भाइयों
और बहनों,
पंडित
राज कुमार शुक्ल के त्याग, संघर्ष और बलिदान की कथा केवल बेतिया, चम्पारण, मुज़फ़्फ़रपुर
या सारण के लोगों की कथा नहीं अपितु उस सारे त्याग और बलिदान की कथा है जिसे औपचारिक
इतिहास के पन्नों पर नहीं दर्ज़ किया गया। यह हमारे उस उदासीन आचरण की भी कथा है जिसके
अंधकार में न जाने कितने ऐसे व्यक्ति और समुदाय बिना किसी नामो- निशान के लुप्त हो
कर रह गए।
चम्पारण
सत्याग्रह का शताब्दी-समारोह विभिन्न रूपों में कई स्थानों पर सम्पन्न हुआ। सबमें एक
बात सामान्य और आम दिखी। हर समारोह, हर प्रकाशन, हर प्रदर्शनी या प्रदर्शन के केंद्र
में महात्मा गाँधी हैं। निश्चित रूप से महात्मा गाँधी के महत उद्योग और परिश्रम के
कारण ही चम्पारण सत्याग्रह सफल हुआ और किसानों को कम से कम अंग्रेज़ निलहों के अत्याचार
से मुक्ति मिली। ये और बात है कि वहाँ के लोग बहुधा यह कहते पाए गए हैं कि 'नीलहे गए
तो मिलहे आए'। ये नील की कोठी के चीनी-मिल में परिणत हो जाने की ओर संकेत करता है,
जिसमें किसानों पर अत्याचार या उत्पीड़न के कम उदाहरण नहीं हैं।
बहरहाल
मैं वापस अपने विषय पर लौटते हुए यह कहना चाहता हूँ कि गाँधी जी के इस महत काम के साथ
कई महत्वपूर्ण लोग भी जुड़े थे, जिनके अथक परिश्रम और संकल्प के बिना शायद गाँधी जी
यहाँ आते ही नहीं। इतिहास में अटकलें लगाना ठीक नहीं होता, क्योंकि यह वही कहता है
जो वास्तव में घटित हुआ, न कि जो परिकल्पित था। एक और बात बता दूं कि इतिहास कभी झूठ
नहीं बोलता, इतिहासकार बोलते हैं। इसी सत्य के मद्दे-नज़र हमें यह देखना होगा कि आख़िर
वो कौन लोग थे जिनके ख़ून- पसीने से भरे वर्षों के त्याग को इतिहास के पन्नों में एक
हाशिया तक नसीब नहीं हुआ।
'नीला
सोना' (Blue Gold) के नाम से प्रचलित नील की खेती सर्वप्रथम चंदननगर (बंगाल) के फ्रांसीसी
उपनिवेशिक क्षेत्र में शुरू की गई थी। लेकिन भारत से नील के व्यापार का इतिहास और भी
पुराना है। पुर्तगाली समुद्री-व्यापार के पहले भारत के पश्चिमी तटों से रोमन साम्राज्य
तक का सारा व्यापार अरब लोगों के हाथ में था। रोमन साम्राज्य के लिए लाल और बैंगनी
रंगों की आमदनी अरब के व्यापार का एक अनिवार्य हिस्सा था। ये इसे 'आ-नील' कहते थे,
जिसे बाद में पुर्तगालियों ने 'इंडिगो' कहा जिसका अर्थ होता है, 'इंडीज़ से' आया रंग।
कुछ और समय के उपरांत जब यूरोपीय देशों ने अरबों के रंग की अम्लता-क्षारता को रासायनिक ढंग से बदल कर नीला रंग बनाया तो उसका
रासायनिक नाम 'anilin dyes' दिया गया जो अरब के 'आ-नील' से ही जुड़ा है।
अरब
के हाथों से सामुद्रिक व्यापार का अधिकार एक लम्बे ख़ून-ख़राबे के बाद पुर्तगालियों के
हाथ में चला गया; फिर फ्रांसीसी, डच और अंगरेज़ों की ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच इंडीज़
से मसाला, कपड़ा, कृषि-जन्य वस्तुओं (जिसमें नील भी था) के व्यापार की होड़ लगी रही।
१७६४ के बक्सर के युद्ध, और तत्पश्चात १७६५ की इलाहाबाद की संधि से मिले बंगाल-बिहार-उड़ीसा
के दीवानी अधिकार ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को यहाँ के जनगण का औपचारिक रूप से
मालिक और भाग्य-विधाता बना दिया। १७९३ में लार्ड डलहौज़ी साहब के 'परमानेंट सेटलमेंट' ने ज़मीन और ज़मीन के मालिकाना का स्वरुप तो पलट ही
दिया, साथ ही अपने अनुगत, लेकिन किसानों के शोषक, ज़मींदारों का एक दल भी ला खड़ा किया।
