Wednesday, July 18, 2018

तुम

महज़ ख़याल ही नहीं,             
शोर-शराबे से भरे मुझमें               
एक स्थिरता हो तुम,                    
जो जड़ में अनुपस्थित हो कर भी 
मेरे चेतन को हिलाता रहता है          
इस ज़माने से लोहा लेने का 
हौसला बढ़ाता रहता है।

क्षितिज पर बेलौस पसरी
लालिमा का औसध हो तुम
जो या तो मन के भोर पर टंगा होता है
चंचलचित्त और चपल बनाने को
या फिर उस बेचारी साँझ पर
मरहम की तरह
जिसके आगे रात के सिवा कुछ भी नहीं

दुःख-सुख के अनुभव
के बीच का वो अदृश्य सेतु हो तुम
जो दुःख को सुख से
और सुख को दुख से
जोड़े रखता है
मेरी आस्था, संकल्पों को
अगोरे रखता है

शांत एकांत की नीरवता का
वो चरम बिंदु हो तुम
जिसमें बस आत्मा से
जीया जा सकता है
शरीर जो एक नश्वर है
नश्वर ही रहे तो बेहतर है

पता नहीं ये प्रेम है
या प्रेम की विविध छाया
जो हर रूप में
तुम्हें मेरी भावना के अंक में
रख जाती है
मैं खोजता रहता हूँ
तुम्हें इन छायाओं में
और तुम उभरती रहती हो
नए रूप में, नई दिशाओं में।

मृत्युंजय
22.1.2018

Monday, June 25, 2018

राजा का रथ

सपने में देखा
एक राजा का रथ दौड़ रहा था
पीछे ग़ुबार में लिपटी
दौड़ रही थी उसकी सोच;
बँटी थी उसकी रियासत
आयतों में, चतुर्भुजों में
कुछ भी नहीं था गोल या सुडौल
केवल थे बस तीखे कोण
जो हिलेंगे तो काटेंगे
ठोस-तरल जो कुछ भी है
सब आपस में बाटेंगे।
फिर जो होना था वही हुआ
तीखे कोण लगे काटने
आयतों को, चतुर्भुजों को
राजा का रथ दौड़ रहा था
दौड़ रहा था, दौड़ रहा था।

तीखे कोणों से कटकर
रक्त बह रहा 
आयतों से, चतुर्भुजों से
लेकिन राजा का रथ दौड़ रहा था
सहस्रबाहु राजा 
अपनी सारी भुजाओं से 
बरसा रहा था कोड़े, रथ के घोड़ों पर
राजा का रथ दौड़ रहा था।
दौड़ दौड़ कर अब रथ
आंधी में बदल गया था
धुआँ उठने लगा जब चारों तरफ़
जल रहे थे वनस्पति, पंछी भाग रहे थे
रथ का सारथी तो कब का उड़ गया था
लेकिन राजा को मज़ा आ रहा था
फुत्कारती हवा, चिल्लाते लोग
अररा कर गिरते पेड़, लहरा कर गिरती लाशें
सबमें उसको दिख रहा था
एक सर्वशक्तिमान राजा का पराक्रम,
एक उज्ज्वल भविष्य - अपनी प्रजा का,
आयतों का, चतुर्भुजों का;
बस गोल कुछ नहीं था, सुडौल कुछ नहीं था।

होश जब आया राजा को
चारों ओर मरुभूमि थी
तपती हुई एक बालू राशि पर
उड़ती हुई धूलि थी
तभी पुकारा एक पंछी ने
निपट अकेला, बिन संगी के
-"चलो ए राजा, 
ले चलता हूँ तुम्हें एक वन में
जहाँ छाया है, पानी है
हरियाली से छन कर गिरती
किरणें कुछ दीवानी हैं"
सब कुछ खोकर, भूखा-प्यासा
राजा दौड़ा पंछी के पीछे
गिरते-पड़ते, मरते-मरते
जब राजा पहुंचा उस छोटे वन में
पूछा पंछी से -
'कौन हो तुम?
क्यूँ किया यह सब?"
पंछी बोला-
"अपनी रानियों के लिए
जो क्रीड़ा क्षेत्र बनाया तुमने
काट गिराया जिस वन को
उस वन का मैं पंछी हूँ!
अवशेष हूँ मैं उस वन का
जिससे तुम गरिमा पाते थे।
और वो देखो, वो जलाशय
समझो इसका आशय,
जल जो था तुम्हारे वन का
वो भी सूख उड़ा आकाश को
बरस कर बन गया इस उपवन का।
क्या तुम्हें पता है
अब तुम बस 
एक मरुभूमि के मालिक हो
जहाँ न वन है, न ही जलाशय
ना उद्योग न जीवन है
ना जाने इस विजय-रथ पर सवार
तुम किसे जीतने निकले हो!"
(मृत्युंजय)

