Sunday, July 10, 2011

Meghdoot (The Cloud Messenger) - 3

निकट पहुँच तुम भी करना
श्री चरणों का मन से दर्शन,
किन्नरियों के गीतों के संग
मिल करना थोडा गर्जन.

परशुराम के क्रौंच द्वार से
उत्तर को बढ़ जाना,
थोडा ऊपर उठ , कैलाश के
शिखरों पर चढ़ जाना.

दर्पण का है काम लेतीं
जिससे देवों की बालाएँ,
नीले नभ में उज्जवल अपनी
शिखरों को ये फैलाए .

हाथी-दाँत के टुकड़ों जैसा
गोरा ये कैलाश,
तुम चिकने, काले काजल-से
आवोगे  जब पास .






दिखोगे जैसे नीली चादर
गोरे बलदेव के कन्धों पर,
बड़े सलोने लगोगे प्रियवर
धवल गिरि के बंधों  पर!

क्रीडा-पर्वत ये उमानाथ का
जिनके हाथों को गहकर,
आश्वस्त विचरतीं पार्वती
मणिमय शैल शिखर पर.

मत बरसाना उनपर तुम
रखना स्तंभित जल की खान,
भक्ति-भाव से झुक बन जाना
उनके पैरों का सोपान.

कैलाश की गोदी में बैठी
देख, है शोभित अलका नगरी!
जिसके भवनों पर झूले
मोती के झालर-सी बदरी.





हठी, छबीली तरुणियों की
चपल, चमक तेरी बिजली-सी,
रुचिर चित्र से जगमग घर पर
सतरंगी छाया तितली-सी.

कमल हाथ में, कुंद अलकों पर,
कुरवक गुँथे बालों में,
सौरभमय शिरीष की बाली
लटक रही कानों में.

सरों में कमलों को घेरे हैं
हँसों की जो पातें,
जगमग-पंख मयूर, नित्य
करते आपस में बातें.

खिले-अधखिले फूलों पर
भ्रमर मुखर मंडराएं,
नित्य ज्योत्सना के आनंद से
निशा का तम कट जाए.








अन्यथा नहीं दिखते अश्रु
यक्षों के आँखों में प्रियवर!
आजन्म युवा और यौवन का
मिला हुआ है उनको वर.

श्वेत-शुभ्र मणिमय महलों पर
प्रतिबिम्बित तारों की जगमग,
कल्पवृक्ष की मदिरा पीते
चुनी हुयी सहचरियों के संग.


गंगा के शीतल वायु से
अलका की सुंदरियाँ पुलकित,
उन्हें देख मुग्ध सुरगण का
मन भी रहता हरदम प्लावित.

रतिलीला को आतुर प्रियतम
वसन खींचते गाँठ खोलकर,
सहन नहीं होता लज्जा से
रत्नों से आलोकित जब घर.

तब कातर संकोच के मारे
सुंदरियाँ वो, वसन सम्हारे,
फेंक मारतीं चूर्ण मुष्टिभर
रत्नों से उगते प्रकाश पर.

पवन के संग जाकर उनके घर
फैल दीवारों के चित्रों पर,
जलतूली से उन्हें मिटा तुम
निकल भागते धूम रूप धर.

हट जाता जब तेरा घर
मध्य रात्रि में खिल उठता है,
चाँद भी, ज्योति की किरणों से
टपकाने पानी लगता है.

चंद्रकांत मणियों से टपके
बूँद-बूँद जो शीतल पानी,
वही मिटाता कामिनियों के
रति से थके देह की ग्लानि.


रात प्रेमियों से मिलने जब
प्रेयसियाँ झटपट चलती हैं,
कनक-कमल के कर्ण फूल
छिदी-भिदी, सब गिर पड़ती हैं.

खिसक-खिसक पड़ते हैं पथ पर
मंदार पुष्पदल इधर-उधर,
स्तन से दब टूटे हारों के
मोती गिरते बिखर-बिखर.

इसी मनोरम नगरी में
राज प्रासादों से हटकर,
सतरंगी तोरण से जगमग
दिखेगा तुमको मेरा घर.

निकट वहीँ लहराता होगा
मंदार तरु वो बड़ा दुलारा,
पौध वो पालित निज शिशु जैसा
प्रियतम के आँखों का तारा.

मरकत शिला की सीढ़ी वाली
स्वर्ण-कमलों से भरा सरोवर,
हँसों के दल से मुखरित ये
मेरे घर का मानसरोवर.

