गाँधी जी यहाँ आते ही नहीं। इतिहास में अटकलें लगाना ठीक नहीं होता, क्योंकि यह वही कहता है जो वास्तव में घटित हुआ, न कि जो परिकल्पित था। एक और बात बता दूं कि इतिहास कभी झूठ नहीं बोलता, इतिहासकार बोलते हैं। इसी सत्य के मद्दे-नज़र हमें यह देखना होगा कि आख़िर वो कौन लोग थे जिनके ख़ून- पसीने से भरे वर्षों के त्याग को इतिहास के पन्नों में एक हाशिया तक नसीब नहीं हुआ।
'नीला सोना' (Blue Gold) के नाम से प्रचलित नील की खेती सर्वप्रथम चंदननगर (बंगाल) के फ्रांसीसी उपनिवेशिक क्षेत्र में शुरू की गई थी। लेकिन भारत से नील के व्यापार का इतिहास और भी पुराना है। पुर्तगाली समुद्री-व्यापार के पहले भारत के पश्चिमी तटों से रोमन साम्राज्य तक का सारा व्यापार अरब लोगों के हाथ में था। रोमन साम्राज्य के लिए लाल और बैंगनी रंगों की आमदनी अरब के व्यापार का एक अनिवार्य हिस्सा था। ये इसे 'आ-नील' कहते थे, जिसे बाद में पुर्तगालियों ने 'इंडिगो' कहा जिसका अर्थ होता है, 'इंडीज़ से' आया रंग। कुछ और समय के उपरांत जब यूरोपीय देशों ने अरबों के रंग की अम्लता-क्षारता को  रासायनिक ढंग से बदल कर नीला रंग बनाया तो उसका रासायनिक नाम 'anilin dyes' दिया गया जो अरब के 'आ-नील' से ही जुड़ा है।

अरब के हाथों से सामुद्रिक व्यापार का अधिकार एक लम्बे ख़ून-ख़राबे के बाद पुर्तगालियों के हाथ में चला गया; फिर फ्रांसीसी, डच और अंगरेज़ों की ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच इंडीज़ से मसाला, कपड़ा, कृषि-जन्य वस्तुओं (जिसमें नील भी था) के व्यापार की होड़ लगी रही। १७६४ के बक्सर के युद्ध, और तत्पश्चात १७६५ की इलाहाबाद की संधि से मिले बंगाल-बिहार-उड़ीसा के दीवानी अधिकार ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को यहाँ के जनगण का औपचारिक रूप से मालिक और भाग्य-विधाता बना दिया। १७९३ में लार्ड डलहौज़ी साहब के 'परमानेंट सेटलमेंट'  ने ज़मीन और ज़मीन के मालिकाना का स्वरुप तो पलट ही दिया, साथ ही अपने अनुगत, लेकिन किसानों के शोषक, ज़मींदारों का एक दल भी ला खड़ा किया। अब खेतों में किसान का पसीना नहीं, लहू बह रहा था। लोकगीतों में श्रम के श्रृंगार  की जगह विपन्नता के विषाद ने ले ली थी।

१८वीं शताब्दी में ब्रिटेन में हुए औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप कपास का उत्पादन अत्यधिक बढ़ गया, और साथ ही साथ कपड़ों को रंगने के लिए नील की मांग भी। वेस्ट इंडीज और अमेरिका से जो नील की उपलब्ध आपूर्ति के साधन थे वो विभिन्न कारणों से सिकुड़ते गए।  हालत यह हो गयी कि १७८३ से १७८९ के बीच नील का उत्पादन आधे से भी ज़्यादा गिर गया। यही वह समय था जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में नील की खेती का तेजी से विस्तार किया। कंपनी के अधिकारी अपनी नौकरियाँ छोड़ कर नील की खेती में लगे जहाँ धन और सत्ता का भोग दोनों का बाहुल्य था। ब्रिटिश राज के आढ़तियों और कंपनी के कार्यरत अधिकारियों ने भी जी खोल कर नील की खेती में अपना पैसा लगाया। स्कॉटलैंड और इंग्लैंड से कई नए लोग इस अवसर का फ़ायदा उठाने के लिए भारत आए और यहाँ आ कर नील के बागानों के मालिक बन गए। कंपनी और तत्कालीन बैंकों ने निलहों को नील की खेती के विस्तार के लिए ऋण दिए।  १७८८ ईस्वी तक जिस भारत से नील की आमद कुल नील के आयात का लगभग ३० प्रतिशत थी, १८१० तक वह बढ़ कर ९५ प्रतिशत तक पहुँच गया। यह आँकड़ा इस बात का परिचायक है कि भारतीय नील की मांग का प्रभावशाली विकास हुआ था।

