Tuesday, July 8, 2014

जागो


अब सोना
एक अदृश्य अँधेरे में खोना है,

बेतरतीब सपनों पर 
अठखेलियों में मग्न इच्छाओं 
और उनका गला घोंटने को आमादा 
जीने की सीमाओं 
पर सर रख कर रोना है।
अब सोना एक अदृश्य अँधेरे में 
खोना है।
जागो,
नहीं तो धकेल देगी ये भीड़ 
सपनों को भी कारागार में 
या बेच देगी तुम्हारी साँसें ही 
तुम्हें व्यापार में;
इसलिए जागो!
जागो,
क्यूँकि यहीं, कई 
प्रजन्मों को तुम्हारे रहना है,
तुम्हारे सपनों के मकबरे पर 
दीया तो जलना है!
जागो,
क्यूँकि इन प्रजन्मों को वो क़िस्सा बताना है,
जो आँच हमें खा गई 
उस आंच से बचाना है।
जागो,
क्यूँकि जयद्रथ अब मर चुका है 
किन्तु सूरज अभी डूबा नहीं है;
अभी कुछ और युद्ध बाकी है।
जागो,
क्यूँकि नीतियों के कई 
रिसते घाव अभी भरने हैं,
रीते हृदय में भाव अभी भरने हैं।
ऐसे भी
युद्धस्थल में सोना 
मृत्यु को निमंत्रण है,
बेवज़ह कारणों पर किया 
आमरण अनशन है।
जागो,
नहीं तो फिर पछताओगे 
अभिमन्यु की दशा पर,
संतानों को लील गई 
इस परिस्थिति बेहया पर।
कृष्ण माथा टेक कर बैठे हुए हैं 
काल के अनुचर यहाँ ऐंठे हुए हैं ;
छोड़ कर एक आहत साँझ 
दिन भाग गया है,
रात भी ठिठकी हुयी है।
सब अपेक्षा में हैं तुम्हारे जागने के,
जुलूस,नारे, विज्ञापन, प्रचार,
सिमटते हाट, चढ़ते बाज़ार,
अनाचार, अतिचार,
सब अपेक्षा में हैं तुम्हारे जागने के,
अब नहीं हैं कोई कारण तुम्हारे भागने के।

(मृत्युंजय)
१७.०७.२०१३
कोलकाता 

you & Me


You and me
inseparably together, I thought
would fill the horizon of life
with paints and words
of love and memories,
happiness in vagaries,
of a tale everlasting
filled with colours
of myriad emotions,
countenances and expressions,
of our wins and defeat
boasting of a proud feat,
of achievements and joy
of a trying destiny
played with us like a toy.
But alas, my Love!
I'm leaving now alone
into a void of solitude
with nothing to write about,
and nothing to paint on.


-Mrityunjay-
 30.10.2011

झेलम

झेलम


एक ऐसे समृद्ध भू-भाग में
प्रकृति जहाँ कल्पना के बिम्बों-सी
रचती है हर पल एक रचना,
झेलम,
तुझे ही नहीं आया बचना?
काली-करैल मिट्टी के तटों से बँधी
कृशकाय काया में उमड़ता मटमैला जल
जैसे नाचता कोई नीम-पागल।
हंसी उड़ाते, संग भागते
लम्बे पोप्लार के पेड़ कतार में,
सुना है उनकी भी नस्ल डुबो दी
तुम्हारे लोगों ने व्यापार में।
सिरमौर तुम्हारी बर्फीली चोटियों पर
अहर्निश चलती है
फौजी बूटों की उठा-पटक 
लगी रहती है उनको
घुसपैठियों की भनक।
झरनों के छलकते यौवन में
अब अल्हड़पन कम
धधकती विपुल वासना,
अबोध हवस का तम
पशमीना, सेव, अखरोट,
नक्काशी भरे हाथों की ओट
में सर्दियों की कांगड़ी की तरह
छुपके पनपते अंगार
आराम देने की आड़ में
रोग-व्याधि के आगार।
झेलम,
सुना है अतीत में
कबीलों से लेकर मीलों तक
प्रेम की सदाशय लहरियाँ गाते
झूमते बौद्ध, हिन्दू, ईसा के अनुयायी
यहूदियों की कुछ खोयी
टोलियाँ भी यहाँ आयीं।
सतलज, चेनाब और रावी के संग
तुमने घोले बड़े सारे रंग;
फिर ऐसा क्या हुआ इतिहास में
कि सबकुछ परिणत हुआ परिहास में?
झेलम,
पूजा करके कोई खून करे
या नमाज पढ़के जिबह,
बढ़ता है दोनों से कलह।
इसी कलह की प्रताड़ना में जल
सूख कर तुम बन गयी
नदी से नाला,
तुम्हारी घाटियों में भी
भर गया है इस देश का घोटाला।
नहीं तो सभ्यताओं का पोषक तुम्हारा जल
यूँ विष की तरह काला  क्यूँ होता,
तुम्हारे घरों में पका सुस्वादु वाज़वान
किसी और का निवाला क्यूँ होता।

