Tuesday, November 7, 2017

एहसास का पुल

एहसास का पुल
इतना लंबा हो जाता है
तुमसे मिलकर
कि जैसे 
स्वयं के बीच ही
बन गई हो एक दूरी
एक छोर पर खड़ी
प्रतीक्षा
दूसरे छोर की बाहों में
लिपटने को आमादा
हिला जाती है पुल
और बह जाता हूँ
मैं
गिर कर पुल से
आकांक्षाओं की 
हरहराती नदी में

Monday, November 6, 2017

बिल्ली के पँजों में फँसा सूरज

तुम्हारे
उरोजों 
की मांसल खाड़ी में 
हर मशक्क़त 
से उपजा 
पसीना 
इत्र में नहाया 
एक फूल बन जाता है 
और तुम्हारी 
साँस की गरमी में 
सराबोर 
हर बबूल 
एक मुलायम साया, 
बस ज़ख्म 
नहीं भरते 
तो उस मासूम के 
जिसका बाप
सरहद से लौट 
घर नहीं आया 
और माँ 
अपनी आँखों में 
सवाल टाँगे 
सुन रही है 
ज़माने भर की तक़रीर 
जिसमें 
कोई नहीं है ज़िक्र
उसके राँझे का 
और ना ही कहीं 
उसकी छाती में 
बिलखती हीर का
तुम्हारे गुदाज़ 
इरादों से 
पसीने की बदबू 
भले ही मिट जाए 
उसका खारापन 
फिर भी नहीं जाता
लुटी हुई इज़्ज़त 
और 
देह से निकली जान 
का कोई नहीं है नाता 
तुम्हारे उस 
मांसल आगोश से 
जिसमें 
सूरज का तेज 
बिल्ली के पँजों में फँसा
बस खरोंचता है
चेहरा
जलाता है
सीना।

संस्कृति का भस्म

अकस्मात् देख रहा हूँ
बुरादों-से भुरभुरे लोग
हथियारों में परिणत हो गए हैं
और दीमकों की बामी
लिजलिजे केंचुओं से भर गयी है,
मवेशी देवताओं को खदेड़
गर्भ-गृह हथिया कर बैठ गए हैं
और देवता
निराकार, अदृश्य 
आकाशवाणी की तरह 
सुनने वाले कान ढूँढ रहे हैं
भगोड़ा चाँद 
त्योहार में घर लौटने की
अर्ज़ी लगाए बैठा है
संततिहीन लोगों के इजलास में
नदियों का नमन 
करने उतर आये हैं
बादलों से झूम-झूम झरते
विनाश के वृत्त -सा
मुँह फाड़े 
विकास के काले करैत
खेद रहे हैं मीलों तक
करैल कीचड़ में सनी 
छलछल उछलती
तड़पती मछलियाँ
लचीले अजगर-सा
काढ़े परिधि
क्षितिज पर का आसमान 
पड़ गया है साँवला
रात लेकिन 
भर गई है उजास 
उन्मत्त मद्यप 
बेरोज़गार
उत्सव मना रही है
तीली जलाकर आस
नदियों के तटों पर
लाशों का 
शेष-क्रिया सम्पन्न कर
उलीच रहे हैं लोग
सारा कूड़ा-करकट
प्रजातंत्र की
कृशकाय नदी में,
बहती जा रही है
नदी
अपने सतह पर
थरथराते सपनों का
प्रतिबिम्ब गढ़े
इस आस में 
कि चाँद
लौट सके अपने घर,
मवेशी अपने स्थान पर,
देवता अपने गर्भ-गृहों में
और
मछलियाँ
काले करैत के जबड़े से
बच कर
नदी के प्रवाह में,
जिसमें पानी
बस घुटने भर ही रहता है
संस्कृति का भस्म
इसी में तो बहता है।

बस छाया ही छाया


तुमने देखी ही नहीं वो निग़ाहें
आंसुओं में तैरती पुतलियों की आहें
मजबूर, बे-आवाज़ वो सिसकियाँ
जो फूट पड़ती हैं गाहे-ब-गाहे
कभी किसी फाँके में पड़े घर से
तो कभी लाशों से अंटे तलघर से
कभी हुक़्मरानों के रानों में दबी
तड़फड़ाते कबूतरी के सर
तो कभी अजगरों के
जबड़े में 
टूटते लाचार सपनों की हड्डियाँ
तुम्हें क्या,
तुम खेलो, मेरी छाती पर कबड्डीयाँ।
जब भर जाएगा मन
होकर पस्त कराहेंगी जब मांसपेशियाँ
तब क्षमा की मुद्रा में खड़े कहना -
"अब मुझे आराम चाहिए!
बहुत काम किया,
आगे बढ़ते देश के क़दमों को
थोड़ा विश्राम चाहिए!"
और हम भी
हमेशा की तरह
मढ़ कर सारा दोष अपने नसीब पर
डालेंगे मिट्टी 
अपनी-अपनी आशाओं के क़ब्र पर
इंतज़ार में उस फफूँद-मसीहा के
जो 
सोख कर, चबा कर 
हमारे सामर्थ्य की जमा-पूँजी
सूखी संठियाँ सौंप देता है
हमारे बच्चों के हाथों में
जिसमें पहना कर कोई झंडा
करते वो वाग-वितण्डा,
देकर हमीं को गाली
बन कर खड़ा सवाली
बेवड़ा, हमारा बेटा
(या पड़ोस की बेटी)
नथुने फुलाए मरखंड
एक सांढ़-सा टूट कर हम पर
दरके विश्वास में
भर जाते हैं घृणा का दहन
और नहीं होता सहन।

तुमने सुनी ही नहीं वो कराहें
नींद को काटती दंराती-सी 
चुभती हुई वो बाहें
जो चाहे प्रेम से जकड़ ले
या तिरस्कार से झटक दे
देती है हमारा अंतर नोंच
बस खरोंच ही खरोंच।
किसान बने या व्यापारी
विज्ञानी या साहित्यकार
या शायद दार्शनिक,
अफ़लातून, निर्विकार
सबके गले पर झूलता है आरा
एक ऐसी मौत का
जो सर्वविदित होकर भी
रहस्य है
अपनी ही खड़ी फ़सल में जैसे
दस्यु खड़ा हो

किस-किस को हम सराहें
कितनों की नीयत थाहें,
नंबर एक बिकेगा
नंबर दो बनेगा दास
नंबर तीन अंधेरे गलियों की चमेली
नंबर चार, राज पथ की रातरानी,
यही है 
इस गणतंत्र की कहानी
जितना मुँह फाड़ो
उतना भरेगा
जितना पेट पीटो
उतना ही दुखेगा
ये भावना कुछ भी नहीं
दृश्य जगत की अदृश्य माया
जिन्न और पिशाच जैसे
खेलते हों
एक अशरीरी खेल
बस छाया ही छाया।