कोरोना वायरस
का संक्रमण-काल स्वयं में एक स्थैतिक परिवर्तक (static variable) है, जिसके सापेक्ष
'जनता' और 'कोरोना वारियर्स' के संकटों और चुनौतियों को समझना मेरे इस लेख का मुद्दा
है।
मनुष्य को किसी
भी तरह की यथास्थिति बहुत भाती है। हम अलग-अलग खेमों में चाहे जितने भी विरोध, प्रतिवाद
और क्रांति की बातें कर लें, हमारे अंतर का जीव अपनी एक नियत जगह में जीना चाहता है।
एक ऐसा अपना बनाया हुआ स्थान, जहां वह बदलाव के ख़तरे से पीड़ित तो रहता है, लेकिन उस
यथास्थिति का ठहराव उसे सहज ही कुछ बदलने नहीं देता। धीरे-धीरे सुरक्षा का कवच घिसता
जाता है, लेकिन तब तक यह चर जीवन, कहीं ऐसे बिंदु पर आ चुका होता है, जहां पहुंचने
के दौरान हम कई समझौते कर चुके होते हैं। एक समझौता दूसरे समझौते को जन्म देता है,
एक झूठ की तरह, जब तक वह हमारे जीने का साधन न बन जाए। मज़दूर का बेटा अक्सर मज़दूरी
को ही अपना ध्येय मान लेता है। बहुत विरले हैं जो इस व्यूह को तोड़ पाते हैं, लेकिन
इस व्यूह को तोड़ कर निकलने वाले फिर उस व्यूह की तरफ नहीं जाना चाहते। उनकी एक अलग
ही दुनिया बस जाती है - एक नई दुनिया, जो धीरे-धीरे उनकी असली दुनिया मे तब्दील होती
जाती है। आदमी वही जीता है, जो जीना चाहता है।
कोरोना वायरस
का मनुष्यों पर इस धावे ने उस यथास्थिति की जड़ें हिला दी। वही मनुष्य जो आर्टिफीसियल
इंटेलिजेंस की हद में आने लगा था, जो मनुष्य की जैविक और पर-जैविक गतिविधियों को डाटा
बना कर छोटे से छोटा किए जा रहा था, जिसने अपनी बुद्धि और शक्ति से दुनिया को अनगिनत
क्रियाशील खंडों में बांटा, जो बिना पैसे को छुए खरबपति बना जा रहा था, अचानक अपने
घुटनों पर आ गया। किसी अदृश्य मायावी तत्व ने उसकी दुनिया हिला दी। यथास्थिति की सारी
दीवारें टूट गिरीं, आदमी नंगा होने लगा। उसकी बनाई हुई जगह जैसे कोई उठा कर ले गया।
उसके सारे संसाधन मुँह बाये खड़े रहे। कुछ भी काम न आया। जनता और उस जनता के प्रतिनिधि,
एक-दूसरे का मुंह ताक रहे हैं।
ऐसी आपदाएं
या संकट एक अदृश्य भय ले कर भी आती हैं, जो मनुष्य के मनोविज्ञान को मथ कर रख देता
है। उसके मस्तिष्क का जैविक मानचित्र ही बिगड़ जाता है। तर्क और युक्ति घास चरने चली
जाती है, रह जाता है बस एक डर और उस डर से लड़ने या पलायन की इच्छा। ऐसी ही एक अवस्था
का शिकार हुई है मज़दूरों की वह पूरी जनसंख्या, जो अभी सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे हैं और
उनकी इस दुर्दशा ने देश में एक राजनीतिक मल्ल्युद्ध का परिवेश ला खड़ा किया है।
कोरोना-संक्रमण
से बचाव का केवल एक ही रास्ता सामने था - सामाजिक मेलजोल को बंद करके, आपस में शारीरिक
दूरी का यथासंभव निर्वाह करना। साथ ही इससे संक्रमित लोगों के संगरोध (क्वारनटाइन)
की व्यवस्था तथा नाज़ुक हालत में पड़े रोगियों की अस्पताल में देखरेख की पृथक व्यवस्था
भी करना उतना ही अनिवार्य था। संक्रमण चूंकि भीषण छुआछूत की बिमारी के रूप में उभर
कर आया था, इसलिए इससे संक्रमित या संक्रमण के लक्षण वाले लोगों से स्वयं स्वस्थ्य-कर्मियों
को भी बचा कर रखने की ज़रूरत थी।
ज़ाहिर है कि
जब चीन, अमेरिका और इटली जैसे महान स्वास्थ्य सेवाओं के केंद्र यह सारे काम उचित ढंग