मैं जी रहा हूँ जीने के विरोध में

हलक-हलक में सूख कर
प्यास बन
पलक-पलक पर भींग कर
कुछ आस बन
फलक-फलक पर रेंग कर
जैसे किरण
लीन हो ज्यूँ अनवरत
एक शोध में
मैं जी रहा हूँ जीने के विरोध में।

छलक-छलक कर आँख से
आँसू के कण
झलक-झलक पर मर मिटा
आवारा मन
तुनक-तुनक कर भागती 
जैसे पवन
थक कर आ बैठी हो 
मेरे गोद में,
मैं जी रहा हूँ जीने के विरोध में। 

मैं प्रेम करना चाहता हूँ

एक अनघ हृदय
और साफ़ दॄष्टि लिए
मैं मनाना चाहता हूँ
तुम्हारे सौंदर्य का उत्सव
धमनियों में उमड़ते लहू का
खींच कर रास
ताकि उलीच कर 
अपनी गाढ़ी तरलता
वो तुम्हें 
अपने मोह में न लपेट लें।

घनी बरौनियों की छाया में
पलकों के उत्थान-पतन से
रह-रह विसरित संचार 
की भाषा पढ़ना चाहता हूँ
निकटता का वो गणित भी
फिर से सीखना चाहता हूँ

तुम्हारी त्वचा के अस्तर से 
अब भी झांकती है जो चांदनी 
कभी मेरे झूठ को 
सच की रोशनी से सहलाती 
तो कभी जीवन के घूरे पर पड़े  
दायित्व के टुकड़े चमकाती,
मैं उसमें नहाना चाहता हूँ।

दुविधा में पड़ा 
वक्र दिशाओं में तना हुआ
सपनों के काँपते रोम लिए  
मैं जड़ नहीं
मुक्त झूलते 
पत्तियों-सा हिलकर 
छूना चाहता हूँ, फिर से  
तुम्हारे दो आँखों में बसे 
जीवंत महाद्वीपों का जगत।

प्रेम में पगा 
प्रेम में ही विभक्त 
प्रेम से भरा 
प्रेम से ही रिक्त 
मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ। 

ये कैसी भूल-भूलैया

ये कैसी भूल-भूलैया
छत्ता छोड़ के बिढ़नी नाचे
घर में ता-ता-थैया

राह चले तो माथा फूटे
घर बैठे तो डाकू लूटे
बह गई बाढ़ में खेती लेकिन
सूखे हैं ताल-तलैया
ये कैसी भूल-भूलैया।

मुल्ला-पांडे सर पर चढ़ गए
धर्म से बाजार भर गए
अमन के नाम पर बांध गए 
मेरे खूँटे पर अपनी गैया
ये कैसी भूल-भूलैया।

जल काला है, हवा भी काली
हर कोई देता है गाली
परोपकार के नाम पर केवल
बँटता है भीख रुपैया
ये कैसी भूल-भूलैया।

दारू पी कर बकते साँचे
ज्ञान नहीं पर पुस्तक बाँचे
समझा कर सबको सीधा 
ख़ुद चाल चलें अढ़ैया
ये जीवन भूल-भूलैया।

विकास की बाढ़

इससे पहले कि मैं पहचानूँ
मेरी एक छोटी, राई-सी ज़रूरत
एक पर्वत बना
उसकी प्रदर्शनी लगा देते हैं
मुझे पता ही नहीं अपनी जरूरतों का
और वो बूँद-बूँद इकट्ठा कर
एक बाढ़ बहा देते हैं चारों ओर
स्वाभाविक है
इसमें मैं और मेरे जैसे कई
डूबने लगते हैं
तब हमारी ओर वो
विकास का एक तिनका बहा देते हैं
हम तैरते हैं, लड़ते हैं, थकते हैं
ज़रूरतों की बनाई इस बाढ़ में
विकास के छोटे तिनके पर लपकते हैं
थके हाथों से 
उनके विकास की भुजाएँ गढ़ते हैं।
हमारी ज़रूरतें कम नहीं होतीं
और उनका विकास बढ़ता ही जाता है
हम डूबते ही जाते हैं
कभी ज़रूरतों की बाढ़ में
कभी विकास की आड़ में।