अब खेतों में किसान का पसीना नहीं, लहू बह रहा था। लोकगीतों में श्रम के श्रृंगार की जगह विपन्नता के विषाद ने ले ली थी।
१८वीं
शताब्दी में ब्रिटेन में हुए औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप कपास का उत्पादन अत्यधिक
बढ़ गया, और साथ ही साथ कपड़ों को रंगने के लिए नील की मांग भी। वेस्ट इंडीज और अमेरिका
से जो नील की उपलब्ध आपूर्ति के साधन थे वो विभिन्न कारणों से सिकुड़ते गए। हालत यह हो गयी कि १७८३ से १७८९ के बीच नील का उत्पादन
आधे से भी ज़्यादा गिर गया। यही वह समय था जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में
नील की खेती का तेजी से विस्तार किया। कंपनी के अधिकारी अपनी नौकरियाँ छोड़ कर नील की
खेती में लगे जहाँ धन और सत्ता का भोग दोनों का बाहुल्य था। ब्रिटिश राज के आढ़तियों
और कंपनी के कार्यरत अधिकारियों ने भी जी खोल कर नील की खेती में अपना पैसा लगाया।
स्कॉटलैंड और इंग्लैंड से कई नए लोग इस अवसर का फ़ायदा उठाने के लिए भारत आए और यहाँ
आ कर नील के बागानों के मालिक बन गए। कंपनी और तत्कालीन बैंकों ने निलहों को नील की
खेती के विस्तार के लिए ऋण दिए। १७८८ ईस्वी
तक जिस भारत से नील की आमद कुल नील के आयात का लगभग ३० प्रतिशत थी, १८१० तक वह बढ़ कर
९५ प्रतिशत तक पहुँच गया। यह आँकड़ा इस बात का परिचायक है कि भारतीय नील की मांग का
प्रभावशाली विकास हुआ था।
कंपनी
का बंगाल पर आधिपत्य काबिज़ करने के दौरान कृषि और उद्योग का भयंकर विध्वंस हुआ था।
तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था चरमरा गयी थी, और ऐसी स्थिति में आर्थिक व्यवस्था को पुनर्जीवित
करने हेतु नकदी फसल के रूप में नील की खेती को व्यापक बढ़ावा मिला। इसी बहाने कंपनी
के कर्मचारियों और उनके साथ जुड़े व्यापारियों को एक सुअवसर मिला कि वो अपने जमाये हुए
धन और चोरी से अर्जित मुनाफ़े को भारत से इंग्लैंड भेज सकें। नील के निर्यात में अपना
जमाया धन लगा कर वो उस पर और अधिक मुनाफ़े के साथ अपना धन इंग्लैंड में पा जाते थे।
१८३७
के पहले तक किसी भी यूरोपीय को खेती के लिए ज़मीन खरीदने का अधिकार नहीं था। देशी ज़मींदार
दलालों के मारफ़त इन्हें ज़मीन का पट्टा देते थे, और कलकत्ता में स्थित कंपनी की एजेंसी
हाउस ऊँचे दरों पर ऋण देती थी। ज़मींदार भी खेतों का पट्टा अपने मनमानी दरों पर देते
थे, और इस मुद्दे पर बागान मालिकों और स्थानीय ज़मींदारों के बीच अक्सर अनबन होती रहती
थी। यह परिस्थिति १८३७ में अचानक बदल गयी जब सरकार ने कानून बना कर बागान मालिकों को
ज़मीन के मालिक होने का अधिकार दे दिया। इस कानून ने एक तरह से विदेशी ज़मींदारों का
एक नया वर्ग तैयार कर दिया जिन्हें सरकार का सहयोग और प्रश्रय दोनों प्राप्त था। इस
नियम और क़ानून ने विदेशी मालिकों के हाथ में बलपूर्वक रैयत से खेती कराने और अत्याचार
के नित नए साधन अपनाने का रास्ता खोल दिया था। स्थानीय ज़मींदार भी इन निलहों के खिलाफ़
थे क्योंकि इनके आने से उनके स्वार्थ को चोट लगी थी। यही कारण था कि १८५९ में जब बंगाल में नील-किसानों
का विद्रोह हुआ तब कुछ ज़मींदारों भी किसानों के साथ खड़े पाए गए। कल तक का शोषक, अपना
स्वार्थ भंग होने से, आज इनका हितैषी बन गया था।
ऐसे