से और समय पर नहीं कर पाए, तो भारत जैसे देश से, जहां कि देश के जी.डी.पी (सकल घरेलू
उत्पाद) का मात्र डेढ़ प्रतिशत स्वास्थ्य संसाधनों के विकास पर लगाया जाता है, भला कितनी
उम्मीद की जा सकती है। राज्यों की भी यही गति है। स्वतंत्र भारत में शायद ही कभी शिक्षा,
स्वास्थ्य और कृषि पर उतना धन ख़र्च किया गया जितना कि ज़रूरी था। परिणाम किसी से छुपा
नहीं है। एक कृषि-प्रधान देश में बहुसंख्यक किसान आत्महत्या करते पाए जाते हैं। आज
तक बुनियादी स्वास्थ्य-सेवा वाले डॉक्टर और संसाधन, पंचायत के स्तर तक भी नहीं खड़े
हो पाए। कहीं स्वास्थ्य-केंद्र है, तो संसाधन नहीं, कहीं संसाधन है तो डॉक्टर और कर्मी
नहीं। ऐसी चरमराई अवस्था में पड़ी स्वास्थ्य-सेवा भला कैसे इस वैश्विक महामारी को झेल
पाती।
‘जनता’
और ‘कोरोना वारियर्स’ एक ऐसे ही परिदृश्य के सापेक्ष खड़े हैं, जहां हर दिन, यदि एक
उपाय ले कर आता है, तो साथ ही विविध समस्याओं का भंडार भी। सबसे ज़्यादा पीड़ित और प्रभावित
हुए हैं उस तबक़े के लोग और परिवार जिनकी रोज़ी-रोटी हर रोज़ के कमाए धन पर आश्रित है।
सरकारों के लाख अनुरोध के बाद भी भारतीय समाज में वह सदिच्छा नहीं जागी कि अपने व्यवसाय
या वाणिज्य की तात्कालिक आंशिक क्षति को सह कर भी उनका काम करने वाले लोगों की मदद
करें। जिनके पास साधन है, वो अपने घर में रसद-पानी का भंडार भरने में लग गए, इसके बावज़ूद
भी कि लगातार सरकारें यह दिलासा देती रहीं, कि खाने-पीने की सामग्री का प्रचुर भंडार
भारत के पास है और उसकी कमी आने वाले कई महीनों तक नहीं होने वाली। हताशा और भय में
दबा वह तबका आने वाले समय की असुरक्षा से अधीर हो कर धीरे-धीरे कुलबुलाने लगा। लगभग
छः करोड़ अंतर्राज्यीय प्रवासी मज़दूर और उनसे जुड़े ग्रामीण परिवारों के इस तरह कुलबुलाने
की त्वरित गति ने पलायन का एक सैलाब ला दिया, जिसके लिए देश सशंकित तो था, लेकिन तैयार
नहीं था।
कोरोना के संक्रमण
से जनता को बचाने के लिए जो तमाम संसाधन जुटाए गए या पद्धतियां बनाई गईं, उसे अंजाम
देने के लिए कुछ विशेष सेवाओं के कर्मी एवं उनके सहयोगियों की ज़रूरत थी। इनमें
से प्रमुख हैं स्वास्थ्य-सेवा से जुड़े अस्पताल, संस्थाएं, स्वास्थ्य सेवा के लिए ज़रूरी
सामग्री और साधनों की आपूर्ति के केंद्र, विभिन्न नगर-निगम, नगरपालिका, पंचायत आदि
से होने वाली सफाई, परिवेश संरक्षण और पुलिस की सारी इकाईयों का सहयोग। इन्हें
ही सम्प्रति 'कोरोना वारियर्स' के नाम से जाना गया है। यहां यह बताना अनिवार्य
है कि इन सारे 'कोरोना वारियर्स' की गतिविधियों से एक और भी बड़ा समुदाय जुड़ा होता है,
जो अदृश्य रह कर भी उनके सारे क्रियाकलापों की नींव है।
उपरोक्त सेवाओं
को मुहैया कराने वाले मानव संसाधन का यथोचित प्रबंधन और उनकी सुरक्षा भी एक महत्वपूर्ण
कार्य होता है। कोई भी नीति, उपाय या पद्धति अपने कार्यान्यवन के स्तर पर आती है तो
उस समय तमाम खामियां और असुविधाएं सामने खड़ी होती हैं, जिसे समझना और सुलझाना बहुत
ही ज़रूरी होता है। ये सारी कमी, ख़ामी या असुविधाएं इतने ज़मीनी स्तर की होती हैं कि
अच्छे से अच्छे नीति निर्धारक भी उसे देख नहीं पाते। यह दरवाज़े में लगने वाली लकड़ी
