Tuesday, June 9, 2020

लोककथाओं की कहन शैली का क्षरण हुआ है




          लोककथाओं की कहन शैली का क्षरण हुआ है - इस मत से मैं आंशिक सरोकार भर रखता हूँ। क्यूँकि मुझे अच्छी तरह पता है यह समय और समाज के बदलते रूप का प्रतिबिंब भर है न कि लोक-कथाओं के विलुप्त होने की भूमिका। ऐसी हर स्थिति वैचारिक स्तर पर आलोड़न पैदा करती है और हमें यह लगने लगता है कि हमारी एक और विरासत आधुनिकता की बलि चढ़ गई। ये मुझे उस स्थिति की याद दिलाता है जिसमें गुणाढ्य के 'बड़कहा' (वृहत्कथा) को पैशाची क़रार कर दिया गया था। या फिर वो समय, जब फणीश्वरनाथ रेणु के 'मैला आँचल' या नागार्जुन के 'बलचनमा' को अपनी प्रयोगधर्मी, आंचलिक भाषा के लिए बड़ी ओछी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था। मैं शैली के परिवर्तन को युगोचित रूपांतर कह सकता हूँ, क्यूँकि निश्चित रूप से हमारी लोक-कथाओं के परिवेश में युगीन परिवर्तन हुए हैं। साथ ही साथ मैं यह भी स्पष्ट करना चाहूँगा कि कथा कहना और प्रस्तुत करना दो अलग-अलग विधाएं हैं। कथा कहने में, कहने और सुनने वाले, या वालों, के बीच भाव-विनिमय की ध्वनि (जैसे-हुँकारी भरना) और उसके सापेक्ष एक सघन अन्तरक्रियाशीलता (rich interactivity) का खेल होता है जो कथा के चरित्र और कथानक दोनों को विशेष प्रभावों से भरते हैं, जबकि किसी कथा की प्रस्तुति में उस सघन अन्तरक्रियाशीलता का अभाव होता है। एक प्रस्तुति को सुनना, जैसे एक व्याख्यान को सुनना, समझना और सीखना। उद्देश्य संभवतः दोनों के एक ही होते हैं, लेकिन प्रस्तुति में वो आंतरिकता नहीं होती जो लोक-कथा के पारंपरिक रूप में होती है।
            आज के दिन भले ही कथा कहने की सघन अन्तरक्रियाशीलता का अभाव हुआ हो लेकिन कथाओं की रोचकता और लोकप्रियता कम नहीं हुई। क्षेत्रीय, जनपदीय या आंचलिक लोक-गीतों में निबद्ध सरस लोक-कथाएँ अभी भी जनमानस में उत्साह और उपदेस भरते हैं। इस डिजिटली समन्वित दुनिया में इन लोककथाओं को प्रसार का एक और माध्यम मिल गया है, और उसका बहुत लाभ भी हुआ है; क्योंकि उस डिजिटल दुनिया में भाषायी विरोध या प्रतिरोध का कोई स्थान नहीं, और न ही है कोई व्याकरण या शिल्प के अनुशासन का बंधन। अपने-अपने तरीके से बेतरतीब सही, पनप रहे हैं ये जहाँ-तहाँ, मिल रहे हैं लोगों से, सभ्यताओं से, जैसा कि पहले भी होता रहा है। 'सिन्ड्रेला' की कथा विश्व में पाँच सौ रूपों में जानी जाती है, गुणाढ्य के 'वृहत्तकथा' की शैली से प्रभावित मध्य-एशिया में 'अरेबियन नाइट्स' आती है, बौद्ध जातक कथाओं और जैन आगम कथाओं के समरूप कथाएं आती हैं बाइबिल के नए टेस्टामेंट में, रामायण और महाभारत की कथाएँ अपने कई रूपांतर ले कर इंडोनेशिया, थाईलैंड और कंबोडिया में फैली हुई हैं जो कई स्थानों और प्रसंगों में भारतीय परंपरा से भिन्न हैं। 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' की नीतिवाचक कथाएँ संसार की लगभग सभी ज्ञात भाषाओं में उपलब्ध हैं, और किसी भी अर्थ में सुमेरी सभ्यता के 'गिलगमेश' या यूनानी होमर के 'इलियड' और 'ओडीसी' से कम लोकप्रिय नहीं हैं। जैसे 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' की कथा फैलती है भूमध्यसागर से उत्तरी अफ्रीका, स्पेन, इटली, ग्रीस और सारे मध्य-यूरोप में, जातकों की कथा संस्कृति पूरब में चीन, जापान, बर्मा, लाओस, कम्बोडिया, इंडोनेशिया तक फैल जाती है। 
