मेरे असमर्थ दिनों में ही
लिपटी है सारी स्मृतियाँ तुम्हारी,
फ़र्क सिर्फ इतना है 
कि ना तो मेरे दिन चन्दन थे
और ना ही तुम्हारा स्नेह अजगर;
अनजाने ही उग आया
सबकुछ जैसे मुझपर ।
कुछ जंगली लताबेल-सी
चढ़ आई थी तुम्हारी दृष्टि 
मेरे श्रीहीन तनों पर
राह चलते लोगों के मेल-सी।
व्याकुल, विकल और विकलांग
एक हृदय,
लालसा और लिप्सा से भरा
पर सदय,
ग़रीब और देहाती
अभाव में सिकुड़ा मन 
कुंठाएँ उलीचकर
भर रहा था प्रतिपल 
शहरी चाल-चलन, 
संकोच से आँखें मींचकर 
इधर-उधर करता सपनों कि पिटारी।
मेरे असमर्थ दिनों में ही
लिपटी हैं सारी स्मृतियाँ तुम्हारी। 
समय के वृंत पर 
ना कोई कली, ना पुष्प,
भावनाओं के कुहरे में 
परछाईंयों-सी घटनाएँ शुष्क;
किसी का किसी से कोई तालमेल नहीं,
वृष्टि में छत या, छत पर वृष्टि,
घर में ही बाहर या, बाहर ही घर,
वनस्पतियों से कालिमा कि सृष्टि 
या, अंधियारे का पहन कोई घूमता निकर,
निराश्रित खड़ी धूप को सहारा दे
ऐसी भी कोई बेल नहीं,
किसी का किसी से कोई तालमेल नहीं!
रेज़गारी-से बिखरे 
योजनाओं को लगाना-खिसकाना 
भविष्य  की एक सूरत बनाना,
ऐसी ही क्रियाओं से निखरे 
सुनसानों कि वीरान-वीरान महक में
उड़कर आई थीं  अनुश्रुतियाँ तुम्हारी।
मेरे असमर्थ दिनों में ही 
लिपटी हैं, सारी स्मृतियाँ तुम्हारी।
स्वेद कणों  से लथपथ
दिन-रात जूझता मेहनतकश, 
आँखों से ओझल होते
सपनों को पकड़ने की चेष्टा में,
चल पड़े कई पथ, जीवन रथ;
स्मृतियों के भ्रूण सब मारे गए
जीने के जुए में कुछ हारे गए,
कुछ शहीद हुए संबंधों के चोरबाजार में
तो कुछ खेत आये अन्यत्र ही व्यापार में।
मैं गया, तुम भी गए,
सब कहीं न कहीं खो गए
करोड़ों की जनसँख्या में
एक इकाई संख्या हमारी,
प्रतियोगिता नहीं रही कभी भी 
स्नेह का आभारी,
विडम्बना कहें इसे, या स्थितियों की लाचारी,
मेरे असमर्थ दिनों में ही
लिपटी हैं, सारी स्मृतियाँ तुम्हारी।
                             - मृत्युंजय -
                                जकार्ता
                          २ फ़रवरी, २०११ 
 
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