के उलह जाने, कील के टूट जाने, टेढ़ी हो जाने या आपकी रसोई में अचानक गैस-बर्नर के नहीं
जल पाने की असुविधा जैसे होते हैं। इनका शमन वही लोग कर पाते हैं जो इन कामों में प्रशिक्षित
और दक्ष होते हैं।
जब कोरोना के
प्रति हमारा देश गंभीर हुआ तब तक स्वास्थ्य-सेवा और पुलिस सेवा से जुड़े लोग यह समझ
चुके थे कि उन पर कितना दवाब आने वाला है। दुर्भाग्य से स्वास्थ्य-सेवा के पास वो संसाधन
समय पर नहीं जुट पाए जिसकी ज़रूरत उन्हें बड़े स्तर पर आगे होने वाली थी। उसका मूल कारण
यह था कि कोरोना संक्रमण के मूलभूत लक्षणों का परिचय तो हमारे डॉक्टरों को मिल गया
था, लेकिन इसके निवारण का कोई उपाय या साधन सम्पूर्ण विश्व भर में कहीं उपलब्ध नहीं
था। विभिन्न विकसित देशों के नागरिक हज़ारों की संख्या में संक्रमित हो रहे थे और उसी
अनुपात में मर भी रहे थे। लाज़मी है कि ऐसी किसी भी परिस्थिति में जागरूकता से अधिक
भय का संचार होता है। भय का अर्थ है मनुष्य की बुद्धि का भ्रमित और विचलित होना और
समुदाय में, भेड़-चाल जैसी एक अस्तव्यस्त व्यवहार का फैलना। भय सबसे पहले असुरक्षा
के माध्यम से स्वार्थ को उकसाता है और स्वार्थ, अधैर्य और अवहेलना
की प्रवृति को बढ़ावा देता है। इसी अधैर्य और नीति-नियम के उल्लंघन
की प्रवृति के कारण ही स्वास्थ्य-कर्मियों और पुलिस के प्रति हिंसा की भावना
भी भड़कती है।
तो ऐसे में,
बरबस ही कुछ चुनौतियां हम सब के लिए आ खड़ी होती हैं। ये चुनौतियां हर जगह, अपनी भौगौलिक
और सांस्कृतिक विविधता के कारण, अलग-अलग रूपों में पायी जाती हैं। इन सब को सूचीबद्ध
करना शायद संभव नहीं होगा, लेकिन साझे के जीवन की कुछ मौलिक जिम्मेदारियाँ होती हैं
जो हर क्षेत्र, हर समाज और समुदाय में लगभग एक जैसी होती हैं। उन्हीं जिम्मेवारियों
के सापेक्ष मैं कुछ चुनौतियों की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा, जो 'जनता' और 'कोरोना
वारियर्स' दोनों के लिए ही उपयुक्त मानी जा सकती है।
'जनता' किसी
भी देश के शासन-प्रणाली की धुरी होती है। 'जनता' के हित और सरोकारों के सापेक्ष ही
सरकारें और उनकी संस्थाएं अपना दायित्व नियत करती हैं, इसलिए 'जनता की चुनौतियों को
'कोरोना वारियर्स' की चुनौतियों से पृथक करके देखना मुझे युक्तिसंगत नहीं लगता।
यदि वह ‘जनता’
है तो उसे अपने अनुसार अपने जीवन को व्यवस्थित करना है जो कि अचानक कोरोना के कारण
अव्यस्थित हो गया है। इसके लिए हर आदमी अपने स्तर पर निजी स्वार्थ का शिकार बनता है।
फलस्वरूप, एक ऐसी अफ़रातफ़री का माहौल बन जाता है जिसमें केवल अराजकता और उग्रता जन्म
लेती है। यह अराजक वातावरण हर तबके को परेशान करती है। आर्थिक रूप से चाहे वह एक सर्वहारा
हो, निम्न-वर्ग, मध्यम-वर्ग या फिर उच्च-वर्ग - हम सब एक संश्लिष्ट जीवन के तंतु की
तरह हैं जो कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। आज देश भर में सारी उन्नत कृषि
वाले क्षेत्र, उद्योग, शिक्षा और सेवाएं, मानव-संसाधन के भीषण अभाव से ग्रस्त हैं और
पता नहीं आगे कब तक रहेंगे।
इसी भय और अव्यस्त
जीवन को व्यवस्थित रखने के प्रयास में रत 'कोरोना वारियर्स' के व्यक्तियों पर भी इसका
असर पड़ता है। हज़ारों की संख्या में पुलिस कर्मियों का संक्रमित होना, उनमें से कई लोगों
