Thursday, July 23, 2015

झेलम के प्रति (To JHELUM)



एक ऐसे समृद्ध भू-भाग में
प्रकृति जहाँ
कल्पना के बिम्बों-सी
रचती है हर पल एक रचना,
झेलम,
तुझे ही नहीं आया बचना?

काली-करैल मिट्टी के
तटों से बँधी
कृशकाय काया में
उमड़ता मटमैला जल
जैसे नाचता कोई नीम-पागल।
हंसी उड़ाते,
संग भागते
लम्बे पोप्लार के पेड़ कतार में,
सुना है
उनकी भी नस्ल डुबो दी
तुम्हारे लोगों ने
व्यापार में।
सिरमौर
तुम्हारी बर्फीली चोटियों पर
अहर्निश चलती है
फौजी बूटों की
उठा-पटक
लगी रहती है
उनको
घुसपैठियों की भनक
झरनों के छलकते यौवन में
अब अल्हड़पन कम
धधकती
विपुल वासना
अबोध हवस का तम

पशमीना, सेव, अखरोट,
नक्काशी भरे हाथों की ओट
में
सर्दियों की कांगड़ी की तरह
छुपके पनपते अंगार
आराम देने की आड़ में
रोग-व्याधि के आगार।

झेलम,
सुना है अतीत में
कबीलों से लेकर मीलों तक
प्रेम की सदाशय लहरियाँ गाते
झूमते बौद्ध, हिन्दू,
ईसा के अनुयायी
यहूदियों की
कुछ खोयी
टोलियाँ भी यहाँ आयीं।
सतलज, चेनाब
और रावी के संग
तुमने घोले बड़े सारे रंग;
फिर ऐसा क्या हुआ
इतिहास में
कि सबकुछ
परिणत हुआ परिहास में?

झेलम,
पूजा करके कोई खून करे
या नमाज पढ़के जिबह,
बढ़ता है दोनों से कलह।
इसी कलह की
प्रताड़ना में जल
सूख कर तुम बन गयी
नदी से नाला,
तुम्हारी घाटियों में भी
भर गया है
इस देश का घोटाला।
नहीं तो
सभ्यताओं का पोषक
तुम्हारा जल
यूँ विष की तरह काला क्यूँ होता
तुम्हारे घरों में पका
सुस्वादु वाज़वान
किसी और का निवाला क्यूँ होता?

                            (मृत्युंजय)