मैं बैठा हूँ
एक ऐसी भूमि पर
जहाँ सब कुछ हरा है
हरे में हरे के अनगिनत
रंगों की छाया लिए
किरणों के संग खेल रही
हरी धरा है,
मनुष्य के रक्त-धमनियों सी
शाखा-विन्यास लिए लेकिन
कुछ नंगे भूरे
कृशकाय लंबे
पेड़ खड़े हैं
अपने नंगेपन के कारण
दिखते घने हैं।
और इनके बीच
इनकी ही छाया के खिलौने
कहीं लंबे, कहीं छोटे
तो कहीं बौने
लगे हैं अपनी जगह बनाने में
भूरे और हरे के बीच
तालमेल बिठाने में।
जैसे एक काली काया
जीवन से जुड़ी
मुँह छुपाए डोलती है
पार्श्व में रह कर भी
आगे का सब बोलती है।
मैं बैठा हूँ
और देख रहा हूँ
भिन्न-भिन्न जाति, रंग
और बोली वाले पक्षी
रत हैं, अनवरत संभाषण में
कोई किसी की नहीं सुन रहा
कोई किसी को नहीं गुन रहा
बस अपने-अपने आशय में
डूबे, रात में
सब एकमेक हो सो जायेंगे
पक्षी भी मानव हो जायेंगे
अपने नियति की समरूपता में,
विविधता में, विरूपता में।
मैं बैठा हूँ ऐसी भूमि पर
जहाँ सौंदर्य भी
अपराध का भाव जगाता है।
मृत्युंजय
साइफोंग-इन्थोंग (तिनसुकिया) में
2nd April 2018
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