ही एक विषम परिवेश में ज़बरन नील की खेती करने का काम लगातार चल रहा था। सबसे पहले बंगाल के जेसोर, नदिया, बर्दवान,बीरभूम,
२४ परगना आदि के क्षेत्रों में, और फिर बिहार एवं तत्कालीन संयुक्त प्रोविंस, उत्तर
प्रदेश में। किसानों के शोषण का हथियार यह तब बना जब भारत में उपजे नील के आयात से
ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यवसाय-परक अधिकारियों ने एक अच्छा मुनाफ़ा कमाना शुरू किया।
इस मुनाफ़े का एक बड़ा भाग रानी के उपनिवेशिक शासन को भी लाभ पहुंचाता था।
वर्धन,
विस्तार और विजय की लालसा और लोभ ने नील की खेती की एक ऐसी प्रथा को जन्म दिया जिसके
जड़ में ही दमन और संत्रास के बीज थे। संत्रास था तो विरोध भी निश्चित ही होता। सबसे
पहला विद्रोह और विरोध भी बंगाल में ही हुआ। कृष्णनगर, नदिया के गोबिंदपुर और चौगाछा
गाँव के बिष्णु चरण बिस्वास और दिगंबर बिस्वास ने विद्रोह का पहला आंदोलन छेड़ा। देखते-देखते
यह बंगाल के अन्य क्षेत्रों तक फैल गया। नदिया के असननगर के बिश्वनाथ सरदार (उर्फ़ बिशे
डाकात) अंग्रेज़ों के दमन के सबसे पहले शिकार
हुए, जब उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने सबके सामने फाँसी पर लटका दिया। किसानों के विद्रोह
को परोक्ष रूप से नरैल के ज़मींदार, रामरतन मल्लिक जैसे कुछ छोटे ज़मींदारों ने भी शह दी। अहिंसा के मानकों
से सजे इस विद्रोह-आंदोलन को कुछ इतिहासकारों ने पहला सविनय अवज्ञा आंदोलन माना है।
इसके ही फलस्वरूप १८६० के इंडिगो कमीशन का गठन किया गया, जिसके रिपोर्ट में फरीदपुर
के मजिस्ट्रेट मिस्टर लाटूर ने लिखा- "नील की ऐसी एक गाँठ भी इंग्लैंड नहीं जाती,
जो मानव रक्त से रंजित ना हो।" किन्तु इसी रिपोर्ट में उन्होंने यह भी कहा कि
पटना, तिरहुत और छपरा में ऐसे किसी उत्पीड़न का चिन्ह नहीं है।
यह
बात ग़लत थी। लाटूर साहब वास्तविकता से कोसों दूर थे। उन्हें शायद पता नहीं था कि १८३९-४०
में तिरहुत, सारण और मुंगेर में किसानों और निलहों के बीच झगड़े शुरू हो गए थे। बंगाल
में हुए विद्रोह ने और तूल तब पकड़ा जब १८५९ में इसी विद्रोह से प्रेरित होकर दीनबंधु
मित्र ने 'नील दर्पण' नामक एक नाटक लिख डाला, जिसे माइकल मधुसूदन दत्त ने एक रात में
अँगरेज़ी में अनुवाद किया और रेवरेंड जेम्स लॉन्ग साहब ने प्रकाशित करवाया। इस नाटक
के अँगरेज़ी अनुवाद ने इंग्लैंड में वहाँ के लोगों का ध्यान अपने देशवाशियों द्वारा
किये गए क्रूरता की ओर आकर्षित किया। फलस्वरुप ब्रिटिश सरकार को अपने नागरिकों की उग्र
आलोचना और कुत्सा का सामना करना पड़ा।
सरकार
ने इस शर्मनाक स्थिति से उबरने हेतु रेवरेंड जेम्स लॉन्ग पर राजद्रोह का मुक़दमा भी
चलाया और उन्हें जेल की सज़ा दी गयी। उधर हरीश मुखर्जी जैसे नेता लेफ्टिनेंट गवर्नर
इडेन साहब से बारबार फ़रियाद कर रहे थे कि नील की खेती बंद की जाय। इस सब का फल यह हुआ
कि बंगाल में नील की खेती बंद हो गयी।
लेकिन
बिहार और उत्तर प्रदेश के नील की खेती वाले इलाक़ों में न तो अंग्रेज़ शासकों की नज़र
थी, न दीनबंधु मित्र जैसा संवेदना का चितेरा साहित्यकार था, न पादरी जेम्स लॉन्ग जैसा
सहानुभूतिशील दोस्त, और न ही हरीश मुखर्जी जैसा जनदर्दी नेता।
मेरे
यह कहने का तात्पर्य यह बिलकुल नहीं कि यहाँ के नेताओं में बौद्धिक चेतना का अभाव था,
बल्कि मैं यह कहना चाहता हूँ कि कुछ सामयिक कारणों से उनका ध्यान राष्ट्रीय स्तर पर
चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन में उठ रहे मुद्दों पर अधिक था। और वह आंदोलन तब तक पूर्ण
रूप से महात्मा गाँधी-केंद्रित हो चुका था। लेकिन उसका एक अच्छा फल यह हुआ कि पंडित
राजकुमार शुक्ल जैसे स्थानीय नेताओं को भी यह प्रेरणा मिली कि इस मुद्दे को यदि राष्ट्रीय
चेतना से जोड़ना है, तो गाँधी जी को इससे जोड़ना अनिवार्य है। और हुआ भी कुछ ऐसा ही।
गाँधी जी ने पहले चाहे जितना ना-नुकुर किया हो, लेकिन एक बार जब शुक्ल जी के हठ से
विगलित हो कर वो चम्पारण आए, तो चम्पारण के नील-किसानों की दुर्दशा जैसे भारत के जनगण
की दुर्दशा का प्रतीक बन गया। यहीं से गाँधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन को बल भी मिला
और सारे देश का सहयोग भी।
बंगाल
के बिष्णु चरण और दिगम्बर बिस्वास जैसे लोग यहाँ भी हुए। पंडित राज कुमार शुक्ल, पीर
मुहम्मद मुनीस, हरिबंश सहाय, शेख़ गुलाब, शीतल राय और उनके भाई महंत राय, राधेमल शायद
ऐसे ही लोग थे जिनके युगों के संघर्ष और विद्रोह की कथा को कुछ पंक्तियों के मृत्यु-लेख
या शोक-गीत की तरह इतिहास में याद किया जाता रहा है। मैं अभी भी उन किसानों की बात
नहीं कर रहा जिन्हें अपने इलाके में तैनात मिलिट्री पुलिस के लिए हज़ारों रुपये देने
पड़े, जिनकी बहू-बेटियों के स्त्रीत्व लुटने का तमाशा कहीं चित्रित नहीं हुआ, जिनके
घर लगातार टूटते रहे, जो निलहों और ज़मींदारों के पोसे हुए बाहुबलियों के हाथों शहीद
हुए, जो अपने जीने का उपाय खोजते-खोजते क़ब्रिस्तानों और श्मशानों के भेंट चढ़ गए। जो
ज़मीन में गड़ कर भी जीते रहे, लड़ते रहे।
नाम
और उनके योगदान तो हम भूल ही गए, विवाद ज़रूर शुरू हो गया। हाल ही में 'द वायर' में
छपा एक लेख देखा - 'The Unsung Heroes of the Champaran Satyagraha’ .... अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद और एक फ्रीलांस पत्रकार अफ़रोज़
आलम साहिल ने संयुक्त रूप से यह लेख लिखा है, जिसके अंत में छपा नोट बहुत ही रोचक है। लिखा है - "This article was edited to
replace Arthur Herman's description of Gandhi's characterisation of Raj kumar
Shukla as an "idiot" with Gandhi's own words to describe him: an
"ignorant, unsophisticated but resolute agriculturist". बात बहुत ही साधारण
है, लेकिन एक विकृति सोच की ओर संकेत करती है, और वो यह है कि इन दो विज्ञ लेखकों ने
राज कुमार शुक्ल को गाँधी जी द्वारा 'इडियट' कहने के आर्थर हरमन के विवरण को अपने मूल
लेख में शायद सत्य माना। यदि इन्होने गाँधी जी के 'My Experiment with Truth' को पढ़
लिया होता (या शायद पढ़ा भी हो, लेकिन उसे तवज़्ज़ो नहीं दी) तो यह भूल नहीं होती, और
उसे इस तरह सुधारने की ज़रुरत भी नहीं पड़ती। आपको फिर से याद दिला दूँ, मैंने अभी-अभी
कहा था - इतिहास झूठ नहीं बोलता, इतिहासकार बोलते हैं। यह उद्धरण इसी बात को सिद्ध
करता है। और ये आज की बातें ही कल, इतिहास के रूप में पढ़ी जाएंगी। क्या अच्छा लगेगा
हमारी संततियों को यह पढ़ कर या जान कर, कि उनके पूर्वजों के देशप्रेम और बलिदान की
कथा, उन्हीं के प्रजन्मों के हाथों बर्बाद हो गई? क्या यही कारण नहीं है कि इतने बलिदानों
के बाद भी, आज किसी एक ग़ुमनाम बुख़ार या बीमारी से, उसी इलाके के बच्चे, सैकड़ों की संख्या
में बिना इलाज़ या लाइलाज़ मारे जाते हैं?
