पुराना कथन है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। यद्यपि साहित्य संवेदनशील
मन और कल्पना से भरे मस्तिष्क की उपज है, इसकी कथावस्तु, चरित्र और बिम्ब एक विशेष
भोगौलिक स्थान और सामाजिक-आर्थिक परिवेश को ही प्रतिबिम्बित करते हैं। यह भी सत्य है
कि साहित्य केवल लिखित वाङ्गमय ही नहीं, वो भी है जो लोक परंपरा में श्रव्य और मौखिक
साहित्य के विविध रूपों में पीढ़ी दर पीढ़ी विद्यमान है। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मौखिक
साहित्य केवल जीवित लोगों या सभ्यता के बीच ही रह सकता है जबकि लिखित साहित्य किसी
व्यक्ति, समुदाय या सभ्यता के नष्ट हो जाने पर भी अपना अस्तित्व नहीं खोता। लेकिन इसके
भी अपवाद हमारे देश में हैं। जैसे कि त्रिपुरा की 'दरलोंग' जान-जाति।
त्रिपुरा विश्वविद्यालय, त्रिपुरा के विद्वान बेंजामिन दरलोंग अपनी शोध रचना 'Literature of North East India: Oral
Narratives as Documents for the Study of Ritualization in the Darlong Community
of Tripura' में बताते हैं कि 'दरलोंग' जान-जाति जो अभी भी अस्तित्व में तो है लेकिन
१९१९ में ईसाई धर्म ग्रहण करने के बाद, इनके अधिकांश मौखिक साहित्य का लोप हो गया। उनके अनुसार
'दरलोंग' दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की 'ज़ो मी' जान-जाति का एक सम्प्रदाय है, जिसे
अंग्रेजों ने म्यानमार में 'चिन', मणिपुर में 'कुकी' और मिजोरम में 'लुशाई' के नाम
से पुकारा। इसलिए इन्हें 'कुकी-चिन' वर्ग से जोड़ा जाता है। विभिन्न इलाकों में रहकर
भले ही इनकी बोली भी भिन्न हो गयी हो, लेकिन ये आपस में एक-दूसरे की बोली का ७० फ़ीसदी
सार समझ लेते हैं। भारत के उत्तर-पूर्व के एक बड़े क्षेत्र में अवस्थित अपनी सांस्कृतिक
और भौतिक जीवन एवं मौखिक साहित्य की समानता और जातीय समरूपता के लिए परिचित इस जान-जाति
का मौखिक साहित्य आज के दिन विलुप्त-सा हो कर रह गया है।
पूर्वोत्तर भारत के साहित्य की कथावस्तु, बिम्ब एवं सार का यदि हम ध्यान
से मनन करें तो उसमें अस्तित्व की असुरक्षा, अंतर्जातीय संघर्ष, विवाद और एक मुक्त
सुरक्षित जीवन की लालसा का विस्तृत आयोजन दिखता है। ये असुरक्षा कई कारणों से उपजी
है। एक समन्वित भू-खंड को असंगत तरीके से बाँट देने से जनित पीड़ा, एक नयी राजनीतिक
इकाई या निकाय में अपना स्थान बनाने की होड़ और वेदना, व्यावसायिक बाज़ार की प्रतिस्पर्धा
में अपनी संस्कृति और कला को बचा कर रखने के उपाय खोजने का द्वंद्व, आज़ाद भारत की सशक्त
सार्वभौमिक सत्ता
से जुड़ने की दुविधा और उसे आत्मसात करने का दवाब, अपरिचित
लोगों और फौजी ताकतों से जूझने की दैनन्दिन कवायद - सब मिलकर एक ऐसे अराजक भ्रम की
पृष्ठभूमि तैयार करते हैं जिसमें एक आम आदमी का सशंक हो उठना उतना ही लाज़मी है जितना
कि हठात् किसी का एक अनजाने समुदाय में फेंक दिया
जाना। पूर्वोत्तर भारत की ज़मीन और लोग मात्र १ फ़ीसदी उस देस की ज़मीन से जुड़े हैं जिसने
उन्हें अपना रक्खा है, बाकी के ९९ फ़ीसदी वो विदेशी ज़मीन से जुड़े हैं - चाहे वो भूटान
हो, म्यानमार, चीन, तिब्बत या बांग्लादेश। जनजातीय
