इससे पहले कि मैं पहचानूँ
मेरी एक छोटी, राई-सी ज़रूरत
एक पर्वत बना
उसकी प्रदर्शनी लगा देते हैं
मुझे पता ही नहीं अपनी जरूरतों का
और वो बूँद-बूँद इकट्ठा कर
एक बाढ़ बहा देते हैं चारों ओर
स्वाभाविक है
इसमें मैं और मेरे जैसे कई
डूबने लगते हैं
तब हमारी ओर वो
विकास का एक तिनका बहा देते हैं
हम तैरते हैं, लड़ते हैं, थकते हैं
ज़रूरतों की बनाई इस बाढ़ में
विकास के छोटे तिनके पर लपकते हैं
थके हाथों से
उनके विकास की भुजाएँ गढ़ते हैं।
हमारी ज़रूरतें कम नहीं होतीं
और उनका विकास बढ़ता ही जाता है
हम डूबते ही जाते हैं
कभी ज़रूरतों की बाढ़ में
कभी विकास की आड़ में।
मृत्युंजय
22 जनवरी 2018
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