Monday, December 23, 2019

बची न कोई आस

नयनाभिराम कुछ बादलों की टोली
जब गढ़ रहे थे क्षितिज पर रंगोली
सूरज जब जुटा रहा था रंग
धरा पर हो रहा था दिन का कौमार्य भंग
एक अंधेरे के हाथों
जिसके फैलते ही 
शर्म से सब हो जाता है काला
चाहे वो गुरुत्वाकर्षण की धनी धरती हो या 
अंतरिक्ष भर असीम नील-वर्ण गगन
लहराते सागर की अदम्य जल-शक्ति
या ऊर्जा से फड़कता उसका रोष सघन
बस आर्तनाद-सी कौंधती है 
एक ध्वनि रह-रह
जो हरहराती आती है वहशी हाथों की तरह
और फेंक जाती है एक लिबास 
अंतिम चिन्ह 
अब नहीं बची कोई आस।

(मृत्युंजय)

Tikuli se Tikuli badali le Bhauji ....

This traditional Bhojpuri Biraha was presented during the 10th AAKHAR Bhojpuri Festival at Panjwar, Siwan... it was part of Mrityunjay Singh's lecture on 'Bhojpuri Diaspora & Lok-geet'... Shri Prabuddha Banerjee, renowned Film fare awardee music composer & Director of West Bengal, has added an esoteric element to the song with his UKULELE strings... The video is courtesy Poet and singer Sushant Sharma. Enjoy the lilting melody and folk essence of the song.

Wednesday, March 6, 2019

संस्कृति की नदी

अकस्मात् देख रहा हूँ
बुरादों-से भुरभुरे लोग
हथियारों में परिणत हो गए हैं
और दीमकों की बामी
लिजलिजे केंचुओं से भर गयी है,
मवेशी देवताओं को खदेड़
गर्भ-गृह हथिया कर बैठ गए हैं
और देवता
निराकार, अदृश्य 
आकाशवाणी की तरह 
सुनने वाले कान ढूँढ रहे हैं,
भगोड़ा चाँद 
त्योहार में घर लौटने की
अर्ज़ी लगाए बैठा है
संततिहीन लोगों के इजलास में
नदियों का नमन करने उतर आये हैं
बादलों से झूम-झूम झरते
विनाश के वृत्त -सा
मुँह फाड़े 
विकास के काले करैत
खेद रहे हैं मीलों तक
करैल कीचड़ में सनी 
छलछल उछलती, तड़पती मछलियाँ,
लचीले अजगर-सा काढ़े परिधि
क्षितिज पर का आसमान 
पड़ गया है साँवला,
रात लेकिन 
भर गई है उजास 
उन्मत्त मद्यप, बेरोज़गार
उत्सव मना रही है
तीली जलाकर आस,
नदियों के तटों पर
लाशों का 
शेष-क्रिया सम्पन्न कर
उलीच रहे हैं लोग
सारा कूड़ा-करकट
प्रजातंत्र की
कृशकाय नदी में,
बहती जा रही है नदी
अपने सतह पर
थरथराते सपनों का
प्रतिबिम्ब गढ़े
इस आस में 
कि चाँद
लौट सके अपने घर,
मवेशी अपने स्थान पर,
देवता अपने गर्भ-गृहों में
और
मछलियाँ
काले करैत के जबड़े से
बच कर
नदी के प्रवाह में,
जिसमें पानी
बस घुटने भर ही रहता है
संस्कृति का भस्म
इसी में तो बहता है।

