मैं यक्ष , हुआ शापित जब से
मेरे जीवन का आधार गया,
मेरा घर छूटा, अपने छूटे,
उस प्रियतम को भी हार गया.
कहते हैं भाग्य मनुज का
फूटे जब एक न चलता है,
अपनी ही आँखों के आगे
सब कुछ विपदा में जलता है.
हर ओर दिशाएँ गुमसुम हैं
आवाक से, स्थिर ये द्रुम हैं,
सदियों से हवा भी चली नहीं,
लगता है विपदा टली नहीं.
निश्चेत-सा ये परिवेश खड़ा
सब में लगता आवेश बड़ा,
क्यूँ हम आये इस उपवन में,
तुम से वंचित इस जीवन में?
तनी हुई प्रत्यंचा-सी
आकाश में एक कोलाहल है,
भू पर फैली उत्कंठा में
मिश्रित मारक हालाहल है.
तारों के टिमटिम दीपों पर
व्याकुल पतंग-सा मंडराता,
ये मेरा ही है प्राण प्रिये!
इससे-उससे ठोकर खाता.
मैं विह्वल हूँ, मैं पागल हूँ,
ऐसा कहकर हँसते हैं मूढ़,
कैसे मैं समझाऊँ इनको
अपनी वेदना का विषय गूढ़?
हो करुण रूदन या अट्टहास
मेरे लिए दोनों ही विलास,
एकांत है मेरा और तुम हो,
सब बोल रहे, बस तुम ग़ुम हो.
सपनों की छत पर झूल रही
तेरी छवि जैसे बोल रही,
मैं यहाँ नहीं, मैं वहाँ नहीं,
पर यहीं कहीं, मैं यहीं कहीं.
दिन का उजाला अब न भाता
पुतलियों में कुलबुलाता,
रात ही मेरी सखी है,
साथ मेरे वो जगी है.
दुःख में बिलखकर भी कहाँ
होता किसी का दुःख है कम,
सूखते हैं प्राण अन्दर
और बहते आँख नम.
पुतलियाँ भी सूखकर
हैं शूल-सी जाती अड़ी,
लुप्त होती चेतना की
धूल में लिपटी पड़ी.
तन की गुहा में भावना
करती रुदन अविराम है,
मेरे लिए इस सृष्टि में
लगता नहीं कोई काम है.
हर ओर मेरी खोज का
बस प्राप्त केवल शून्य है,
मेरे लिए तो अब यहाँ
ना पाप है, ना पुण्य है.
एक ऐसा ही दुर्भाग्य लिए
जब यक्ष पड़ा असहाय, निःसंग,
मदमस्त गजों-सा मेघों का
एक दल पावस ऋतु लायी संग.
शीतल बयार के झोंके से
जो वर्षा की आशा आई,
कुम्हलाये, सूखे जंगल में
हरियाली-सी मुस्काई .
कौन नहीं चाहेगा अपनी
प्रिय का संग ऋतु सावन में,
मैं ही केवल एक अभागा
भटक रहा व्याकुल वन में.
यक्ष के मन में भी उस क्षण
आशा की एक कली खिली,
लगा उसे अपने प्रियतम से
मिलने को एक राह मिली.
करने लगे मनुहार मेघ का
विरह से कातर मुख खोले,
गया पसीज ह्रदय मेघों का
बरस के दुःख से वो बोले.
"स्वीकार हमें ऐ बन्धु तेरा
करुणा से भरा निवेदन है,
जो कुछ भी हो सकता मुझसे
करने को तत्पर ये मन है!"
लेकिन नभ का ये यायावर
क्या खोज प्रिया को पायेगा?
विरह में जलते जातक का
सन्देश उसे पहुँचायेगा?
वायु का संचारण इसको
यहाँ-वहाँ ले जाता है,
तब ही तो बादल इस जग में
आवारा कहलाता है.
"लेशमात्र भी कलुषित ना हो
चित्त तेरा, ऐ मेरे सखा!
लगता है मेरे प्रभुत्व का
रस तूने अभी नहीं चखा!"
बिजली की बाहें थामे
जब गर्जन की उन मेघों ने,
भाप-सी उड़ गयी आशंका
मित्रों के भाव के वेगों में.
पुलक भार से काँप उठीं
विरह से जर्जर कोशाएँ,
मित्र वही और सखा वही
जो बुरे समय में काम आये.
हे पुष्कर कुल के कामरूप!
कर दो ये याचना पूरी,
खेद नहीं होगा कतिपय
यदि रह भी जाए अधूरी.
जाना है तुमको अलका
है यक्षों की जो नगरी,
जगमग जिनके महलों पर
शिवभालचंद्र की गगरी.