इसी सरोवर के तीर पर
क्रीड़ा शैल अपनी इक छोटी,
इन्द्रनील मणियों से जगमग
अपनी ये कृत्रिम-सी चोटी.

देख कौंधती बिजली को
तेरी गोद में लेता करवट,
नाच उठा है विह्वल होकर
मेरी यादों में वो पर्वत.

याद रहें ये चिन्ह मित्रवर!
पहचान हैं मेरे घर के,
द्वार पर अंकित शंख-पद्म
निरखेंगे तुमको जी भरके.



जैसे सूर्य बिना खो देता
कमल है अपनी शोभा,
वैसे ही मेरे भी घर में
मातम छाया होगा.


क्रीड़ा शैल के सुभग शिखर पर
बैठ तरुण गज-से तुम सुन्दर,
दृष्टि फेंकना जुगनू  जैसी
मेरे घर के अन्दर.

बहुतेरी सखियों के बीच
जो दिखता हो अकेले,
जैसे सहचर के अभाव में
चकई भी कम बोले.

तन्वी, उसके होंठ रसीले,
जैसे पके विम्ब के फल,
चौंक गयी हिरनी-सी आँखें
याद में छटपट वो बेकल.






झुकी हुयी स्तन के भार से
गहरी उसकी नाभि,
सबसे पतली कमर हो जिसकी
होगी तेरी भाभी!

गरम-गरम साँसों से पड़ गए
फीके होंठ निराले उसके,
रोकर सूज गयी आँखों के
कोर भी पड़ गए काले उसके.

रूखे बाल लटक कर मुख को
छुपा कर रख देते हैं किंचित,
जैसे फिर-फिर छुपा चाँद को
तुम करते ज्योति से वंचित.

रख कर गाल हथेली पर वो
पूछ रही होगी मैना से ,
"
उनकी याद में झरते हैं क्या
तेरे भी आँसू नैना से?"






या फिर ले नैवेद्य हाथ में
सजा देव-देवियों की थाली,
आँक विरह से खिन्न मेरा तन
दैन्य कल्पना में वो व्याली.

मलिन वसन ले गोद में वीणा,
गीत मेरे वो गाती होगी,
आँसू से भींगे तारों को
कसती और दुलराती होगी.

भूल स्वरों का समीकरण वो
भजन से गीत मिलाती होगी,
'
भैरव' का आरोह लिए वो
राग 'सोहनी' गाती होगी.

या देहरी पर बैठ, फूल से
विरह की अवधि के दिन गिनती,
बीते दिन के सुख-सपनों से
टुकड़े वो आमोद के चुनती.






दिन तो बीत ही जाता होगा
इधर-उधर की बातों में,
किन्तु नहीं सह पाती होगी
पीर बढ़े जब रातों में.

मीत मेरे मेघ! ज़रा तुम
बैठ झरोखे पर ये कहना,
"
संदेशा मैं लाया तेरा
दुःख हल्का करने को बहना!"

क्षण की तरह बिता देती थी
सारी रात जो रति रंग में,
वही विरह में सिकुड़-सिमट कर
जाग रही, रातों के संग में.


प्राची से छन वातायन में
पड़ती चाँद की शीतल किरणें,
करती होंगी उसे विभोर
अभी भी जाकर उसके घर में.

                 



ढँक लेती होगी आँखों को
भारी-भारी पलकों से,
सहन नहीं कर पाती होगी
जब ज्वाला-सी किरणों को.

ना ही जाग रही, ना सोती,
निमीलित-नयना मेरी प्रिया,
जैसे बदली छाये दिन ने
कमलों का है हाल किया.

सपनों में मिलने की आस में
सोना चाह रही होगी,
आँसू के अविरल प्रवाह से
रह-रह जाग रही होगी.

याद है उसने बाँध लिया था
चोटी बालों की इकहरी,
जिसे संवारूँगा मैं जा कर
श्राप-अवधि जब होगी पूरी.






बिन आभूषण, अतिशय दुर्बल,
तन में अब क्या जीवन होगा,
मित्र, तेरा ये भावुक मन भी
करुणा से भर कर रो देगा.

बिन मदिरा के सुप्त भृकुटी
ने सारी चंचलता खोई,
स्पंदन वो तेरा पाकर
शायद जागे खोई-खोई I

तेरे आने की आहट से
फड़केगा बायाँ दृग उसका,
जैसे मछली की हलचल से
पानी में है कमल थिरकता.

यदि लगे वो निद्रासुख में
लीन है मेरी प्यारी,
विमुख कर, प्रतीक्षा करना,
आएगी तेरी बारी!