Tuesday, February 12, 2019

'गंगा रतन बिदेसी' (भारतीय ज्ञानपीठ) भोजपुरी उपन्यास

मृत्युंजय द्वारा रचित 'गंगा रतन बिदेसी' (भारतीय ज्ञानपीठ) भोजपुरी उपन्यास सौ वर्षों की काल-परिधि में घिरी, अपनी ज़मीन से उखड़े हुए लोगों की गाथा है। यह उस दुःख, संताप और संघर्ष की कथा है, जो भोजपुरिया क्षेत्र से विस्थापित होकर गिरमिटिया बने एक व्यक्ति के परिवार और संततियों को फिर से अपनी जड़ खोजने और जमाने के दौरान सहन करना पड़ा। आज भी, अपने देश में,  सौ में से दस लोग ऐसे हैं, जो अपनी रोजी-रोटी कमाने या एक अच्छे जीवन के चक्कर में अपनी ज़मीन से प्रताड़ित या निष्कासित जीवन जी रहे हैं। अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी यह बात उतनी ही महत्वपूर्ण है।
यह कथा है उन सब लोगों की जो आपस में एक आंतरिक प्रेम की जिजीविषा से बंधे हैं, और इज़्ज़त से जीने को एक जगह खोज रहे हैं।

इसके लेखक मृत्युंजय स्वयं पश्चिम बंगाल कैडर के एक आई.पी.एस. अधिकारी हैं, जो संप्रति पुलिस महानिदेशक (होमगॉर्ड), पश्चिम बंगाल के पद पर कार्यरत हैं।

मृत्युंजय आधुनिक भोजपुरी लेखन पर चर्चा करते हुए हाज़िर हो रहे हैं ज्ञान भवन, पटना में 1 फरवरी 2019 को पटना लिटरेरी फेस्टिवल का हिस्सा बन कर। यहाँ अपने उपन्यास गंगा रतन बिदेसी के प्रसंगों और संदर्भों पर तो चर्चा होगी ही, साथ ही आप सुन पायेंगे उनका विरल भोजपुरी गायन जो इस उपन्यास का हिस्सा है। जल्द ही यह उपन्यास अपने ऑडियो-पुस्तक के रूप में भी उपलब्ध होगा।
 amazon.com पर 'Ganga Ratan Videshi' के टाइटल से यह उपन्यास उपलब्ध है। 

आपका स्नेह और सहयोग मेरी प्रेरणा भी है, और साहस भी। ....    

                                  




Ganga Ratan Bidesi by Mrityunjay - A Jnanpith Publication, New Delhi

'Ganga Ratan Bidesi' is a saga spanning centuries, continents and generations of indentured labour sent far away near exile to South Africa by the British. Devastated by the effect of Permanent settlement of Lord Cornwallis most of the farmers of small-holding became landless and came under the draconian claws of Zamindars who extracted everything they could to feed their British masters and to fill their coffers. On the other hand, all black slaves had deserted their respective farms and mines owned by British colonial masters after the Slavery was formally abolished. Their enterprises needed skilled labour immediately. Indian sub-continent was further impoverished due to its rising population, forcing a large section of landless labour to drift to other sources of livelihood. British intermediaries lured them to go to their far away colonies of British in lieu of a guaranteed home, remuneration, health services, and as a whole a better life. 

One of such ill-fated farmer was the great grandfather of Ganga Ratan Bidesi who was loaded along with with many like him in the Ship 'Truro' in 1860 and sailed to Natal ( South Africa) to work in sugar cane farms of the British colony. Hence, begins the most treacherous and trying life of this dislocated family which lands successively in one trap of exploitation to the other.

Set in the backdrop of the Indigo cultivation and the resultant landlessness of the peasants, this novel spans the freedom movement with a focus on Gandhiji’s metamorphosis from an activist in South Africa to a Mahatma in India. The tale meanders through many places, movements, lives of people and circumstances which surround this dislocated family for generations.

Ganga Ratan Bidesi culminates in present day Bengal and Bihar. With exquisite beauty and poise, Mrityunjay paints a picture of Calcutta and Howrah through the decaying decades, yet resplendent with life and hope.
Above all, Ganga Ratan Bidesi signifies the triumph of love over all else, despite being strangled by an unending misery.

The Bhojpuri novel is available on Amazon.com with the title 'Ganga Ratan Videshi' by The Jnanpith, New Delhi.