मृत्युंजय
22 जनवरी 2018

तुम

महज़ ख़याल ही नहीं,             
शोर-शराबे से भरे मुझमें               
एक स्थिरता हो तुम,                    
जो जड़ में अनुपस्थित हो कर भी 
मेरे चेतन को हिलाता रहता है          
इस ज़माने से लोहा लेने का 
हौसला बढ़ाता रहता है।

क्षितिज पर बेलौस पसरी
लालिमा का औसध हो तुम
जो या तो मन के भोर पर टंगा होता है
चंचल-चित्त और चपल बनाने को
या फिर उस बेचारी साँझ पर
मरहम की तरह
जिसके आगे रात के सिवा कुछ भी नहीं

दुःख-सुख के अनुभव
के बीच का वो अदृश्य सेतु हो तुम
जो दुःख को सुख से
और सुख को दुख से
जोड़े रखता है
मेरी आस्था, संकल्पों को
अगोरे रखता है

शांत एकांत की नीरवता का
वो चरम बिंदु हो तुम
जिसमें बस आत्मा से
जीया जा सकता है
शरीर जो एक नश्वर है
नश्वर तक ही रहे तो बेहतर है

पता नहीं ये प्रेम है
या प्रेम की विविध छाया
जो हर रूप में
तुम्हें मेरी भावना के अंक में
रख जाती है
मैं खोजता रहता हूँ
तुम्हें इन छायाओं में
और तुम उभरती रहती हो
नए रूप में, नई दिशाओं में।

मृत्युंजय
22.1.2018

गणतंत्र की कहानी


तुमने देखी ही नहीं वो निग़ाहें
आंसुओं में तैरती पुतलियों की आहें
मजबूर, बे-आवाज़ वो सिसकियाँ
जो फूट पड़ती हैं गाहे-ब-गाहे
कभी किसी फाँके में पड़े घर से
तो कभी लाशों से अंटे तलघर से
कभी हुक़्मरानों के रानों में दबी
तड़फड़ाते कबूतरी के सर
तो कभी अजगरों के
जबड़े में 
टूटते लाचार सपनों की हड्डियाँ
तुम्हें क्या,
तुम खेलो, मेरी छाती पर कबड्डीयाँ।
जब भर जाएगा मन
होकर पस्त कराहेंगी जब मांसपेशियाँ
तब क्षमा की मुद्रा में खड़े कहना -
"अब मुझे आराम चाहिए!
बहुत काम किया,
आगे बढ़ते देश के क़दमों को
थोड़ा विश्राम चाहिए!"
और हम भी
हमेशा की तरह
मढ़ कर सारा दोष अपने नसीब पर
डालेंगे मिट्टी 
अपनी-अपनी आशाओं के क़ब्र पर
इंतज़ार में उस फफूँद-मसीहा के
जो 
सोख कर, चबा कर 
हमारे सामर्थ्य की जमा-पूँजी
सूखी संठियाँ सौंप देता है
हमारे बच्चों के हाथों में
जिसमें पहना कर कोई झंडा
करते वो वाग-वितण्डा,
देकर हमीं को गाली
बन कर खड़ा सवाली
बेवड़ा, हमारा बेटा
(या पड़ोस की बेटी)
नथुने फुलाए मरखंड
एक सांढ़-सा टूट कर हम पर
दरके विश्वास में
भर जाते हैं घृणा का दहन
और नहीं होता सहन।


तुमने सुनी ही नहीं वो कराहें
नींद को काटती दंराती-सी 
चुभती हुई वो बाहें
जो चाहे प्रेम से जकड़ ले
या तिरस्कार से झटक दे
देती है हमारा अंतर नोंच
बस खरोंच ही खरोंच।
किसान बने या व्यापारी
विज्ञानी या साहित्यकार
या शायद दार्शनिक,
अफ़लातून, निर्विकार
सबके गले पर झूलता है आरा
एक ऐसी मौत का
जो सर्वविदित होकर भी
रहस्य है
अपनी ही खड़ी फ़सल में जैसे
दस्यु खड़ा हो

किस-किस को हम सराहें
कितनों की नीयत थाहें,
नंबर एक, बिकेगा
नंबर दो, बनेगा दास
नंबर तीन, अंधेरे गलियों की चमेली
नंबर चार, राज पथ की रातरानी,
यही है 
इस गणतंत्र की कहानी
जितना मुँह फाड़ो
उतना भरेगा
जितना पेट पीटो
उतना ही दुखेगा
ये भावना कुछ भी नहीं
दृश्य जगत की अदृश्य माया
जिन्न और पिशाच जैसे
खेलते हों
एक अशरीरी खेल
बस छाया ही छाया।