कंपनी का बंगाल पर आधिपत्य काबिज़ करने के दौरान कृषि और उद्योग का भयंकर विध्वंस हुआ था। तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था चरमरा गयी थी, और ऐसी स्थिति में आर्थिक व्यवस्था को पुनर्जीवित करने हेतु नकदी फसल के रूप में नील की खेती को व्यापक बढ़ावा मिला। इसी बहाने कंपनी के कर्मचारियों और उनके साथ जुड़े व्यापारियों को एक सुअवसर मिला कि वो अपने जमाये हुए धन और चोरी से अर्जित मुनाफ़े को भारत से इंग्लैंड भेज सकें। नील के निर्यात में अपना जमाया धन लगा कर वो उस पर और अधिक मुनाफ़े के साथ अपना धन इंग्लैंड में पा जाते थे।

१८३७ के पहले तक किसी भी यूरोपीय को खेती के लिए ज़मीन खरीदने का अधिकार नहीं था। देशी ज़मींदार दलालों के मारफ़त इन्हें ज़मीन का पट्टा देते थे, और कलकत्ता में स्थित कंपनी की एजेंसी हाउस ऊँचे दरों पर ऋण देती थी। ज़मींदार भी खेतों का पट्टा अपने मनमानी दरों पर देते थे, और इस मुद्दे पर बागान मालिकों और स्थानीय ज़मींदारों के बीच अक्सर अनबन होती रहती थी। यह परिस्थिति १८३७ में अचानक बदल गयी जब सरकार ने कानून बना कर बागान मालिकों को ज़मीन के मालिक होने का अधिकार दे दिया। इस कानून ने एक तरह से विदेशी ज़मींदारों का एक नया वर्ग तैयार कर दिया जिन्हें सरकार का सहयोग और प्रश्रय दोनों प्राप्त था। इस नियम और क़ानून ने विदेशी मालिकों के हाथ में बलपूर्वक रैयत से खेती कराने और अत्याचार के नित नए साधन अपनाने का रास्ता खोल दिया था। स्थानीय ज़मींदार भी इन निलहों के खिलाफ़ थे क्योंकि इनके आने से उनके स्वार्थ को चोट लगी थी।  यही कारण था कि १८५९ में जब बंगाल में नील-किसानों का विद्रोह हुआ तब कुछ ज़मींदारों भी किसानों के साथ खड़े पाए गए। कल तक का शोषक, अपना स्वार्थ भंग होने से, आज इनका हितैषी बन गया था।

ऐसे ही एक विषम परिवेश में ज़बरन नील की खेती करने का काम लगातार चल रहा था।  सबसे पहले बंगाल के जेसोर, नदिया, बर्दवान,बीरभूम, २४ परगना आदि के क्षेत्रों में, और फिर बिहार एवं तत्कालीन संयुक्त प्रोविंस, उत्तर प्रदेश में। किसानों के शोषण का हथियार यह तब बना जब भारत में उपजे नील के आयात से ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यवसाय-परक अधिकारियों ने एक अच्छा मुनाफ़ा कमाना शुरू किया। इस मुनाफ़े का एक बड़ा भाग रानी के उपनिवेशिक शासन को भी लाभ पहुंचाता था।