जीवन को यदि देखा जाय तो वो उन तथाकथित विदेशी परिवेश से अपने को ज़्यादा करीब महसूस
करते हैं न कि भारत की उस ज़मीन के लोगों से जो राजनीतिक अस्तित्व के हिसाब से उनके
अपने हैं। ये फल है उस तिब्बती-बर्मी भाषा और संस्कृति के एक वृहत समुदाय का जो अपने
पृथक सार्वभौम घेरे के बाहर जा कर भी एक-दुसरे से जुड़ा महसूस करता है। पूर्वोत्तर भारत
की साहित्यिक और कलात्मक संवेदना में ये पीड़ा अनायास ही उभर कर सामने आती है। विप्लव,
विद्रोह, विरोध, भ्रष्टाचार और प्राकृतिक दुर्योग की बहुआयामी एवं मिश्रित अभिव्यक्ति
पूर्वोत्तर भारत के साहित्य में जैसे सर्वव्यापी शाश्वत सत्य की तरह फैला दिखता है।
उपरोक्त नकारात्मक अभिव्यक्तियों सो थोड़ा परे हटकर जब मैंने अवलोकन
किया तो मुझे परत-दर-परत प्राकृतिक सौंदर्य और हमारी वर्त्तमान राष्ट्रीय चेतना की
मूल धारा के समरूप किन्तु एक अलग-सी जिजीविषा दृष्टिगत हुई। प्रदीप आचार्य द्वारा अनुवादित
समीर तांती की १९५६ की कविता में ज़रा झांकें:
How can I hold hunger
guilty
Hunger is my chilhood's
bounty
Leaning on its shadow I
played the flute
Played being Shyaam-Kanu.....
I have no quarrels with it
How can I hold hunger guilty
Hunger is my mother's first
miscarriage
The third world of my agony
ये कविता एक विशेष इलाके और परिवेश में पल रही उस विषम परिस्थिति को
उजागर करता है जिसमें अतृप्य भूख की वेदना बाँसुरी के माधुर्य और माँ के पहले गर्भपात
की असहनीय पीड़ा को साथ लिए संताप के तृतीय जगत का निर्माण करती है। मुझे यह अभिव्यक्ति
उतनी ही शाश्वत और मानवीय संवेदना से भरी दिखती है जितनी कि कवि शमशेर की वेदना से निर्मित
समीर तांती के समरूप 'तृतीय जगत', जब वो अपनी कविता 'यह शाम है' में कहते हैं:
"यह शाम है
कि आसमान खेत है पके हुए अनाज का।
लपक उठीं लहू-भरी दरातियाँ,
- कि आग है: धुआँ धुआँ …"
ये भाव ‘मिशिंग’ जन-जाति के कवि जीबन नारा की कविता 'द बुद्धा
एंड अदर पोयम्स' (१९७०) में और भी मुखर हो उठते हैं:
"Mama, you are drinking more than your need
The grey crop on your head worries you no end
And you drown yourself in the cup
As we are away, you call and holler, pause and wail,
And duck your tears deeper in pillow...." (अनुवाद: प्रदीप आचार्य)
जीबन नारा पेशे से अध्यापक हैं और अखोमिया (असमिया) में लिखते हैं।
अपनी शैली और तेवर में समसामयिक भी हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति में उनकी अपनी जनजाति
और मिट्टी का सरोकार भाव स्पष्ट दिखता है।
यही वेदना विद्रोह बन कर फूटती है मेघन कछारी उर्फ़ मीथिंगा दाईमारी
में (जो 'उल्फा' के सांस्कृतिक और प्रचार सम्बन्धी विषयों के सचिव हुआ करते थे), और
विषमयी होकर मुखरित होती है उनकी कविताओं में। प्रदीप आचार्य द्वारा अनुवादित उनकी
इस कविता का तेवर देखें:
"Tears make me drink till I am sozzled,
The night sky shivers at my mad rants
My ruined vitals go alert like a cat,
And the startled whore spits at me
Out of hatred, sheer hatred....