इस
लेख में इसके लेखकों ने मूलतः यह कहने की कोशिश की है कि पंडित राज कुमार शुक्ल एक
अनपढ़ व्यक्ति थे जो बस कैथी लिखना-पढ़ना जानते थे। उनकी ओर से सारे पत्राचार इत्यादि
उनके दोस्त पीर मुनीस साहब करते थे जो चम्पारण के नील-किसानों की पीड़ा और व्यथा कानपुर
से छपने वाले अखबार 'प्रताप' में लिखते थे।
'प्रताप' के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी थे। पीर मुनीस साहब एक शिक्षक थे और
अख़बारनवीस भी। इस लेख ने भैरव लाल दास जी, जिन्हें हम सब उनके इस विषय पर विषद शोध
और काम के लिए जानते हैं, इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा, और यहां तक कि खुद गाँधी
जी को भी इस बात का दोषी ठहराया है कि उन्होंने पीर मुनीस को, और उनके महत योगदान को,
कैसे नज़रअंदाज़ कर दिया। और भी बातें हैं जो विभिन्न साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर
इस ओर संकेत कर रही हैं कि कई ऐसे मुस्लिम सत्याग्रही थे जिन्हें यथायोग्य सम्मान नहीं
दिया गया।
चम्पारण
सत्याग्रह पर रामचंद्र गुहा की लेखनी तो मैंने नहीं पढ़ी, लेकिन भैरव लाल दास जी द्वारा
सम्पादित 'गाँधी जी के चम्पारण आंदोलन के सूत्रधार राजकुमार शुक्ल की डायरी' (कामेश्वर
सिंह बिहार हेरीटेज सीरीज़ -१९) में छपे लेखों को पढ़ा है। उसके पृष्ठ ५९ पर साफ़ लिखा
है "गाँधी का कोई समाचार नहीं पा कर २७ फरवरी १९१७ को शुक्ल जी ने पीर मोहम्मद
मुनीस से साबरमती आश्रम के पता पर गाँधी के नाम पात्र भिजवाया। पत्र निम्न प्रकार था:
मान्यवर
महात्मा,
क़िस्सा
सुनते हो, रोज़ औरों के, आज मेरी भी दास्ताँ सुनो। ..."
तो
भैरव लाल दास जी पर लगे इस आरोप का खंडन तो इस उद्धृत अंश से ही हो गया, मेरा विश्वास
है विरोधाभाषी विचारों के बीच ऐसा बहुत कुछ है जो आगे भी ऐसे मंतव्यों का खंडन करता
रहेगा।
फिलहाल
तो ज़रूरी है - शोध .... और अनुसंधान ... जो उन सब तथ्यों और सबूतों को बटोरे, जिसमें
अभी भी बहुत कुछ दबा पड़ा है। राजकुमार शुक्ल और पीर मुनीस ही क्यों, ऐसे बहुत लहू के
धब्बे मिलेंगे जो हमारे ज्ञात समय-काल के, अज्ञात मानवों की, धमनियों के कटने से बहा
था। इस इतिहास से सीखने लायक तो यह है, कि हम फिर से वह न करें, जिसने यह संत्रास बुलाया
था। किसान वही हैं, किसानी भी वही है - एक का तन बदलता गया है, तो दूसरे की तकनीक;
मुद्दे लेकिन, अभी भी वही हैं। और अभी भी हमारे बीच वो राजकुमार शुक्ल, पीर मुनीस, शीतल राय, शेख़ गुलाब,
महंत राय हैं जिनका सत्कार करना हम भूल गए हैं, जैसे कि स्वर्गवासी आत्मा का पिंड-दान
रह गया हो।
महात्मा
गाँधी ने राज कुमार शुक्ल को चाहे 'इडियट' ही क्यों न समझा हो, उसका ज़िक्र किए बिना
भारत का स्वंत्रता आंदोलन नहीं शुरू होता। वह अंग्रेज़ों के अंदर उस बढ़ती बर्बरता का
संकेत था जिसके हाथों बाद में जलियांवाला बाग़ जैसा हत्याकांड घटित हुआ। जलियांवाला