वर्धन, विस्तार और विजय की लालसा और लोभ ने नील की खेती की एक ऐसी प्रथा को जन्म दिया जिसके जड़ में ही दमन और संत्रास के बीज थे। संत्रास था तो विरोध भी निश्चित ही होता। सबसे पहला विद्रोह और विरोध भी बंगाल में ही हुआ। कृष्णनगर, नदिया के गोबिंदपुर और चौगाछा गाँव के बिष्णु चरण बिस्वास और दिगंबर बिस्वास ने विद्रोह का पहला आंदोलन छेड़ा। देखते-देखते यह बंगाल के अन्य क्षेत्रों तक फैल गया। नदिया के असननगर के बिश्वनाथ सरदार (उर्फ़ बिशे डाकात)  अंग्रेज़ों के दमन के सबसे पहले शिकार हुए, जब उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने सबके सामने फाँसी पर लटका दिया। किसानों के विद्रोह को परोक्ष रूप से नरैल के ज़मींदार, रामरतन मल्लिक जैसे  कुछ छोटे ज़मींदारों ने भी शह दी। अहिंसा के मानकों से सजे इस विद्रोह-आंदोलन को कुछ इतिहासकारों ने पहला सविनय अवज्ञा आंदोलन माना है। इसके ही फलस्वरूप १८६० के इंडिगो कमीशन का गठन किया गया, जिसके रिपोर्ट में फरीदपुर के मजिस्ट्रेट मिस्टर लाटूर ने लिखा- "नील की ऐसी एक गाँठ भी इंग्लैंड नहीं जाती, जो मानव रक्त से रंजित ना हो।" किन्तु इसी रिपोर्ट में उन्होंने यह भी कहा कि पटना, तिरहुत और छपरा में ऐसे किसी उत्पीड़न का चिन्ह नहीं है।

यह बात ग़लत थी। लाटूर साहब वास्तविकता से कोसों दूर थे। उन्हें शायद पता नहीं था कि १८३९-४० में तिरहुत, सारण और मुंगेर में किसानों और निलहों के बीच झगड़े शुरू हो गए थे। बंगाल में हुए विद्रोह ने और तूल तब पकड़ा जब १८५९ में इसी विद्रोह से प्रेरित होकर दीनबंधु मित्र ने 'नील दर्पण' नामक एक नाटक लिख डाला, जिसे माइकल मधुसूदन दत्त ने एक रात में अँगरेज़ी में अनुवाद किया और रेवरेंड जेम्स लॉन्ग साहब ने प्रकाशित करवाया। इस नाटक के अँगरेज़ी अनुवाद ने इंग्लैंड में वहाँ के लोगों का ध्यान अपने देशवाशियों द्वारा किये गए क्रूरता की ओर आकर्षित किया। फलस्वरुप ब्रिटिश सरकार को अपने नागरिकों की उग्र आलोचना और कुत्सा का सामना करना पड़ा।

सरकार ने इस शर्मनाक स्थिति से उबरने हेतु रेवरेंड जेम्स लॉन्ग पर राजद्रोह का मुक़दमा भी चलाया और उन्हें जेल की सज़ा दी गयी। उधर हरीश मुखर्जी जैसे नेता लेफ्टिनेंट गवर्नर इडेन साहब से बारबार फ़रियाद कर रहे थे कि नील की खेती बंद की जाय। इस सब का फल यह हुआ कि बंगाल में नील की खेती बंद हो गयी।

लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश के नील की खेती वाले इलाक़ों में न तो अंग्रेज़ शासकों की नज़र थी, न दीनबंधु मित्र जैसा संवेदना का चितेरा साहित्यकार था, न पादरी जेम्स लॉन्ग जैसा सहानुभूतिशील दोस्त, और न ही हरीश मुखर्जी जैसा जनदर्दी नेता।
मेरे यह कहने का तात्पर्य यह बिलकुल नहीं कि यहाँ के नेताओं में बौद्धिक चेतना का अभाव था, बल्कि मैं यह कहना चाहता हूँ कि कुछ सामयिक कारणों से उनका ध्यान राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन में उठ रहे मुद्दों पर अधिक था। और वह आंदोलन तब तक पूर्ण रूप से महात्मा गाँधी-केंद्रित हो चुका था। लेकिन उसका एक अच्छा फल यह हुआ कि पंडित राजकुमार शुक्ल जैसे स्थानीय नेताओं को भी यह प्रेरणा मिली कि इस मुद्दे को यदि राष्ट्रीय चेतना से जोड़ना है, तो गाँधी जी को इससे जोड़ना अनिवार्य है। और हुआ भी कुछ ऐसा ही। गाँधी जी ने पहले चाहे जितना ना-नुकुर किया हो, लेकिन एक बार जब शुक्ल जी के हठ से विगलित हो कर वो चम्पारण आए, तो चम्पारण के नील-किसानों की दुर्दशा जैसे भारत के जनगण की दुर्दशा का प्रतीक बन गया। यहीं से गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को बल भी मिला और सारे देश का सहयोग भी। 