अपराध भाव

मैं बैठा हूँ
एक ऐसी भूमि पर
जहाँ सब कुछ हरा है
हरे में हरे के अनगिनत
रंगों की छाया लिए
किरणों के संग खेल रही 
हरी धरा है,
मनुष्य के रक्त-धमनियों सी
शाखा-विन्यास लिए लेकिन
कुछ नंगे भूरे 
कृशकाय लंबे
पेड़ खड़े हैं
अपने नंगेपन के कारण
दिखते घने हैं।
और इनके बीच
इनकी ही छाया के खिलौने 
कहीं लंबे, कहीं छोटे 
तो कहीं बौने
लगे हैं अपनी जगह बनाने में
भूरे और हरे के बीच
तालमेल बिठाने में।

जैसे एक काली काया
जीवन से जुड़ी
मुँह छुपाए डोलती है
पार्श्व में रह कर भी
आगे का सब बोलती है।


मैं बैठा हूँ
और देख रहा हूँ
भिन्न-भिन्न जाति, रंग 
और बोली वाले पक्षी
रत हैं, अनवरत संभाषण में
कोई किसी की नहीं सुन रहा
कोई किसी को नहीं गुन रहा
बस अपने-अपने आशय में
डूबे, रात में
सब एकमेक हो सो जायेंगे
पक्षी भी मानव हो जायेंगे
अपने नियति की समरूपता में,
विविधता में, विरूपता में।
मैं बैठा हूँ ऐसी भूमि पर
जहाँ सौंदर्य भी
अपराध का भाव जगाता है।

मृत्युंजय
साइफोंग-इन्थोंग (तिनसुकिया) में 
2nd April 2018

मैं डरता हूँ

मैं डरता हूँ
अपने घर में रहने से डरता हूँ
सड़क पर चलने से डरता हूँ
किसी के साथ से 
इशारे करते हर हाथ से डरता हूँ
काम से डरता हूँ
काम के परिणाम से डरता हूँ
नाम से डरता हूँ
कमाई हुई प्रतिष्ठा, धन से डरता हूँ
होने वाली हर अनबन से डरता हूँ
उठती इच्छाओं से डरता हूँ
हिंसक भावनाओं से डरता हूँ
बीमारी से डरता हूँ
लाचारी से डरता हूँ
कल आने वाली अपनी बारी से डरता हूँ
आशा से डरता हूँ
हताशा से डरता हूँ
खाए हुए हर झांसा से डरता हूँ
मिट्टी से डरता हूँ
पानी से डरता हूँ
सुगंध से भरी रातरानी से डरता हूँ
हवा में तैरते पराग से
उमड़ते हुए भाग से
पक्षियों के आवाज़ से डरता हूँ।

डरता हूँ
क्यूँकि जब तक डरता हूँ
तभी तक लड़ता हूँ
मैं हर दिन अपने में 
एक नया व्यक्ति गढ़ता हूँ

उनकर चीठी आई का

देखs मोर छन्हिया प कागा आ बिरावे
उनकर चीठी आई का?
देखs हो सइकिलिया प डाक-बाबू आवे
उनकर चीठी आई का?

आईत त तनी पूछतीं
कवन दुनिया में जा के घर तू बसsअवलs
हमरे जिनिगिया से रार तू बेसहलs
देखs हो, हिचिकिया रह-रह आवे
उनकर चीठी आई का?

आईत त तनी जनतीं
केकरा अचरवाँ में तोहार माथा जा बोराईल
हमरा से बढ़ के, केहू बा का गढ़ाइल
देखs हो छतिया मन हहरावे
उनकर चीठी आई का?

आईत त मन से कहतीं
असहीं का कागा उनको के बिरावेला
असहीं का डाक-बाबू उनको घरे आवे ला
देखs हो मन अहरह बतियावे
उनकर चीठी आई का?

(मृत्युंजय)
19.03.2018

पाशविक भ्रम

वो गाय हो या सूअर
बकरी, ऊंट
या फिर मुर्गी या बत्तख
सभी हैं एक खाद्य-चक्र के अंग
सबके जीने या बचने का है अपना-अपना ढंग,
हम इन्हें पालते हैं तो पल जाते हैं
काटते हैं तो कट जाते हैं
मारते हैं तो मर जाते हैं
बिना यह जाने
कि किस धार्मिक या सांस्कृतिक
कारणों के प्रति लिखा था
इनका अंत
गाय न कोई राजनैतिक नारा रंभाती है
न ही बकरी के मिमियाने में होती है
कोई प्रार्थना
सूअर भी हर जाति का गूह खा लेता है
और ऊँट
वशा से बने कूबड़ में 
छुपा लेता है
हर बबूल का चुभता काँटा
मुर्गा अपने ज़िबह होने की सुबह तक
जगाता है बांग दे-दे कर,
भ्रमित तो हमीं हैं
जो पशुधन पर भी
अपनी पाशविकता की छूरी 
या गँड़ासा टिकाए
करते हैं आह्वान 
न जाने किस देव का
या दैविक शक्ति का
जो हमें आदमी से ज़्यादा
दैत्य बनाने पर अड़ा है
आज पशु 
तो कल किसी आदमी को ही 
कटवाने को खड़ा है।
(मृत्युंजय)
13 अप्रैल 2018