            वर्ल्ड वाइड वेब, यू ट्यूब, गूगल सर्च इत्यादि डिजिटल फलक पर अनगिनत वीडियो और लिखित रूप में लोक-कथाएं उपलब्ध हैं, और कई वेबसाइट्स पर कथाएं विभिन्न भाषाओं में कही भी गई हैं। निश्चित रूप से इन सब में कथा-कथन की वो शैली नहीं है जिसे साठ और सत्तर दशक तक जन्मे लोग सुनते आए हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि विश्व की लोक-कथाओं का इतना विपुल भंडार भी उस दशक के जन्मे लोगों को नहीं मिला था। अपने देश में भी हम केवल अपने प्रदेश की स्थानीय लोक-कथाओं तक ही सीमित थे। वैश्वीकरण और बाज़ार ने उस स्थानीयता को खोल कर लोक-कथाओं को एक विस्तृत भूगोल दिया है। साथ ही कथा कहने की पारंपरिक और पुरानी शैली को भी एक असीम अवसर दिया है लोगों तक पहुंचने का। दुःखद है कि 'आल्हा-ऊदल', 'सोरठी-बृजभान', 'गोपीचंद' आदि के गीत-कथा का वह रूप जिसे गांवों, कस्बों में गोल बांध कर लोग सुनते थे, इस बदलाव का हिस्सा बने बगैर तितर-बितर हो गए। ऐसे ही एक भोजपुरी लोक-गीत में बुनी कथा का उपयोग मैंने भी अपनी प्रकाशाधीन भोजपुरी उपन्यास 'गंगा रतन बिदेसी' में  किया है। कथाएं हैं, लेकिन उनको सुनाने की वह लुभावनी विधि और रूप खो गए। शायद इसलिए कि एक तरफ तो उस रूप को साधने वाले लोग खोते गए, और दूसरी तरफ उन्हें रिकॉर्ड करके रखने की सुध किसी में न जागी। तो दोषी हम सब हैं, उन विधाओं को खोने के; और जब होश आया तब तक समय थोड़ा आगे निकल चुका था।
            ये सब हठात नहीं हुआ। इतिहास के कई चरणों में इस विकास को देखा जा सकता है। ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म के कर्मकांडी शिकंजे को तोड़ने की कोशिश में उपजा बौद्ध और जैन धर्म, चार्वाक का वस्तुवाद या भौतिकवाद से भरा 'लोकायत' दर्शन, मध्यकाल का भक्ति आंदोलन और लगभग उसी काल में यूरोप में उठी रेनेसाँ की लहर - सब मनुष्य-जीवन के केंद्र में व्यक्ति की प्रतिष्ठा के कारक रहे हैं। इसका असर उस काल की कथाओं और साहित्य पर भी पड़ा है। चाहे वो नीतिवादी उपदेश-कथा हो या घटनाओं की गाथा, सबमें से अप्राकृतिक तत्व को झाड़ कर निकाला गया है। औद्योगिक-क्रांति के प्रभाव से जन्मे उपनिवेशिक होड़ ने तो जैसे सदियों से बह रही लोककथा की संस्कृति की धाराओं को ही सुखा दिया था। उपनिवेशिक कन्धों पर चढ़ कर आए ईसाई धर्म का तिलस्मी, जादुई और अलौकिक कथाओं के प्रति विद्वेष भाव, नव-शिक्षित वर्ग में संदेहवादी विचारधारा के उदय और व्यापारिक शहरों और क़स्बों की स्थापना ने लोक-कथाओं की वाचिक परंपरा को बड़ा नुकसान पहुँचाया। समुदायों में बँटे किन्तु लोक-जीवन की सहभागिता के आपसी समन्वय से बंधे लोग अचानक द्वीपों में परिणत होने लगे - कुछ उपनिवेशिक शक्तियों की मार से, तो कुछ अपने अतिसक्रिय बचाव में। समाज की संरचना टूटी तो साथ-साथ साहित्य और मान्यताओं में भी विक्षेप पैदा हुआ। हर्ष का विषय यह है कि तब भी भारतवर्ष के कई कोनों में अपनी विरासत के प्रति सजग लोगों की सचेत दृष्टि लगातार इस बदलाव का आँकलन कर रही थी, और चाहे जैसे भी हो, लोक-कथाओं, लोक-नृत्य, लोक-गीतों के संकलन में लगी थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध (१८८३ ) में लाल बिहारी डे का बंगाली लोक-कथाओं का वॉरविक गौबल के कला-चित्रों के साथ संकलन, बीसवीं सदी के प्रारम्भ में दक्खिनारंजन मित्र मजूमदार की आज भी प्रसिद्ध बाल लोक-कथाओं का संकलन - 'ठाकुरमार झूली', 'ठाकुरदार झूली' 'थानदीदीर थाले' और 'दादा मोशाएर थाले', ग्रियर्सन साहब द्वारा 'जरनल ऑफ़ दी एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल', 'जरनल ऑफ़ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी' और 'इंडियन एक्टिविटी' में छापे गए 'लोकगाथा-काव्य' एवं कथाएँ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
            आज के विषय के सापेक्ष हमें सोचना यह है कि लोक-कथाओं की इस गति के लिए जो परिस्थितियां या परिस्थितिजन्य गुणक जिम्मेवार हैं, वो क्या हो सकते हैं। जो कुछ गुणक स्पष्ट प्रकाश में आये हैं, वो हैं :
1) पिछले कुछ दशकों में जाति और समुदाय-भित्तिक पहचान का लोप होता जा रहा है। नई तकनीक, नए व्यवसाय और उनसे जुड़े नए परिवेश का चयन कर लोग अपना नया परिचय  बना रहे हैं।
2) ग्रामीण हाट और बाज़ारों को शॉपिंग-मॉल ने विस्थापित करना शुरू कर दिया है।
3) क़िताबों की दुकानें ही अब नए पुस्तकालय बनते जा रहे हैं। अब हमारे स्कूल या विश्वविद्यालय के छात्र-छात्री पारंपरिक पुस्तकालयों की जगह इन बहु-गतिविधि वाले क़िताब की दुकानों में जाना चाहते हैं जहाँ पुस्तकालय की तुलना में और भी नवीन क़िताबें, पत्रिकाएँ और अन्यान्य सामग्री उपलब्ध हैं। साथ ही साथ ऐसे वातानुकूलित कोने भी उन दुकानों में मौजूद हैं जहाँ मजे से बैठकर चाय-कॉफी और फ़ास्ट-फ़ूड के साथ पढ़ाई की जा सकती है।
4) संयुक्त और विस्तृत परिवार सिमट कर एकल-परिवार बन गए हैं जहाँ माता-पिता के अलावा किसी और अंतरंग सम्बन्ध या सगोत्रीय सम्बन्धियों का वास ही नहीं होता। संयुक्त परिवारों में जो बच्चों की देख-रेख और शिक्षा, बच्चों को खाना खिलाते या सुलाते समय दादी-नानी की कहानियाँ सुन कर हुआ करती थी, वो भी अब विशेष रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों, गतिविधि-केंद्रों और विशषज्ञों के हाथ चली गई हैं।
5) तर्कवाद या हेतुवाद के विकास ने कुलीन समुदाय और यहां तक कि मध्य-वर्गीय परिवारों में भी जादुई, तिलस्मी और हिंसक लोक-कथाओं के प्रति अनिच्छा भर दी है। लेकिन ऐसा नहीं कि तिलिस्म और फैंटसी का जादू ख़त्म हो गया हो। वरना जे. के. रोलिंग के 'हैरी पॉटर' के क़िस्से कैसे इतने लोकप्रिय होते। अभिप्राय यह कि अपने बदले हुए स्वरुप में तिलिस्म और फैंटेसी की कथाएँ भी चलती हैं, और चलेंगी।
6) जाति, वर्ण, कुल, वंश या सम्प्रदाय से जुड़ी मान्यताओं में भी उत्तरोत्तर बदलाव आया है। धार्मिक और सामाजिक से ज़्यादा सशक्त होकर उभरा है आर्थिक नियतिवाद (economic determinism)। इस आर्थिक नियतिवाद ने हमारी सोच का ढर्रा भी बदल दिया है। अपने समय के सभ्यतागत लौकिक अस्तित्व और पारलौकिक आकांक्षाओं की चिंता छोड़कर आर्थिक नियतिवाद से बना अर्थपुरुष एक ऐसी भीड़ में परिवर्तित हो गया जिसके रिश्ते टूट-फूट गए और आतंरिक की जगह बाह्य यथार्थ महत्वपूर्ण होता गया। यही कारण है कि अंग्रेज़ी भाषा में संकलित या प्रचलित लोक-कथाओं को भारत में भी बल मिला। माता-पिता बच्चों को ये कथाएँ सुनाते हैं, या सीखने को कहते हैं ताकि उनमें अंग्रेजी भाषा का संचार-कौशल और दक्षता बढ़े, क्यूँकि यही वह सोपान है जो उन्हें आगे चल कर इच्छित मान्यता दिलवाएगा। 
