Wednesday, December 17, 2014

विलाप (Lament)


रश्मियों में सना तुम्हारा स्वर 
जंग से कलंकित 
मेरी अस्मिता के धातु पर 
टकरा 
देता है पुनर्जन्म
मात्र एक शून्य को।
लाज से दोहरा हुआ
तुम्हारा बदन कुचल कर
कुछ मांसल हो उठा है
मेरा आत्मविश्वास,
हथियाने लगा है
पेड़ों की खूँटियों से टंगे
आत्मघाती लोगों की आशाएँ,


अभी-अभी वध किये गए
बच्चों की आत्माएँ
तगमे की तरह
सीने पर टाँके
मैं गाता फिरता हूँ
कभी कोई राष्ट्र-गान
तो कभी पढ़ता हुआ
नौहा
मुहर्रम के ताज़िए में
भरकर मातम
मैं हर मंदिर,
गुरूद्वारे और इबादतख़ाने
के सामने से निकलता हूँ
बिना कोई कारण
खोजने निवारण।
दिन बह जाता है रहस्य में
लगाए घात
घिरा हुआ एक चक्रव्यूह में
मैं सौंपता हूँ, तुम्हें
अपने खूँखार सपने
और स्तब्ध आकांक्षाएँ -
क्यूँकि
न मुझे मातम मनाने आता है
न जश्न,
मैं आज भी
पूछता रहता हूँ प्रश्न
जिसका न कोई उत्तर है
और ना ही कोई देता है।

(मृत्युंजय)
१७.१२.२०१४
कोलकाता

Monday, December 1, 2014

करुणा: नियाग्रा के प्रति


तुम्हारी आँखों में बहती
करुणा 
वाणिज्य से बहकी 
पुतलियों में उलझ कर 
ऐसे अर्थहीन हो जाती है 
जैसे पुल के नीचे 
नाचती नदी का जल -
काला, भयावह,
आत्म हत्या को निमंत्रण देता 
पाताल के गर्त्त में 
गड़ता हुआ एक गह्वर।
स्थिर, शांत, समाप्त -
एक समझ का कफ़न
इच्छाओं के उरोज को देता 
एक असमर्थ उभार 
अपनी अनुपस्थिति को 
स्वयं ही हेरता
बार-बार 
मैं अब भी दौड़ रहा हूँ 
शून्य से संदर्भ तक 
एक अंजुरी आँसू लिये 
जो
सींच सके 
तुम्हारी करुणा।

(मृत्युंजय)
१२ अगस्त, २०१४ 
(नेवार्क से मुंबई क्रे सफ़र में)




कैसे उड़ते हो पंछी तुम!

कैसे उड़ते हो पंछी तुम
इस दूषित व्योम में फहर-फहर
दम नहीं कभी घुटता क्या
जब साँस आती ठहर-ठहर?
कह दो कि तुमको भी
मानव का संग ही भाता है
संघर्ष भरा उनका जीवन
तुमको रोज़ हँसाता है।
तब ही तो किलकारी ले
मेरी खिड़कियों पर बहुधा
कुछ ऐसी बात सुनाते हो
जो मुझको देती लुभ-लुभा।


मैं ठगा-ठगा सा रहता हूँ
मैं ठगा-ठगा ही जीता हूँ
कुछ ठगे-ठगे से लोगों के
सपनों का अमृत पीता हूँ।
मैं सजग रहूँ, मैं जगा रहूँ
तुम भी क्या ऐसा कहते हो?
अमृत पीकर दूषित वन का
सोये में उड़ते रहते हो?
कुछ भी हो चाहे इस जग में
कुछ तो है जो सब मादक है
तब ही तो द्वंद्व के आँगन में
कुछ हिंसक है, कुछ साधक है।
चलो आस लहराओ तुम
संकल्प हमारा भी तय हो
दूषित-कलुषित इस जीवन में
कुछ तो हो, जिसमें लय हो।
चलो कि हमने व्योम तुम्हारा
छीन लिया है शक्ति से
पर दिया नहीं क्या, टुकड़े-टुकड़े
वन-उपवन कुछ, भक्ति से ?
जीना अपना इस दूषण में
प्रारब्ध है शायद, तय है
सपनों की सच्चाई सारी
कहीं खुल न जाए, भय है।

(मृत्युंजय)
१ दिसंबर, २०१४