बंगाल के बिष्णु चरण और दिगम्बर बिस्वास जैसे लोग यहाँ भी हुए। पंडित राज कुमार शुक्ल, पीर मुहम्मद मुनीस, हरिबंश सहाय, शेख़ गुलाब, शीतल राय और उनके भाई महंत राय, राधेमल शायद ऐसे ही लोग थे जिनके युगों के संघर्ष और विद्रोह की कथा को कुछ पंक्तियों के मृत्यु-लेख या शोक-गीत की तरह इतिहास में याद किया जाता रहा है। मैं अभी भी उन किसानों की बात नहीं कर रहा जिन्हें अपने इलाके में तैनात मिलिट्री पुलिस के लिए हज़ारों रुपये देने पड़े, जिनकी बहू-बेटियों के स्त्रीत्व लुटने का तमाशा कहीं चित्रित नहीं हुआ, जिनके घर लगातार टूटते रहे, जो निलहों और ज़मींदारों के पोसे हुए बाहुबलियों के हाथों शहीद हुए, जो अपने जीने का उपाय खोजते-खोजते क़ब्रिस्तानों और श्मशानों के भेंट चढ़ गए। जो ज़मीन में गड़ कर भी जीते रहे, लड़ते रहे।

नाम और उनके योगदान तो हम भूल ही गए, विवाद ज़रूर शुरू हो गया। हाल ही में 'द वायर' में छपा एक लेख देखा - 'The Unsung Heroes of the Champaran Satyagraha’ .... अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद और एक फ्रीलांस पत्रकार अफ़रोज़ आलम साहिल ने संयुक्त रूप से यह लेख लिखा है, जिसके अंत में छपा नोट बहुत ही रोचक है।  लिखा है - "This article was edited to replace Arthur Herman's description of Gandhi's characterisation of Raj kumar Shukla as an "idiot" with Gandhi's own words to describe him: an "ignorant, unsophisticated but resolute agriculturist". बात बहुत ही साधारण है, लेकिन एक विकृति सोच की ओर संकेत करती है, और वो यह है कि इन दो विज्ञ लेखकों ने राज कुमार शुक्ल को गाँधी जी द्वारा 'इडियट' कहने के आर्थर हरमन के विवरण को अपने मूल लेख में शायद सत्य माना। यदि इन्होने गाँधी जी के 'My Experiment with Truth' को पढ़ लिया होता (या शायद पढ़ा भी हो, लेकिन उसे तवज़्ज़ो नहीं दी) तो यह भूल नहीं होती, और उसे इस तरह सुधारने की ज़रुरत भी नहीं पड़ती। आपको फिर से याद दिला दूँ, मैंने अभी-अभी कहा था - इतिहास झूठ नहीं बोलता, इतिहासकार बोलते हैं। यह उद्धरण इसी बात को सिद्ध करता है। और ये आज की बातें ही कल, इतिहास के रूप में पढ़ी जाएंगी। क्या अच्छा लगेगा हमारी संततियों को यह पढ़ कर या जान कर, कि उनके पूर्वजों के देशप्रेम और बलिदान की कथा, उन्हीं के प्रजन्मों के हाथों बर्बाद हो गई? क्या यही कारण नहीं है कि इतने बलिदानों के बाद भी, आज किसी एक ग़ुमनाम बुख़ार या बीमारी से, उसी इलाके के बच्चे, सैकड़ों की संख्या में बिना इलाज़ या लाइलाज़ मारे जाते हैं?

