Monday, June 25, 2018

उठाओ अब कुठार

उठाओ अब कुठार
प्रहार पर प्रहार
करो अनगिनत अनिवार
जब तक न कटे अंधकार

छीन कर आहार
किसी का तोड़ कर घर-बार
जो ये चल रहा व्यापार
कितना कुटिल व्यवहार

बढ़ रहा विस्तार जिसका
विपुल, अपरम्पार
सहने योग्य जब नहीं वो 
होगा ही प्रतिकार
रोकने को, सीमित करने को
जिसका बढ़ रहा आकार
दैत्य है वो, उसकी भाषा में
भरा है अलंकार
बढ़ रहा विस्तार जिसका
विपुल, अपरम्पार।

ऐ मेरी कविता
तो आ, तू ही ले पहला क़दम
चल तो देखें, कितना है दम
उठा तो ये भार!
चरमराई पीठ का लेकर
बिस्तर उधार
बहुत दिन हुए 
अभिव्यक्ति को मिला नहीं सार,
उठाओ अब कुठार
प्रहार पर प्रहार
करो अनगिनत अनिवार
जब तक न कटे अंधकार

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