                            (मृत्युंजय)
                             ७ जून २०१३
                              श्रीनगर 

Schism


Do I suffer from a breach

In what I believe in
And what I do?
For, be it my inheritance
Be it my association with you
I have been doing
Exactly what you did
May be worse,
Due to the world around
Turning more complicated and terse.
Rains do not remind me
Of that folk rain-dance
Chirping birds scare me
With their sweet stance,
Sky stands in ire
Your love makes me tired,
Mornings I sleep
And nights I wonder,
Did I have a nightmare
In those tingling thunder
That I dreamt of?
Awoke, and dismissed
Like my father's monotonous sermon
Of his expectations from me.
The plumage on my window
Of my mother's secret love
Indifferently cleaned by a savage shove
Of racing winds reaching crescendo.
I watch, as you did
Bewitched, Affairs sordid.

(Mrityunjay)
28.06.13
Kolkata

सुबह अदाओं वाली











हर ओर नीरवता 
सरसराते, धींगा-मुश्ती करते 
शाख़- पत्ते 
रंगों के विनिमय में लगे 
फूल 
उन सारे, कल के टूटे
दलों को भूल
घाटी में चक्कर काटती
हर दिशा से गुदगुदाती हवा
उनपर लटक कर झूलती
फाहों-सी बादलों की टोली
पक्षियों के वार्तालाप
रह-रह कोई ले रहा आलाप
तितलियों की अठखेली
भवरों की मुखर बोली,
सुबह अदाओं वाली…..

(अम्बूटिया चाय बगान में)
मृत्युंजय
१५ जून, २०१४


रात कचोटती है


फिर आकाश ने
छोड़ रखा है चाँद को
टहलता हुआ,
जैसे एक मुखबिर, एक जासूस
रात कहाँ - कहाँ
कचोटती है
करके महसूस
वो दिन को बतायेगा.
फिर भरे जायेंगे
कुछ शरीर जेल में
कल
समय
तारीख बन कर
वो फैसला सुनायेगा
जो कभी भी
उनके हक़ में नहीं होगा
जिन्हें रात कचोटती है.
मरी हुई शक्लें
बुझी हुयी यादें
सुलगते सवाल
कुछ ना कर पाने का मलाल,
पटक कर चला जाता है
परेशानहाल, सांझ का कलाल
रात के ओसारे पर.
सम्बन्धी होने के नाते
रोते-बिसूरते
कुछ लोग
रहते हैं तब तक
जब तक
उन्हें ये समझ नहीं आ जाता
कि
वो मुर्दा अगोर रहे हैं.
पर दोष तब तक
चढ़ चुका होता है
उनकी आत्मा पर
और रात
भाँप लेती है
उन सबका मर्म
जिनका लहू
अभी भी है गर्म.
कल ये सब
फटकारे जायेंगे
दिन में,
आँखें जिनकी लाल हैं
रोने से,
अपने सम्बन्धियों को खोने से.
इन सब का हिसाब होगा;
फिर गणित
गिनेगा
अंकों का सिलसिला
कितने फीसदी, कौन सी जाति
कौन प्रदेश, कौन सी प्रजाति
सुवर्णी, कुवर्णी या हरिजन,
दलित-मलित, जोलहा
अहमदिया या किरिस्तान,
खान, पठान, अंसारी
सबकी आएगी बारी,
पगड़ी वाले सिख
या कटे केश का मोना
सबको पड़ेगा रोना,
क्यूंकि
इनमें से सब थे
कल रात मुर्दा अगोरते
सबकी आँखें हैं लाल.
(Mrityunjay)
8 july, 2014