               ज़ाहिर है कि जब समाज की संरचना टूटी तो साथ-साथ साहित्य और मान्यताओं में भी विक्षेप पैदा हुआ; और यही विक्षेप कारण बना उस विकलता का और आवश्यकता का भी जिसने जन-सामान्य की भावनाओं को कहने वाली रचना, विधा और उसकी भाषा को कुलीनता के अहंकार तले दबाना शुरू कर दिया। लेकिन लोक-कथाओं की विलक्षण शक्ति और सार्थकता को नकारना शायद इतना सहज नहीं है। मेरा यह मानना है कि हमारे लोक-साहित्य में ही इतिहास की नींव है। इतिहास चाहे जितना भी वस्तुपरक क्यूँ न हो, एक राजकीय प्रश्रय के बिना नहीं लिखा जा सकता। और इसलिए उसमें बस एक स्थूल और विराट जगत का जीवन प्रकाश पाता है, जबकि लोक-साहित्य स्थानगत, परिवेशगत, समकालीन लोक-जीवन की सोच, आचार-व्यवहार, रूढ़ि, आस्था, मान्यताओं एवं आपसी जीवन-विनिमय पर प्रकाश डालता है। चाहे वह मिथक या किंवदंती हो, या फिर किसी क्रिया-प्रक्रिया से जुड़ा जनजीवन का सच - लोक-साहित्यों में इतिहास का वह पक्ष उजागर होता है जो साधारणतया पाठ्यक्रम के इतिहास की परंपरा से अलग है। प्रत्येक वैदिक देवता किसी एक लोक-कथा से ही जन्मता है। यह सभी सभ्यताओं का सत्य है। वह चाहे अमेरिकी आदिवासियों की अज़टेक-माया सभ्यता हो या चीन की, मिस्र की, सुमेरी या अक्कादी। यदि इन कथाओं को सभ्यताओं के नीचे से हटा लिया जाए, तो सभ्यताएँ भरभरा कर ढह जाएँगी।  
            सच तो ये है कि लोक-कथाओं और लोक-साहित्य के कारण ही कई ऐसी भाषाएँ जीवित हैं जिनकी कोई लिपि नहीं। इनमें समाजशास्त्रीय ज्ञान का विपुल खज़ाना भरा है। आवश्यकता है तो बस इनमें भरे ज्ञान के भण्डार को पहचानने की और इन्हें लिपिबद्ध कर संकलित करने की। इस सन्दर्भ में मैं पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा राज्य के  'दरलोंग' जान-जाति का उदहारण देना चाहूंगा जो अभी भी अस्तित्व में तो है लेकिन १९१९ में ईसाई धर्म ग्रहण करने के बाद, इनके अधिकांश मौखिक साहित्य का लोप हो गया। 'दरलोंग' दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की 'ज़ो मी' जन-जाति का एक सम्प्रदाय है, जिसे अंग्रेजों ने म्यानमार में 'चिन', मणिपुर में 'कुकी' और मिजोरम में 'लुशाई' के नाम से पुकारा। इसलिए इन्हें 'कुकी-चिन' वर्ग से जोड़ा जाता है। विभिन्न इलाकों में रहकर भले ही इनकी बोली भी भिन्न हो गयी हो, लेकिन ये आपस में एक-दूसरे की बोली का ७० फ़ीसदी सार समझ लेते हैं। भारत के उत्तर-पूर्व के एक बड़े क्षेत्र में अवस्थित अपनी सांस्कृतिक और भौतिक जीवन एवं मौखिक साहित्य की समानता और जातीय समरूपता के लिए परिचित इस जान-जाति का मौखिक साहित्य आज के दिन विलुप्त-सा हो कर रह गया है। लेकिन अभी भी उनकी लोक-कथाएँ अपने समीपवर्ती भाषाओं में जीवित हैं, और शायद हमसे ये मांग कर रही हैं कि उन कथाओं का संकलन अन्य प्रचलित भाषाओं में की जाय। संकलन और विविध भाषाओं की लोक-कथाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद - जितना अधिक से अधिक हो सके, करना चाहिए ताकि इनमें समाए मानव-जीवन का इतिहास हमारे भविष्य में उद्धरण और सन्दर्भ बन कर समाज के काम आ सके।

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मृत्युंजय कुमार सिंह
(983064777)
mail : mrityunjay.61@gmail.com

1 comment:

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