इस लेख में इसके लेखकों ने मूलतः यह कहने की कोशिश की है कि पंडित राज कुमार शुक्ल एक अनपढ़ व्यक्ति थे जो बस कैथी लिखना-पढ़ना जानते थे। उनकी ओर से सारे पत्राचार इत्यादि उनके दोस्त पीर मुनीस साहब करते थे जो चम्पारण के नील-किसानों की पीड़ा और व्यथा कानपुर से छपने वाले अखबार 'प्रताप' में लिखते थे।  'प्रताप' के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी थे। पीर मुनीस साहब एक शिक्षक थे और अख़बारनवीस भी। इस लेख ने भैरव लाल दास जी, जिन्हें हम सब उनके इस विषय पर विषद शोध और काम के लिए जानते हैं, इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा, और यहां तक कि खुद गाँधी जी को भी इस बात का दोषी ठहराया है कि उन्होंने पीर मुनीस को, और उनके महत योगदान को, कैसे नज़रअंदाज़ कर दिया। और भी बातें हैं जो विभिन्न साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर इस ओर संकेत कर रही हैं कि कई ऐसे मुस्लिम सत्याग्रही थे जिन्हें यथायोग्य सम्मान नहीं दिया गया।

चम्पारण सत्याग्रह पर रामचंद्र गुहा की लेखनी तो मैंने नहीं पढ़ी, लेकिन भैरव लाल दास जी द्वारा सम्पादित 'गाँधी जी के चम्पारण आंदोलन के सूत्रधार राजकुमार शुक्ल की डायरी' (कामेश्वर सिंह बिहार हेरीटेज सीरीज़ -१९) में छपे लेखों को पढ़ा है। उसके पृष्ठ ५९ पर साफ़ लिखा है "गाँधी का कोई समाचार नहीं पा कर २७ फरवरी १९१७ को शुक्ल जी ने पीर मोहम्मद मुनीस से साबरमती आश्रम के पता पर गाँधी के नाम पात्र भिजवाया।  पत्र निम्न प्रकार था:
मान्यवर महात्मा,
क़िस्सा सुनते हो, रोज़ औरों के, आज मेरी भी दास्ताँ सुनो। ..."
तो भैरव लाल दास जी पर लगे इस आरोप का खंडन तो इस उद्धृत अंश से ही हो गया, मेरा विश्वास है विरोधाभाषी विचारों के बीच ऐसा बहुत कुछ है जो आगे भी ऐसे मंतव्यों का खंडन करता रहेगा।

फिलहाल तो ज़रूरी है - शोध .... और अनुसंधान ... जो उन सब तथ्यों और सबूतों को बटोरे, जिसमें अभी भी बहुत कुछ दबा पड़ा है। राजकुमार शुक्ल और पीर मुनीस ही क्यों, ऐसे बहुत लहू के धब्बे मिलेंगे जो हमारे ज्ञात समय-काल के, अज्ञात मानवों की, धमनियों के कटने से बहा था। इस इतिहास से सीखने लायक तो यह है, कि हम फिर से वह न करें, जिसने यह संत्रास बुलाया था। किसान वही हैं, किसानी भी वही है - एक का तन बदलता गया है, तो दूसरे की तकनीक; मुद्दे लेकिन, अभी भी वही हैं। और अभी भी हमारे बीच वो  राजकुमार शुक्ल, पीर मुनीस, शीतल राय, शेख़ गुलाब, महंत राय हैं जिनका सत्कार करना हम भूल गए हैं, जैसे कि स्वर्गवासी आत्मा का पिंड-दान रह गया हो।