Like erosion I steadily break and splinter,
breaking against the bend in my heart"
(Megan and Stray Ramblings - Translated by Pradeep Acharya)
हृदय के मोड़ तक पहुँचते-पहुँचते पाशविक पीड़ा का रेचन है ये कविता। लेकिन
ठीक इसके विपरीत सौरभ सैकिया और अनुभव तुलसी जैसे असमिया मूलधारा के कवि भी हैं जो
अपने ग्रामीण रोमांस के सघन भावों की शैली और बिम्बों से गुदगुदाते हैं। कवि कबीन फूकन
थोड़े रोमांस के विरोधी हैं, लेकिन मानव-सुलभ आत्मीयता और घनिष्ठ भावों को नहीं नकारते।
लोक-जीवन की वास्तविकता
समसामयिक असमिया कविताओं के लिए कोई अजीब या निराला नहीं है। सिवानन्द काकोती की लघु-कथायें केंद्रीय असम के
वैष्णव गाँवों के दैनिक दिनचर्या से जुड़े यथार्थ को प्रतिबिंबित करती हैं। अरूपा पातोंगिया
कलीता का अपने समाज के नारी-जीवन की विसंगतियों के प्रति सरोकार-भाव सचमुच जानने लायक
है। मामोनी रायसम गोस्वामी (इंदिरा गोस्वामी)
का ग्रामीण नारियों के जीवन का निष्कपट चित्रण और ख़री-बयानी अपने गाँव की सीमा पार
कर प्रतिवेशी स्थानों तक की छाया उजागर करता दिखता है। इस समसामयिक परंपरा से परे सैयद
अब्दुल मलिक (Longing for the Sunshine), नवकांत बरुआ (Kapiliparia Xadhu), देबेंद्रनाथ
आचार्य (अन्य युग, अन्य पुरुष) या रोंगबोंग तेरांग (रोंगमिलिर हान्ही) अपने विविध भाव-चित्रण
के विस्तार के लिए जाने जाते हैं। हाल-फ़िलहाल की रचनाओं में रीता चौधुरी की 'देवलांगखुई'
और 'माकाम'(ऐतिहासिक घटनाओं से बुनी कथा) मुझे बड़ी रोचक और मर्मस्पर्शी लगी। एक में कछारी, सूतिया और कोंच की मृतप्राय स्थानीय
विरासत को पुनर्जीवित किया है, तो दूसरे (माकाम) में अंग्रज़ों के चाय-बागान में सबसे
पहले लाकर बसाये गए 'चीनी मज़दूरों' के त्रासदी की कहानी है। जिस भाव की गंभीरता और
करुणा से रीता जी ने उस त्रासदी का चित्रण किया है, उसे पढ़ने के बाद सारी देशभक्ति,
राजनैतिक वैचारिक मूल्य और राष्ट्रवादी गौरव - बेमानी लगते हैं।
अरुणाचल प्रदेश के
असमिया भाषा के लब्ध्प्रतिष्ठ लेखक येशे दोरजी थोंगची की अपातानी, आदी, अबोर आदि जन-जातियों
पर प्रकाश डालता साहित्य, लुमेर दाई का 'पहाड़ेर सिले-सिले,' 'पृथ्वीर हानहीन,' 'मोन
आरु मोन' - सबमें पूर्वोत्तर भारत का जीवन-वैविध्य मुखरित है।
ये सराहनीय है कि पिछले एक-दो दशकों में न सिर्फ़ उत्तर-पूर्व राज्यों
की भाषाओँ का एक भरा-पूरा साहित्य उभर कर आया है, बल्कि उनके हिंदी और अंग्रेज़ी अनुवाद
की तरफ भी प्रशंसनीय पहल की गयी है। केवल केंद्रीय हिंदी संस्थान के तत्त्वावधान में
पूर्वोत्तर भारत की कई भाषाओँ की लोककथा, लोकगीत और लोक जीवन से जुड़े साहित्य का अनुवाद
और भाषांतरण किया गया है। इनमें से कुछ का नाम मैं लेना चाहूँगा –
1. राङगोला (कॉकबरक भाषा से) सुश्री रूपाली देबबर्मा
2. तीन भाई और एक बहन (पनार भाषा से) डॉ. संतोष कुमार
3. झील का रहस्य (ताङसा भाषा से) सुश्री मैखों मोसाङ
4. कोरदुमबेला (मिजो भाषा से) श्री एच. वानलललोमा
5. जायीबोने (गालो भाषा से) सुश्री किस्टिना कामसी
कुछ साहित्य उन रचनाकारों से आया है जिन्होंने अपने समाज और लोक जीवन
की कथा या कथावस्तु पर हिंदी में मूल रचना की है। का तिडआव (कौआ) (खासी भाषा
से) -संग्रह एवं भाषांतरण- श्रीमती जीन एस. डखार
कौआ था एक सुंदर पंछी
वर्तमान जैसे बदरूप नहीं