का मर जाना, सैकड़ों स्वास्थ्य कर्मियों का संक्रमित होना, सैकड़ों स्वास्थ्य कर्मियों
का काम छोड़ कर भाग जाना - यह सब उसी प्रभाव का फल है। पुलिस कर्मियों में काम से पलायन
के अवसर नहीं बन पाते क्योंकि यह सेवा आज्ञा और आदेश पालन के ऐसे नियमों और प्रतिबद्धताओं
से बनी है जिसमें दिए गए दायित्व का पालन ही एकमात्र विकल्प है। इस महामारी के लिए
उपयुक्त संसाधन की तुलना में इनकी संख्या सिमित होने के कारण इनके हर दिन की कार्य-अवधि
भी बढ़ गयी। अपने काम के दौरान जनता से संपर्क में आने और उसके अस्त-व्यस्त व्यवहार
के कारण भी इनका ख़तरा बढ़ता गया है।
बाहर के राज्यों
और प्रदेशों से पलायन कर अपने गाँवों में लौटने वाले लोगों में, पता नहीं कितने संक्रमित
होंगे और आगे कितनों को संक्रमित करेंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनके स्थायी
घरों के आसपास स्वास्थ्य परीक्षण की कितनी उचित व्यवस्था उपलब्ध है। याद रहे, अभी भी
बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और ऐसे कई राज्यों में परीक्षण की गति अत्यंत ही मंद है,
जिसके कारण संक्रमण की सही संख्या का अंदाज़ा लगाना भी संभव नहीं है। सम्पूर्ण भारत
में अभी तक प्रतिदिन एक लाख परीक्षण भी नहीं हो पा रहे हैं।
जिस गति से
हर दिन संख्या बढ़ती जा रही है, वह इस बात का सूचक है कि लॉक डाउन के बाद भी संक्रमण
की श्रंखला टूटी नहीं है। इस बीच प्रवासी मज़दूरों और उनके परिवारों के पलायन ने उन्हें
भी बुरी तरह से संक्रमण की चपेट में ले लिया है। उनका मानना यह है कि जब भूखे ही मरना
है, तो वह किसी अँधेरी खोली में हो या सड़क पर, क्या फ़र्क़ पड़ता है।
ऐसा नहीं कि
यह केवल भारत में हुआ है या हो रहा है, अमेरिका जैसे प्रगतिशील और अत्याधुनिक समाज
में भी, उनके कई शहरों में लोगों ने यह कह कर लॉक डाउन का विरोध किया - "यह शरीर
मेरा है, जीवन मेरा है!"... अर्थ यह हुआ कि हम चाहे जैसे अपना जीवन व्यतीत करें,
सरकारों को उससे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। स्पेन में भी शुरुआत के दिनों में कुछ
ऐसा ही हुआ था, जब झुण्ड के झुण्ड लोग, पार्कों और मैदानों में तफ़री करते नज़र आये।
जब चारों ओर संक्रमण से लोग मरने लगे और उनकी संख्या दिन दूना बढ़ने लगी, तब जा कर उन्हें
यह एहसास हुआ कि कुछ गड़बड़ है, हालांकि अमेरिका में तो मृत्यु की बढ़ती भयावह संख्या
के बाद भी लोग मानने को तैयार नहीं हैं। 'जनता' का यह मनोभाव और ऐसी मानसिकता 'कोरोना
वारियर्स' की एक बड़ी चुनौती है।
उससे भी बड़ी
चुनौती यह है कि गाँवों, क़स्बों या शहरी बस्तियों में रहने वाले ये लोग जब मरते हैं
तो अधिकतर उन्हें किसी स्थानीय डाक्टर के सलाह पर, किसी भी एक अन्य बिमारी से मरा हुआ मान कर, उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाता
है। विशेष कर यह जान कर कि यदि उसकी डाक्टरी परीक्षा हुई और वह संक्रमित निकला, तो
उसके घर वाले अपने तरीक़े से, उसका अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाएंगे। साधरणतया ऐसा ही
होता है और इसमें कोई नयी बात भी नहीं है, लेकिन वर्तमान परिस्थिति में यदि वह कोरोना-आक्रांत