तुम्हें देखकर वहाँ विरहिनें
पुलकित हो नाचेंगी,
आशा के धागों में लटकी
मेरी प्रिय से कहेंगी.
विरह से जर्जर कोशाएँ,
मित्र वही और सखा वही
जो बुरे समय में काम आये.
हे पुष्कर कुल के कामरूप!
कर दो ये याचना पूरी,
खेद नहीं होगा कतिपय
यदि रह भी जाए अधूरी.
जाना है तुमको अलका
है यक्षों की जो नगरी,
जगमग जिनके महलों पर
शिवभालचंद्र की गगरी.
तुम्हें देखकर वहाँ विरहिनें
पुलकित हो नाचेंगी,
आशा के धागों में लटकी
मेरी प्रिय से कहेंगी.
"देख सखी! मृदु-मंथर गति से
डोल रहा अनुकूल पवन,
शायद ले तेरा संदेशा
डोल रहा अनुकूल पवन,
शायद ले तेरा संदेशा
आया है ये मेघ सघन.”
रुको तनिक मैं राह बता दूं
जहाँ से तुमको जाना है,
ग्रीष्म-विकल वनस्पतियों
को भी ठंढक पहुँचाना है .
रुको तनिक मैं राह बता दूं
जहाँ से तुमको जाना है,
ग्रीष्म-विकल वनस्पतियों
को भी ठंढक पहुँचाना है .
थक जाओ अनिवार गति से
तो सुस्ता लेना शिखरों पर,
सूखे जो तन-मन तो रखना
झरनों का जल अधरों पर.
सोंधी-सी मालव भूमि पर
थोड़ा ही सही बरसना,
आम्रकूट वन में फैले
अग्नि का शमन भी करना.
तो सुस्ता लेना शिखरों पर,
सूखे जो तन-मन तो रखना
झरनों का जल अधरों पर.
सोंधी-सी मालव भूमि पर
थोड़ा ही सही बरसना,
आम्रकूट वन में फैले
अग्नि का शमन भी करना.
भली-भाँति छाये छोरों पर
आम के जंगल, पके, निराले,
बीच शिखर पर बैठोगे तुम
चमकीले बालों-से काले.
श्याम वर्ण तुम पुष्ट-पीन से
धरती के फैले स्तन पर,
देखेंगे यह दृश्य मनोरम
देव-देवियाँ रस ले-लेकर .
थके जो तुम, ठहराएगा वह
अपनी चोटियों पर साभार,
अति अकिंचन भी करता है
उपकारी का सद्सत्कार .
पी लेना रेवा का पानी
विन्ध्य के सींचे जो पठार,
भरकर, गौरवमय होकर
गर्जन करना दो-चार बार
काँप कर डर से बालायें जब
लिपट जाएँ अपने सहचर से,
अति कृतज्ञ प्रेमी सब तुमको
भेजेंगे आशीष जी भर के.
सजल नयन मोरों का स्वागत
और केतकी के ये उपवन,
पार किये जाना जामुन से
लदे हुए दशरण के ये वन.
विदिशा में ले अंगड़ाई
ठहर बेतवा नदी के तीरे,
चपल, तरंगमय जल है उसका
पी लेना तुम धीरे-धीरे .
किसे ज्ञात है, कब हो जाए
इस चपला की अधोगति,
मर्त्यलोक में मिला है क्या
अमरत्व किसी को, कहीं कभी?
आम के जंगल, पके, निराले,
बीच शिखर पर बैठोगे तुम
चमकीले बालों-से काले.
श्याम वर्ण तुम पुष्ट-पीन से
धरती के फैले स्तन पर,
देखेंगे यह दृश्य मनोरम
देव-देवियाँ रस ले-लेकर .
थके जो तुम, ठहराएगा वह
अपनी चोटियों पर साभार,
अति अकिंचन भी करता है
उपकारी का सद्सत्कार .
पी लेना रेवा का पानी
विन्ध्य के सींचे जो पठार,
भरकर, गौरवमय होकर
गर्जन करना दो-चार बार
काँप कर डर से बालायें जब
लिपट जाएँ अपने सहचर से,
अति कृतज्ञ प्रेमी सब तुमको
भेजेंगे आशीष जी भर के.
सजल नयन मोरों का स्वागत
और केतकी के ये उपवन,
पार किये जाना जामुन से
लदे हुए दशरण के ये वन.
विदिशा में ले अंगड़ाई
ठहर बेतवा नदी के तीरे,
चपल, तरंगमय जल है उसका
पी लेना तुम धीरे-धीरे .
किसे ज्ञात है, कब हो जाए
इस चपला की अधोगति,
मर्त्यलोक में मिला है क्या
अमरत्व किसी को, कहीं कभी?
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