बाग़ में मरने वालों के कम से कम नाम तो हैं, आँकड़े हैं .... चम्पारण वालों का तो कोई नाम ही नहीं हैं।
पंडित राजकुमार शुक्ल ने उन आत्माओं को अपना नाम दिया, और किसानों के चरम उत्पीड़न की
एक दबी हुई त्रासदी को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की मूल धारा से जोड़ा है। कुछ तो वैशिष्ट्य
रहा होगा चम्पारण के इस चाणक्य में, जिसके सम्मान में नीलहा ए.सी.एम्मन भी नतमस्तक
हो गया था। अपनी सारी संपत्ति और पारिवारिक सुख-चैन को दाव पर लगा कर इस 'चम्पारण के
चाणक्य' ने वह कर दिखाया, जिसने गाँधी जी जैसे सत्याग्रह के अनुभवी और पारखी को भी
दिशा दिखाई, जिस पर चल कर भारत अंततः आज़ाद हुआ। सच पूछें तो गाँधी जी के सत्याग्रह
के सारे तत्वों का ताना-बाना उनके चम्पारण-सत्याग्रह के दौरान ही बना था, जो देश-काल-परिस्थिति
के सापेक्ष समय-समय पर विभिन्न रूपों में देश भर में उभरता रहा।
मुझे
मालूम है मेरी बातें तनिक अतिशयोक्ति-सी लगेंगी, लेकिन यह मेरी थोथी भावना नहीं है,
अपने भोजपुरी उपन्यास ' गंगा रतन बिदेसी' के लिए शोध के दौरान जो कुछ भी मैंने पढ़ा
है और समझा है, यह उक्ति उसी का सार है।
राज
कुमार शुक्ल जी की कथा मुझे कौटिल्य की याद दिलाती है, जिसे नन्द वंश के राजा धनानंद
के कोप का शिकार होना पड़ा था। कौटिल्य को राज दरबार से तिरष्कृत होकर, लगभग चोरों की
तरह छुप कर भागना पड़ा था, लेकिन इस संकल्प के साथ, कि वह इस अनैतिक राज का अंत करेगा।
राज कुमार शुक्ल ने नील-कोठी के मालिक ए.सी. एम्मन के ख़िलाफ़ लड़ते हुए भी यही संकल्प
निभाया। ये और बात है कि भारत की आज़ादी तक जीवित रहने की उम्र वो नहीं जुटा पाए, लेकिन
उस अत्याचारी प्रथा का अंत निश्चित रूप से किया, जिसके कारण उन्हें अपने सारे पशु-धन,
ज़मीन-जायदाद और संपत्ति को तिलांजलि देनी पड़ी। राज कुमार शुक्ल में एम्मन साहब को वह
उद्योगी, हठी और अटल संकल्प का प्रतिवादी मिला था, जिसकी मृत्यु पर उन्हें भी दुःख
प्रकाश करते हुए यह कहना पड़ा कि इस इलाक़े में एक ही तो मर्द था। उन्होंने न केवल शुक्ल
जी की अंत्येष्टि के लिए अपने आदमी के मार्फ़त पैसे भिजवाए, बल्कि उनके अंतिम संस्कार
में शरीक भी हुए, और ज़िले के पुलिस सुपरिटेंडेंट से सिफ़ारिश करके शुक्ल जी के दामाद
को सरकारी नौकरी भी दिलवाई। ये एम्मन साहब का शुक्ल जी के प्रति स्नेह नहीं था, बल्कि
एक दुर्द्धर्ष लड़ाकू किसान के प्रति उनकी श्रद्धा और सत्कार का भाव था।
वहां
की लोक-कथाओं, लोक-संगीत और लोक-नृत्य या नाटक में उनकी आत्मायें विचरती हैं, यह पूछते
हुए, कि भारत अगर एक कृषि-प्रधान देश है, तो फिर किसान-प्रधान क्यों नहीं? क्यों हर
बार किसान-विद्रोह की नौबत आती है? क्यों हर बार किसान फांसी लटक जाता है? क्यों आज
तक उनके बच्चों के लिए उचित शिक्षा और स्वास्थ्य का उपाय नहीं किया जा सका?
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