महात्मा गाँधी ने राज कुमार शुक्ल को चाहे 'इडियट' ही क्यों न समझा हो, उसका ज़िक्र किए बिना भारत का स्वंत्रता आंदोलन नहीं शुरू होता। वह अंग्रेज़ों के अंदर उस बढ़ती बर्बरता का संकेत था जिसके हाथों बाद में जलियांवाला बाग़ जैसा हत्याकांड घटित हुआ। जलियांवाला बाग़ में मरने वालों के कम से कम नाम तो हैं, आँकड़े हैं  .... चम्पारण वालों का तो कोई नाम ही नहीं हैं। पंडित राजकुमार शुक्ल ने उन आत्माओं को अपना नाम दिया, और किसानों के चरम उत्पीड़न की एक दबी हुई त्रासदी को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की मूल धारा से जोड़ा है। कुछ तो वैशिष्ट्य रहा होगा चम्पारण के इस चाणक्य में, जिसके सम्मान में नीलहा ए.सी.एम्मन भी नतमस्तक हो गया था। अपनी सारी संपत्ति और पारिवारिक सुख-चैन को दाव पर लगा कर इस 'चम्पारण के चाणक्य' ने वह कर दिखाया, जिसने गाँधी जी जैसे सत्याग्रह के अनुभवी और पारखी को भी दिशा दिखाई, जिस पर चल कर भारत अंततः आज़ाद हुआ। सच पूछें तो गाँधी जी के सत्याग्रह के सारे तत्वों का ताना-बाना उनके चम्पारण-सत्याग्रह के दौरान ही बना था, जो देश-काल-परिस्थिति के सापेक्ष समय-समय पर विभिन्न रूपों में देश भर में उभरता रहा।

मुझे मालूम है मेरी बातें तनिक अतिशयोक्ति-सी लगेंगी, लेकिन यह मेरी थोथी भावना नहीं है, अपने भोजपुरी उपन्यास ' गंगा रतन बिदेसी' के लिए शोध के दौरान जो कुछ भी मैंने पढ़ा है और समझा है, यह उक्ति उसी का सार है।

राज कुमार शुक्ल जी की कथा मुझे कौटिल्य की याद दिलाती है, जिसे नन्द वंश के राजा धनानंद के कोप का शिकार होना पड़ा था। कौटिल्य को राज दरबार से तिरष्कृत होकर, लगभग चोरों की तरह छुप कर भागना पड़ा था, लेकिन इस संकल्प के साथ, कि वह इस अनैतिक राज का अंत करेगा। राज कुमार शुक्ल ने नील-कोठी के मालिक ए.सी. एम्मन के ख़िलाफ़ लड़ते हुए भी यही संकल्प निभाया। ये और बात है कि भारत की आज़ादी तक जीवित रहने की उम्र वो नहीं जुटा पाए, लेकिन उस अत्याचारी प्रथा का अंत निश्चित रूप से किया, जिसके कारण उन्हें अपने सारे पशु-धन, ज़मीन-जायदाद और संपत्ति को तिलांजलि देनी पड़ी। राज कुमार शुक्ल में एम्मन साहब को वह उद्योगी, हठी और अटल संकल्प का प्रतिवादी मिला था, जिसकी मृत्यु पर उन्हें भी दुःख प्रकाश करते हुए यह कहना पड़ा कि इस इलाक़े में एक ही तो मर्द था। उन्होंने न केवल शुक्ल जी की अंत्येष्टि के लिए अपने आदमी के मार्फ़त पैसे भिजवाए, बल्कि उनके अंतिम संस्कार में शरीक भी हुए, और ज़िले के पुलिस सुपरिटेंडेंट से सिफ़ारिश करके शुक्ल जी के दामाद को सरकारी नौकरी भी दिलवाई। ये एम्मन साहब का शुक्ल जी के प्रति स्नेह नहीं था, बल्कि एक दुर्द्धर्ष लड़ाकू किसान के प्रति उनकी श्रद्धा और सत्कार का भाव था।         

वहां की लोक-कथाओं, लोक-संगीत और लोक-नृत्य या नाटक में उनकी आत्मायें विचरती हैं, यह पूछते हुए, कि भारत अगर एक कृषि-प्रधान देश है, तो फिर किसान-प्रधान क्यों नहीं? क्यों हर बार किसान-विद्रोह की नौबत आती है? क्यों हर बार किसान फांसी लटक जाता है? क्यों आज तक उनके बच्चों के लिए उचित शिक्षा और स्वास्थ्य का उपाय नहीं किया जा सका?