Sunday, July 10, 2011

Meghdoot (The Cloud Messenger) - 2

पहुँच अवन्ती, सुन लेना तुम
उदयन की कहानी,
धन - धान्यपूर्ण सद्जनों से शोभित
उज्जयिनी पुरानी.
सुंदरियों के चितवन का
रसपान जो कर पाए,
समझूंगा लोचन से वंचित
दृष्टिहीन तुम आये.
भँवर-नाभि दिखाती चलती
'
निर्विन्ध्या ' की धारा,
प्रणय-निवेदन से मुखरित
ये उज्जयिनी का द्वारा.

वेणी-सी पतली धार लिए
ना हो जाए परित्यक्ता,
बरसा कर जीवन रस अपना
दूर करो इसकी कृशता .


प्रियतम-सा विनयी चाटुकार
हंसों का कल-कूजन पसार,
शिप्रा का मृदु-मधुर समीर
हर लेता रति-ग्लानि के पीर .

वातायन से झूल रहे
सुंदरियों के केश सुगन्धित,
बन्धु-सुलभ स्नेह से नाचें
मोर, करेंगे मन को हुलसित.

मिल जायेगा चंडीश्वर 
महाकाल का मंदिर वहीँ कहीं पर,
नीलकंठ-से श्याम मेघ!
तुम्हें देखेंगे शिव के गण सादर.         

जवा के नव पुष्पों-से रक्तिम
 
सांध्य लालिमा लिए हुए तुम,
ऊँचे पेड़ों के बाँहों पार
भक्तिभाव से झुके हुए तुम.




रुक जाना वहाँ सांध्य काल तक
कर लेना शिव का तुम वंदन,
भींगा-सा गजचर्म ओढ़ाकर
पशुपतिनाथ का कर अभिनन्दन.

होगी पूरी शिव की अभिलाषा
देखेंगी तुम्हे तृप्त भवानी,
मन ही मन सराह कर देंगी
गर्जन की शक्ति और पानी.

घन तिमिर के कारण अन्धकार
राजपथ पर करती विहार,
मिलने को आतुर प्रियतम से
सुन्दरियों की लम्बी कतार.

कनक-कसौटी सी बिजली
हे बन्धु, तनिक छिटकाना तुम,
आलोकित कर पथ उनका
फिर उनके राह आना तुम.







थककर चिर विलास के कारण
अपनी प्रेयसी विद्युत् को लेकर,
सो जाना किसी भवन के छत पर
प्रात-सवेरे चल देना फिर.

रात किसी के साथ बिताकर
जब लौटें प्रियतम अपने घर,
पोछेंगे उन नयनों का जल
जो वंचित थे प्रेम में पागल.

लौट रहा होगा सूरज भी
उषा की बेला में छुपकर,
नलिनी के मुख के हिम-अश्रु
पोछेगा ले किरणों का कर.

राह आना सूरज के
लज्जित है, क्रोधित भी होगा,
प्रणय में बहके उसके मन का
हाव-भाव मिश्रित ही होगा.







गंभीरा के जल में उतरी
देख सलोनी तेरी छाया,
कुमुद-धवल और मीन सरीखे
नदी का चितवन भी हरसाया.

जैसे वसन संभाल रही हो
झुकी हुयी  बेतों की छड़ियाँ,
श्याम-सलिल-चीर हटने से
खुले प्रवाह नितम्ब की लड़ियाँ.

कौन भला छोड़े ऐसे
संपर्क प्रेयसी के तन का,
पछता कर, बड़ी कठिनाई से
दमन करे आग्रह मन का.

उच्छवसित धरती की सोंधी
वास लिए चले शीत हवा,
देवगिरि की ओर चलो,
मादक सिहरन को लिए सखा.

                   



                    देवगिरि में स्थापित
स्कन्द की प्रतिमा पर बरसा,
पुष्परूप बादल बनकर
फूलों से उनको तू नहला.

गरज, कि घाटी गूँज उठे फिर
देवगिरि कि हो विभोर,
श्रुतिसुखद तेरा गर्जन सुन
नाच उठे कार्तिक का मोर.

करके पूजा कार्तिकेय की
पानी लेने जब उतरोगे,
पता है, चम्बल के प्रवाह में
कैसे तुम जो दिखोगे?

ज्यूँ वक्षस्थल पर धरती के
लिपटी इक पतली-सी लड़ी,
उसके बीच गुँथे तुम जैसे
मुक्ताहार में नीलमणि.







दशपुर की सुन्दरियाँ बसतीं
चम्बल के उस पार,
भौरों के गुण से ओत-प्रोत
उनकी चितवन में धार.

चंचल पलकों के घेरे में
चमके पुतलियाँ काली,
गतिशील श्वेत आँखों के अन्दर
मादक-सी मतवाली.

ब्रह्मावर्त को छूकर तुम
कुरुक्षेत्र तक जाना,
कौरव-पांडव के साक्षी इस
युद्धस्थल पर छा जाना.

छिन्न हुए यहाँ राजपुत्र मुख
अर्जुन के तीखे वाणों से,
ज्यूँ कमलों को बेध गिराते
तुम अपनी बौछारों से.






कृष्णाग्रज हलधर बलदेव
पीते जिस सरस्वती का जल,
प्रियवर पयोद, करना सेवन
हो जायेगा स्वच्छ अंतस्तल.


तनिक बढ़ो तुम आगे
तुमको दिख जाएगी गंगा,
जैसे फेन के पंख फैलाए
बैठा श्वेत पतंगा.

शैलराज की तलहट में
बनकर सीढ़ी की कतार,
अभिशप्त सगरपुत्रों को
स्वर्ग ले गयी जिसकी धार.

वक्र भृकुटी लेकर गौरी
ईर्ष्यावश करती रहीं क्लेश,
अपने तरंग हाथों से शिव के
पकड़ लिए गंगा ने केश.





झुक कर नीचे तुम लम्बमान
ऐरावत-सा पी लेना जल,
धुल जायेंगे सारे विषाद
गंगाजल पवित्र, स्वच्छ, निर्मल.

गतिशील स्रोत में पड़ेगी जब
तेरी छाया बड़ी लुभावन होगी,
गंगा-यमुना के संगम-सी
ये छटा बड़ी मनभावन होगी.

कस्तूरी मृग के नाभि गंध से
सुरभित श्वेत हिमालय होगा,
श्रम से थके पथिक का इससे
सुन्दर और क्या आलय होगा?

शिव के श्वेत वृष के सींगों पर
लगे पंक-से काले तुम,
विचरण करना, हिम से सिहरे
इधर-उधर मतवाले तुम.






बहते समीर के झोंके से
जब द्रुम आपस में टकराएँ,
चिंगारी से देवदारू जब
वन में अग्नि फैलाएं ;

चमरी गायों के झबरीले
बालों पर झरे जब अतुल अनल,
तब तुम अपनी बौछारों से
प्रशमित करना ये दावानल.

क्रोधित होकर कभी कहीं
जो शरभ तुम्हें लाँघना चाहें,
तीव्रगति ओले बरसाकर
तितर-बितर कर देना उन्हें.

नगपति की ही किसी शिला पर
अंकित हैं शिव के चरण चिन्ह,
करते हैं निवेदित सिद्ध गण
जिनके निमित्त उपहार भिन्न.


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