“कौवे ने ईश्वर को धोखा दिया
काले छड़े से वह ढक गया।”
यथा खासी कहता है
कदापि झूठ न कहना
कहीं छोटी आयु में दाँत न गिर पड़े
और कूटे हुए सुपारी खाना पड़े।
अब यहाँ कितनी सूक्षमता से नीति की बात ग्रामीण लोकोक्तियों की तरह
समझायी गयी है कि 'झूठ बोलना पाप है', और साथ ही ये बात भी उभर कर आई कि इस प्रदेश
के लोग सुपारी खाना पसंद करते हैं। ये भी पता चला कि निश्चित रूप से यहाँ सुपारी की
खेती भी होती होगी।
इसमें कोई शक नहीं
कि आर्थिक उदारता की नीति, संचार-प्रसारण के माध्यमों का आधुनिकीकरण और वर्ल्डवाइड
वेब के विकास ने पूर्वोत्तर भारत की अनजानी भूमि और उससे जुड़े लोग एवं संस्कृति को
भारत की मूलधारा से जोड़ने में अहम् भूमिका निभायी है। सरकार की विभिन्न विकास-सम्बन्धी
पहल और विशेष रूप से 'लुक ईस्ट नीति' ने वो आस जगाई है जिसकी सदियों से ज़रुरत थी,
लेकिन साथ ही साथ जाति और स्थान-मूलक भेद-भाव के नए आयाम को भी जन्म दिया है। पूर्वोत्तर
भारत की 'सात बहनों' का प्रदेश मानव-विज्ञान का संग्रहालय है। लगभग २०० छोटी और बड़ी
जन-जातियाँ अपनी-अपनी बोली के साथ इस प्रदेश में निवास करती हैं। केवल असम राज्य में
१९२ भाषाएँ और बोलियाँ, जिनमें से ३१ ग़ैर-भारतीय हैं, बोली जाती हैं। यह इनके बहुभाषी
एवं सांस्कृतिक विविधता का परिचय देता है। साथ ही यह भी बताता है कि चाहे जितने भी
प्रयास किए जाएँ, हर बोली या हर भाषा में लिखे साहित्य को पाठक तभी ग्रहण कर पायेंगे
जब इनका अनुवाद देश की मूलधारा से जुड़ी भाषाओं में किया जायेगा - जैसे, बांग्ला, असमिया,
हिंदी और अंगरेजी। ऐसे भी अंगरेजी नागालैंड की प्रथम भाषा और मणिपुर, मेघालय एवं मिजोरम
की सहायक अतिरिक्त भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। अभिप्राय यह हुआ कि असम और त्रिपुरा
को छोड़कर बाकी के राज्यों में अंग्रेज़ी वहाँ के जन-जीवन से ओतप्रोत जुडी है, और इसी
भाषा में वहाँ का अधिकतर साहित्य (लोकगीत या लोक कथाओं को छोड़कर) भी लिखा जाता है।
निगमानन्द दास की पुस्तक ' Ecology, Myth, and Mystery: Contemporary Poetry in English
from Northeast India (Sarup & Sons, 2007)' में भालचन्द्र नेमाडे कहते हैं कि
भारत में क्षेत्रीय अंग्रेजी कविता का उत्तरोत्तर लोप हो जायेगा जब क्षेत्रीय भाषाओँ
से अंग्रेजी में एक सुसंगठित अनुवाद का कार्यक्रम शुरू हो जायेगा। नेमाडे की सोच ये
है कि क्षेत्रीय भाषाओं के अंग्रेजी रचनाकार एक मूल्य-तटस्थ क्षेत्र में काम करते हैं,
दो संस्कृतियों से उकेर कर बनाया गया एक ऐसा कृत्रिम स्थान जिसमें मौलिक बिम्बों एवं
भावों का विस्तार असंभव है। ऐसी ही धारणा के
शिकार हैं प्रो. एम.के.नायक जो ये मानते हैं कि भारतीय अंग्रेजी-कवि एक
ऐसे वृक्ष की तरह है जिसकी जड़ें तो भारतीय मिट्टी में हैं और पत्ते पश्चिमी हवा में
उड़ रहे हैं। लेकिन मैं इन धारणाओं को केवल आंशिक सहमति ही देता हूँ। ये सच है कि हमारे
कई देशज भाव, अभिव्यक्ति और बिम्ब अंग्रेजी के शब्दों और भावों से शायद उतने मुखर न
हो पाएँ जितना कि अपनी स्वाभाविक बोली में, लेकिन यहीं पर साहित्यकार आलोचक को पीछे
छोड़ जाता है। विशेष कर एक कवि, जो शब्दों की पारिभाषिक परिधि में नहीं रचता, बल्कि
भावों के उर्वर खेत तैयार करता है जिसमें शब्द स्वतः उग आते हैं।
मान कर चलें कि श्रीमान नेमाडे और नायक के मंतव्य ज्ञानोचित हैं, तो
