Tuesday, November 29, 2016

हम बोलेंगे

हम बोलेंगे
कि वो
जो एक गोली से मरा
एक दुर्घटना का शिकार था
उसके बारे में
सोचना ही बेकार था।

हम बोलेंगे
कि वो सब
जो पंक्तियों में पड़े हैं
अपनी मर्ज़ी से खड़े हैं।
कोई काम नहीं था उनको
इसलिए
बदतमीज़ी पर अड़े हैं।

हम ये भी बोलेंगे
कि गलता हुआ हिमालय
एक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का
कुचक्र है
हम ग़लत समझे
हमारी बुद्धि ही थोड़ी वक्र है।

हम बोलेंगे, यह भी
कि हमारे आसमान में
जो भरा है
भूरा धुआँ
वो प्रकृति के
नैसर्गिक नियमों की पहचान है
डरना नहीं
मौसम का ये नया दान है।

हम बोलेंगे, कई बार
कि मौत और लाचारी की
सारी बातें
बस कोरा गप्प है
वरना क्यूँ नहीं बताया
जब सबके हाँथ में अब
ट्वीटर, फेसबुक, व्हाट्स अप है?

हम बोलेंगे, शायद यह भी
कि आसमान में सुराख़
वैज्ञानिकों की लापरवाही है
वरना ज़मीन पर
किसे पता है
कि आसमान में केवल स्याही है।

हम सब कुछ बोलेंगे,
लेकिन पहले
मेरा गला तो छोड़ो
कि थोड़ी साँस आए!
(मृत्युंजय)

Monday, November 14, 2016

समय

समय 
जैसे बैठ गया है आकर
अपाहिज, मेरी गोद में
बीत कर, या बिता कर
सब कुछ 
उस शोध में
जहाँ
शरीर और आत्मा
दोनों का ही
विलय हो जाता है।
ह्रदय
बच जाता है
अकेला
जैसे
खुले में
मदारी का खेला।
डमडम डमरू
बजता रहता है
और
निसंग एक बंदर -
ह्रदय,
इक अनजाने भीड़ में घिरा
नाचता रहता है
न जाने किसके लिए
न जाने क्या-क्या लिए।
(Mrityunjay)

चाँद मेरे क्षितिज का

मेरी छत से सुपर मून / रक्तिम चाँद 



  चाँद,
तू हंस है मेरे क्षितिज का!
सपनों की मेरी फुनगियों पर बैठ
फड़फड़ाता, 
श्वेत अपने गात हिलाता, सबको जगाता!
तू हंस है मेरे क्षितिज का!

कभी हवा, कभी कुहरा, कभी बस 
दिव्य तारों को लपेटे,
चाँदनी में भी अँधेरे का तनिक आभास फेंटे
मेरी दुनिया को तू से सजाता, थोड़ा छुपाता।
सपनों की मेरी फुनगियों पर बैठ
फड़फड़ाता,
तू हंस है मेरे क्षितिज का!

गाँव के पीपल में फँसा 
बरगदों के बीच होकर 
तू पोखर में जा धँसा,
निर्गंध एक सुवास-सी 
उग रहे प्रकाश-सा  
प्रथम प्रेम की लहरियों से सुर मिलाता, मुझको रुलाता। 
मिट रहे गंधों के 
श्वेत अपने गात हिलाता, मुझको जगाता!
तू हंस है मेरे क्षितिज का!




Monday, November 7, 2016

कविता


उस एक दिन
बड़ी कच्ची और लचीली
उम्र में
तुम्हारी छुवन की तरह
आयी थी कविता
मेरी खोज में।
पता नहीं कहाँ से -
उड़ते हुए पतंग से जुड़े
कटे हुई धागे के संग
ये कहने
कि पतंग नहीं कटती,
कटते हैं बस धागे,
ये बात है तब की
जब हम
पतंग लूटने भागे।
साँय-साँय
भाग रही हवा जो मेरे संग,
उसी में लिपटा निःशब्द,
सन्नाटा या शून्य
की तरह लिपट गयी थी कविता
मेरे उस चेहरे को टटोलते
जो मेरा था ही नहीं
जैसे मस्त
तिरते हुए पतंग से लगा
एक कटा हुआ धागा
जो किसी का नहीं होता।
मैं अबोला, मैं अवाक्
आँख से अँधा
हाथों से शून्य टटोलता
और मन से मूल्य
कि तभी
कोई छू गया देव-तुल्य,
मेरी आत्मा काँपी
एक अनजाने डर से
शरीर तपने लगा
उस छुवन के ज्वर से
और मैं बड़बड़ाया -
कुछ गूढ़
किन्तु निरा बकवास
या कुछ ऐसा विशुद्ध ज्ञान
उस जीव का
जो कुछ नहीं जानता
कुछ नहीं पहचानता।
एक स्वर्ग जैसे खुल गया
इन्द्रियाँ सब गल गईं
नक्षत्र, काँपते वनस्पति, तारे
छिदे-भिदे सारे
छलनी-से छींटते
कुछ आग, कुछ पानी
कुछ बादल,
कुछ पुष्प-दल,
लोटती रात पर
जुगनुओं-सा चिपका उजाला
सब उसकी
माँसल भुजाओं में सिमटने लगे।
मैं जैसे एक अतिसूक्ष्म जीव
रहस्य की छाया
अजीव बन तैरता
सजीव एक माया
नक्षत्रों पर तनी
आकाशगंगा में
धुएँ-सा टूटा
हवा पर बिखरा मेरा ह्रदय
एक प्रेम-कथा
सुनाता है
सारे ब्रह्मांड को।