हुआ तो निश्चित रूप से अपने मरने तक वह कई लोगों को संक्रमित कर चुका होता है, जो आगे
भी उस संक्रमण का प्रसार करते हैं।
इस बीच लॉक
डाउन के कारण लगातार घरों में बंद रहने की चिढ़ और आवेग से पीड़ित हो कर पुरुषों के हाथों
महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा की घटनाएं भी बढ़ी हैं। श्रमिकों के पलायन से बंगाल, बिहार
और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की जनसंख्या में भी एक बड़ी वृद्धि हुयी है। उदहारण के
लिए बिहार की जनसँख्या, लगभग साढ़े चौदह लाख इन श्रमिकों के आने से, १.२५ % बढ़ी है। इन बेरोज़गार लोगों का बोझ अब उन
उपलब्ध साधनों पर है, जो स्वयं ही अतिअल्प माना जाता है। इनकी गतिविधियों पर लगातार
नज़र रखना भी कोरोना-वारियर्स के रूप में पुलिस के लिए चुनौती है।
केंद्र और राज्य
सरकारों के बीच समन्वय के अभाव ने भी 'कोरोना-वारियर्स' की चुनौतियां बढ़ा दी हैं, क्योंकि
अंततः राज्यों द्वारा नियंत्रित निकाय होने के नाते उन्हें राज्यों के आदेशों के अनुकूल
ही काम करना तो पड़ता है, लेकिन कई बार विरोधाभासी स्थितियां तैयार होती हैं जो केवल
तनाव पैदा करती हैं।
इतना सब होने
के बाद भी पुलिस और नगर पालिकाओं के कर्मी ज़रुरत मंद लोगों के घरों में दवा, राशन,
यहां तक कि सफाई और विसंक्रमण आदि की व्यवस्था कर रहे हैं। सरकारों की नीतियों और उपलब्ध
संसाधनों के आधार पर प्रवासी मज़दूरों की सुरक्षा और आवागमन के साधनों की व्यवस्था कर
रहे हैं। साथ ही साथ तक़लीफ़ों में पड़ी जनता के उग्र और हिंसक आघातों का भी सामना कर
रहे हैं। उसके ऊपर से हमारे समाज की अशिक्षा और अनभिज्ञता, जिसके कारण जगह-जगह पर कोरोना
संबंधी परीक्षण करने वाले स्वास्थ्य-कर्मियों के दल को अनिच्छा और हिंसा का शिकार होना
पड़ा है।
चंद दिनों पहले
की ही बात है जब स्वामी विरक्तानंद उर्फ़ शोभन सरकार की मृत्यु पर लॉक डाउन के सारे
नियम तोड़ कर कानपुर में हजारों लोगों की एक अंधविश्वासी और उत्सुक भीड़ जमा हो गयी।
चाहे वह निज़ामुद्दीन, दिल्ली के मरकज़ पर हुए मज़मे में संक्रमण का ख़तरा हो या रामनवमी
पर निकला लोगों का जुलूस, या फिर थाली पीटने वालों का भीड़ जुटा कर शहर में घूमना -
इस तरह की सारी घटनाएं जनता की मानसिक विकृति की सूचक हैं। ऐसी भीड़ पर पुलिस द्वारा
लिया गया कोई भी कड़ा क़दम जनतंत्र के ख़िलाफ़ माना जायेगा। लेकिन इसके औचित्य के बारे
में कोई वैज्ञानिक ढंग से सोचे, ऐसी मानसिकता आज भी हमारे देश के लिए एक सपना-सा है।
‘कोरोना-वारियर्स’
को मालूम है कि उनके संसाधन उनकी ज़रूरतों की तुलना में सदैव कम रहेंगे, इसलिए अपने
साधनों और सामग्रियों का यथोचित प्रयोग करना अनिवार्य है। यह ज़रूरी है कि स्वास्थ्य-कर्मी
और पुलिस कर्मी यथासंभव सहिष्णु और सहानुभूतिशील बने रहने की चेष्टा करें। आफ़त और दुर्दिन
में फंसा आदमी हमेशा नासमझ हो जाता है, लेकिन उसके कारण उससे दुर्व्यवहार करना, हमारी
दिक्कतें और बढ़ाता है।
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मृत्युंजय कुमार सिंह –
(mrityunjay.61@gmail.com)
व्यापकता संजोए हुए है. अच्छा लगा
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