क्या वो प्रयास भी छोड़ दिया जाय जो एक मात्र विकल्प है हमारे साहित्यों, कला और शिल्पों
के आपस में जुड़ने का? यदि पाब्लो नेरूदा, बालज़ाक, शेखोव, टॉलस्टॉय, माईलोज़, मिलन कुंदेरा,जेसप
पानीनी का अनुवाद अंगरेजी में न होता तो क्या होता? अपनी जड़ और दीगर हवा की स्थिति
तो इन्हें भी वही मिली होगी जो पूर्वोत्तर भारत या फिर किसी भी भारतीय अंग्रेज़ी-रचनाकार
के लिए प्रयोज्य होगी। यह कहकर मैं अंग्रेजी भाषा की हिमायत नहीं कर रहा, और न ही हिंदी
के आधिपत्य का प्रसार करने की मेरी कोई मंशा है। मैं केवल यह अनुरोध कर रहा हूँ कि
सह-अस्तित्व और सहभागिता की मिसाल इस देश भारत में ऐसा कुछ न हो जिससे हमारा वैचारिक
विच्छेद होता हो। आलोचना हो, विचार-विमर्श हो, नयी-नयी धारणायें आएँ, हमारे बहुभाषियों
की धार पैनी हो, और हम जिस भाषा में सही उसे पढ़ पाएँ, जी पाएँ। Penguin से प्रकाशित
'The House with a Thousand Novels' की लेखिका आरुणी कश्यप कहती हैं कि भारत की मुख्य-भूमि
के अंग्रेज़ी लेखकों से पूर्वोत्तर भारत के अंग्रेज़ी-लेखकों का स्वर भिन्न है क्यूँकि
उनकी संवेदना की ज़मीन अलग है। पूर्वोत्तर भारत के राज्यों का भारत की मूलधारा की राजनीति
से धारावाहिक टकराव और यहाँ के निवासियों के जीवन की पृथक सोच और मान्यताएँ यहाँ के
साहित्य में मुखर दिखता है।
विभिन्न साहित्यिक वर्गों में 'पूर्वोत्तर भारत के साहित्य'
की चर्चा तभी तो एक अलग अस्मिता के तहत की जा रही है।
मेरी धारणा है कि एक अच्छी संख्या है पूर्वोत्तर भारत में उन बासिन्दों
की भी जो अपने पूर्वजों के साथ उनके क्षेत्र की भाषा भी साथ लाये हैं। बांग्ला और हिन्दी-भाषी
इनमें से मुख्य हैं, लेकिन मैथली और दक्खिनी भाषाओँ के भी कई ऐसे परिवार हैं जो अपने
अपनाए हुए घर की भाषा में पारंगत हैं और अपने पूर्वजों की भाषा का भी अच्छा ज्ञान है।
ऐसे लोगों में हमें उत्साह भरना चाहिए रचनाधर्मिता का ताकि वो अपने पूर्वजों की भाषा
में अपने अपनाए घर की कथा-व्यथा, गीत-कविता, नाटक लिखें। यह भी हर्ष
का विषय होना चाहिए कि हमारे देश में दुभाषियों और त्रिभाषियों की संख्या उत्तरोत्तर
बढ़ती जा रही है। जहाँ प्रमुख भाषाओँ को बोलने वाले दुभाषियों की जनसँख्या लगभग बीस (२०) फ़ीसदी हो चुकी
है, त्रिभाषी लगभग आठ (८) फ़ीसदी हो गए हैं। उधर अल्पसंख्यक भाषा को बोलने वालों में
यही जनसँख्या क्रमशः बढ़कर लगभग चालीस (४०) फ़ीसदी और १० फ़ीसदी हो गयी है।
'एक साहित्यिक की डायरी' में
एक जगह मुक्तिबोध लिखते हैं - '...मुझे अज्ञात से डर लगता है । न मालूम कौन सा अज्ञात
अब मेरा इंतजार कर रहाहै । ... किंतु साथ ही इन विवशताओं से पराजित होने की आवश्यकता नहीं है । ज्ञात से अज्ञात की ओर जाने का कार्यक्रम बना डालो , डरो नहीं ।ज्ञात से अज्ञात की ओर जाने से ही ज्ञान की
विवशताएं टूटती रहेंगी, उसकी सरहदें टूटती रहेंगी। लेकिन जिस दिन से आप केवल ज्ञात
से ज्ञात की ओर जाएंगे, उस दिन आप केवल अपनी ही
कील पर, अपने ही आसपास घूमते रहेंगे।'
‘शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
सत्य केवल एक जो कि
दुःखों का क्रम है ’ ।
(मुक्तिबोध)
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(Mrityunjay Kumar
Singh)
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