बस यूँ ही एक विचार - ७ मई २०१८


अभी-अभी 'डी.आई.डी' (डांस इंडिया डांस) में एक उत्कृष्ट नृत्य का प्रदर्शन करने पर प्रतियोगी की सराहना में बॉलीवुड की फराह ख़ान ने जब ये कहा कि कौन कर सकता है आपके जैसा डांस फिल्मों में, तो उस प्रतियोगी लड़के ने जवाब में कहा -"मैम, जब तक आप हैं, आप जैसों को हमारी ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।" 

पता नहीं उस नर्तक लड़के का अभिप्राय क्या था, किन्तु मुझे उसमें एक अहम सवाल उठता नज़र आया। मंच पर होती बातचीत से यह पता चला कि वह लड़का (नाम शायद अमरदीप या अमनदीप) लगातार पाँच वर्षों तक इस कुलीन आकर्षण से भरे 'डी.आई.डी' में प्रतियोगी बन कर आता और पहले राउंड में ही निकल जाता। आज उसकी तक़दीर उसे उस जगह ले आयी जो उसको उन दो सह-नर्तक बच्चों (मन और अमित) के कारण मिला जिन्हें वह नृत्य का प्रशिक्षण देता है। सच, है न कितना विडम्बनायुक्त व्यंग्य? लेकिन साथ ही उस विद्रूप सत्य को भी बयान करता है जहाँ अमरदीप जैसे गुणी कलाकार अपनी कला की ऊँचाईं पर पहुँच कर भी उनकी नज़र में नहीं आते जिनको शायद उनकी जरूरत होनी चाहिए। मुझे लगा जैसे अमरदीप फ़रहा खान से कई बातें कह रहा हो। एक कि जब तक आप जैसे लोग हैं और आपके शोषण के तरीके, हम जैसों का उद्धार कैसे होगा? दूसरा, कि आप जैसे लोगों ने बाज़ार को ऐसे घेर रखा है कि उसमें हमें जगह मिले तो कैसे? और तीसरा सवाल एक अनुरोध की तरह पूछता, कि इतना गुणी होने के बाद भी क्या हम जैसों का कोई भविष्य नहीं?

सीरियन शरणार्थी

अपने क़द से आधी ऊँचाईं का 
एक सफेद थैला
जिसमें अपनी मारी गयी
माँ और बहन के कुछ कपड़े ढोता
चार वर्ष की आयु का एक शिशु
रेगिस्तान में भटकता हुआ अकेला
मिला है 
मानवाधिकार के कुछ अधिकारियों को
अपने भूत से निर्मूल, भागकर 
भविष्य से निस्पृह, अनाम
सीरिया से निकला है
पता नहीं
किसकी तलाश में
इस तरह उसका बच जाना
क्या सही में भाग्यशाली होना है
या फिर
ये उस नर्क का पूर्वाभास है
जो उस शिशु को जीना होगा?

उठाओ अब कुठार

उठाओ अब कुठार
प्रहार पर प्रहार
करो अनगिनत अनिवार
जब तक न कटे अंधकार

छीन कर आहार
किसी का तोड़ कर घर-बार
जो ये चल रहा व्यापार
कितना कुटिल व्यवहार

बढ़ रहा विस्तार जिसका
विपुल, अपरम्पार
सहने योग्य जब नहीं वो 
होगा ही प्रतिकार
रोकने को, सीमित करने को
जिसका बढ़ रहा आकार
दैत्य है वो, उसकी भाषा में
भरा है अलंकार
बढ़ रहा विस्तार जिसका
विपुल, अपरम्पार।

ऐ मेरी कविता
तो आ, तू ही ले पहला क़दम
चल तो देखें, कितना है दम
उठा तो ये भार!
चरमराई पीठ का लेकर
बिस्तर उधार
बहुत दिन हुए 
अभिव्यक्ति को मिला नहीं सार,
उठाओ अब कुठार
प्रहार पर प्रहार
करो अनगिनत अनिवार
जब तक न कटे अंधकार