Friday, January 11, 2013


क्या यही है तेरी दिल्ली?
क्या यही है तेरी दिल्ली?
सूख गयी यमुना में रेंगते काले करैत 
राह चलते लोगों पर टूटते तेरे डकैत,
सूख गए प्राण इसके, सूख गयी तिल्ली,
क्या यही है तेरी दिल्ली?

हर किसी के सर पर उधार है, क़र्ज़ है,
तेरे शहर में घूमता हर आदमी खुदगर्ज़ है।
एक-दूसरे का पाँव खींच 
उड़ाते सबकी खिल्ली,
क्या यही है तेरी दिल्ली?

जम्हूरियत के नाम पर जिसने बिगाड़े काम सब,
दनदनाती कार में हैं भागते हुक्काम सब,
सतपुरे के भाँट ये 
बन गए हैं शेख़चिल्ली,
क्या यही है तेरी दिल्ली?

नोंचते, खरोंचते, वहशी से कुछ दरिन्दे
सभ्यता के नाम पर धब्बे ये काले, गंदे,
क्यूँ नहीं तुम तोड़ते 
इनके पावों की फिल्ली?
क्या यही है तेरी दिल्ली?

हममें से ही चुने गए कुछ आदम की संतान ये,
महफूज़ घरों में जा बसे, बन गए भगवान ये।
छोड़ रखे हैं हम पर 
अपने आदमखोर कुत्ते-बिल्ली,
क्या यही है तेरी दिल्ली?

                                -मृत्युंजय
                                19.12.12 

एक और धर्मयुद्ध (Yet another War of Virtue)




आओ देखो,
रक्त-रंजित, लोहित
पिटा हुआ आकाश
झाँकता है जिसमें
विगत की चोटों का नीलापन
कराहने का आभास,
और एक ज़मीन,
जिस पर फैली है
थूकी हुयी मानवता की सड़ी खाद
ताकि यह उगा सके
पीले पड़े संस्कृति का दूब
जिसके मुरझाये सिरे पर
लटकता है हल्का हरा वर्तमान,
सर्वोदय का एहसास,
हरित क्रान्ति का नारा
और अन्त्योदय का विश्वास।
प्रगति के इश्तेहारों पर
मानव मल -मूत्र के छींटे ,
दीवारों पर कालिख से उगाये गए
कुछ साहित्यिक-असाहित्यिक फिकरे।
नारे, निर्वाचन और न्यायालय
गीता पर हाथ रक्खे मुद्दई और मुद्दालय,
व्यक्ति और समुदाय की सुरक्षा की
क़सम खाते है।
समन्वय ढूँढते हैं
वादों के पहियों पर घूमते  व्यक्ति
और विवादों की गद्दी पर आसीन व्यवस्था।

ऐसे ही दौड़ता है
भारत के भविष्य
और योजनाओं का रथ;
अपने संविधान के सारथी
धाराओं के घोड़े
और अनुसूचियों की रास के साथ।
बीमार और भूखे घोड़े
कब तक दौडेंगे और?
टूटती धुरी और ढहते पहियों का बोझ
कब तक खिंचेगा इनके कन्धों पर?
अब अर्जुन भी चिंता नहीं करता
अपने सारथी की या घोड़ों की,
निश्चिंत है वह
कि अब ज़रुरत ही नहीं
धनुष की या वाणों की,
कौन सा युद्ध?
कैसा युद्ध?
अब ज़रुरत ही नहीं रही
शिखंडियों पर संधानों की।
अब मात्र किसी धृतराष्ट्र
या भीष्म की मौत ही
आधार बन जाती है युद्ध के निर्णय का,
और विजयी घोषित होता है
शिखंडियों की सहानुभूति के आधार पर
एक गुमनाम 'संजय',
चुपचाप युद्ध देखना
और उसकी कथा कहना ही
जिसकी नियति रही।
धरा रह जाता है
हर कर्ण का पराक्रम अछूता।

