Sunday, October 19, 2014

काली (Kali)

आग्नेय नेत्र दिखा कर
क्या करोगी देवी!
कौन डरता है अब तुमसे
सबका तो चढ़ावा
खा रक्खा है तुम्हारे लोगों ने।
तुम्हारी झूलती है जीभ,
सब तुम्हें चटोरा समझते हैं,
तुम्हारे मंदिरों को
भीख मांगने का
कटोरा समझते हैं।
रोली, अक्षत, सिन्दूर, फूल
सबके मूल
में है वो बाज़ार
जो तुम्हें बेचता है
हर दिन
तुम्हारे आचरण की
नयी कहानियाँ बुन।
तुम्हारे मंदिर के बाहर
केवल भीखमंगे जीते हैं
या फिर
तुम्हारी मिथकीय आस्था से जुड़ी
मोहक वस्तुओं की दुकानें
जिसकी आड़ में
बहता है एक मैले जल का सोत
धोता हुया उन काली बस्तियों को
मैले आँचलों से ढंकी
जिसमें वेश्याएँ रहती हैं।
कितने शिव तुमने कुचल दिये
कितने सत्य पिट गए
असत्य का दमन करते-करते
दानवों के रक्त में
कितना मिला था रक्त, बेबस मानवों का
तुम्हारे रक्तपाई जिह्वा को
पता ही नहीं चला।
दानवों पर तो शुक्राचार्य का भी हाथ है
मानवों के लिये तो केवल तुम थी
देवता सब आड़ लिए छुप गये थे।
हर बूंद
जो तुम्हारे खप्पर से गिरा
या चू गया जिह्वा से
सब में था बीज
दानवों के पुनर्जन्म का;
मोक्षपाई मानवों के रक्त में
पुनर्जन्म का
कोई संकल्प नहीं होता -
सो, वो जो मर गये थे,
मर गये, सदा के लिए।
दानव अभी भी
मंडरा रहे हैं इर्दगिर्द।
फिर भी खड़ी हो
जीभ काढ़े!
काली,
तुम कह क्यूँ नहीं देती
कि तुम बस एक मूर्ति हो
आस्था के स्मारकों में दबी
कल्पनिक एक कीर्ति हो!
क्यूं सनी खड़ी हो
कुचले हुये फूलों के कीचड़ में
इक परिवेश लीचड़ में
झूलती जीभ लिये?
सब तुम्हें चटोरा समझते हैं!

(मृत्युंजय)
१९.१०.२०१४
कोलकाता