आज भी ज़ारी है कल का महाभारत
कल का कुरुक्षेत्र!
लेकिन बदल चुके हैं पात्र सब,
बदल चुका है घटनाक्रम।
यदि हलकी पड़ गयी है भीम की गदा 
तो बढ़ते जा रहे हैं
झूठ बोलने वाले युधिष्ठिर भी।
यदि अर्जुन हो गया है आदर्श से च्युत
तो अभी भी शेष है दुर्योधन को जीता जाना।
और इस अनिर्णीत युद्ध में
अभी भी मरा नहीं है कर्ण!
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                     -मृत्युंजय-

ऐ मेरे देशवासियों! (This poem is a cry of a disillusioned heart written after the ghastly drama of sexual assault & vandalising of a young girls' body by beastly men)




बलात्कार केवल मेरा नहीं 
तुम्हारा भी हुआ 
उस रात, संहार मेरा ही नहीं 
तुम्हारा भी हुआ।
हमारी लज्जा गयी 
हमने प्राण त्यागे 
शहर से लेकर सरहद तक
बोरी भर कानून लादे 
तुम अब भी फिरते हो अभागे।
मेरे देशवासियों 
कभी तो तुम्हारा पुरुषत्व जागे!

बेटी मरे या सिपाही 
इसकी-उसकी जिसकी भी हो तबाही,
मुख पर तो तुम्हारे भी पड़ती है स्याही 
घूम - घूमकर हर दहलीज़ पर 
केवल मौत ही क्यूँ दे गवाही 
कि तुम अपनी लाज क्या 
जान बचाने के क़ाबिल भी रहे?
भुनभुनाने के सिवा 
तुम्हें कुछ आता ही नहीं;
फिर वो ग़लत हो या सही, 
नारे, जुलुस और भाषणों में लपेट 
करके उसका पिंडदान, तेरही, 
तुम हाथ मलते 
मौसम के गणित में खो जाते हो 
सारे मृतकों के प्रतिनिधि
किसी एक समाधि पर रो जाते हो।
मेरे देशवासियों 
अब और कैसी दर्दनाक मौत मरुँ 
की तुम्हारी जड़ता भागे 
तुम्हारा पौरुष जागे?

सोचो अगर मैं तुम्हारी बेटी नहीं 
एक रंडी होती,
बलात्कारियों के नस्ल की 
तुम्हारे घर में पली शिखंडी होती;
रोज़ तुम्हारे घर से कोई अगुआ होता 
तुम्हारे घर में कोई वस्त्र नहीं
सिर्फ भगुआ होता?
तुम्हारा बेटा निकम्मा 
और तुम्हारी बीवी का कोई मुँहलगुआ होता 
जो बात-बात पर तुम्हें मारता
तुम्हारी इज्ज़त उतारता?
तब भी शायद तुम्हारी आँतों में 
इतना दर्द होता जितना मैंने 
उन कुछ घंटों में झेला
सर कटा मेरा वीर भाई सैनिक 
सरहद पर अकारण ही खेत आया 
अकेला।
मेरे देशवासियों 
श्लथ, जीवहीन, अकेला 
कोई कितना कृपाण  भाँजे 
कि तुम्हारी सोयी चेतना जागे?  
मेरे देशवासियों !

मनु, मेधातिथि, नानक,
बुद्ध,पैग़म्बर, ईसाईयों के मानक 
सब बेकार हुए,
उपनिषद, पुराण, जातक कथाएँ,
खुसरो, कबीर, ग़ालिब की व्यथाएँ 
सब तुम्हें समझा कर हार गए,
 तुम्हारी कुंठा छूटी 
तुम्हारा प्रमाद टूटा,
मूल्यों की करते जुगाली 
जीते रहे एक उन्माद झूठा।
पहले सती बनाकर आग में जलाया 
फिर पूजने की मूर्ति बनाया,
कंचुकी से जिल्बाब तक 
क्या - क्या  नहीं आजमाया।
अश्लील मन कैसे बुन सकता है  
श्लील आचरण के धागे,
बहू - बेटियों को करके आगे 
तुमने केवल प्रसाधन बेचने का 
उपक्रम सजाया;
वाह, नारियों से ही 
नारियों का व्यापार कराया
तुम्हारी प्रजातंत्र की मुंडेर पर बैठे 
विष्ठा खाने और गिराने वाले कागे,
फिर कैसे तुम्हारा पुरुषत्व जागे?
मेरे देशवासियों!
(मृत्युंजय )
10 जनवरी, 2013