सपने में मुझसे मिल मुझको
आलिंगन में भर के,
कहती होगी, हे प्रियतम!
मुझे मिलन के सुख से भर दे!

ऐसे में उसके तन पर
पड़ने देना शीतल फुहार,
स्वयं ही खुल जाएँगी पलकें
लगेगी जब ठंढी बयार.

देख, कौंध जाए बिजली
आवेशित हो तेरा ह्रदय,
मृदु-मधुर गर्जन कर कहना
"
देवी, मत करना तुम भय!"

"मैं हूँ मेघ, देता पथिकों को
मंद-मधुर सी शीतलता,
ह्रदय में रख, संभाल के लाया
संदेशा तेरे पति का!"






सत्कार किया था पवन-पुत्र का
ज्यूँ सीता ने होकर उन्मुख,
वैसे ही सुनकर संदेशा
ताकेगी वो तेरा भी मुख.

जैसे ओस की बूँदों पर
हर्ष से खिल उठती हैं किरणें,
वैसे ही उसके मुख से
फूटेंगे आलोक के झरने.
सुनना कुशल-क्षेम अपनों का
किसी सखा के मुख से,
तनिक ही कम होता ये
साक्षात् मिलन के सुख से.

लाल किसलय वाले अशोक के
पेड़ों पर से झुककर,
मौलसिरी की छाया में
कहना थोडा रूककर;







"सकुशल है तेरा सहचर
रामगिरी के जंगल में,
विरह विपत्ति में पलता
उसका मन तेरे मंगल में!"

"मिलने की आकुलता किसमें
अधिक है, किसमें कम है,
क्षमा करो देवी!
पर ये निर्णय बड़ा विषम है."

"आहट सुनता तेरे दुःख की
चाहे जितना हो थका हुआ ,
निरुपाय पड़ा, वो दूर बहुत,
विधि के चक्रों में फँसा हुआ I "

"खोज रहा वो रूप तुम्हारा
लता में, कोमल गुल्मों में,
चाँद के उगते दर्पण पर,
चकित हिरन के नयनों में I "








"मोर के पंखों में दिखते हैं
उसको तेरे केश-कलाप,
सरिता की लहरों में दिखता
तेरे ही चितवन की छाप I  "

"रुष्ट होना, लेकिन मुझको
इतना  तो कहना होगा,
तेरे रूप के धन से इनका
क्या कोई तुलना होगा?"

"प्रणय में रूठी छवि तेरी
आँक सलेटी पत्थर पर,
तुझे मनाने हेतु दिखाता
स्वयं को गिरता पैरों पर I "

"उमड़ आये इतने में आँसू
लुप्त हो दृष्टि की क्षमता ,
किसी प्रकार तुमसे मिलना
विधि को सहन नहीं होता I "






बहुत दिनों के बाद कदाचित
यदि सपनों  में मिल जाऊँ,
गाढ़ा आलिंगन भरने  को
शून्य में बाहें फैलाऊँ I


दैन्य मेरी इस हालत पर
देव-देवियाँ भी रोते हैं,
मोती-से अश्रु आँखों के
पत्तों पर टपका देते हैं I

देवदार का सौरभ लेकर,
और तुम्हारे तन को छूकर,
उत्तर से जब आये हवा
वक्ष से अपने उन्हें लगा;

यही मनाया करता हरदम,
काश, रात हो जाती छोटी,
और तनिक जो दिन तपता कम
सहने योग्य व्यथा तो होती!





लेकिन सुनाता कौन यहाँ है
विरह में जलते जातक की,
व्यर्थ ही जाती है प्रार्थना
शरणहीन एक याचक की I

फिर भी गणित समझ कर विधि का
समझाता अपने मन को,
किसको सुख ये मिला है अविरल,
दुःख अविरल भी मिला है किसको?

काल की गति के पहिए जैसे
नीचे-ऊपर आते-जाते,
सुख-दुःख तो अपने जीवन में
बरसों के हैं पलते नाते I

चार महीने बाद, विष्णु उठ
शय्या जब छोड़ेंगे,
श्राप-अवधि के दिन मेरे भी
तब ही पूरे होंगे I






फिर तो शरत  के चाँदों वाली
रातों में तुमसे मिलकर,
विरह-काल के दुःख की बातें
बाँटेंगे हम मिलजुल कर I

कहना, कि मैं कुशल हूँ वन में
हे घने नयनों वाली!
विश्वास अटल रखना मुझपर
मैं आऊँगा निश्चित आली!

व्यर्थ ही कहते हैं कि जग में
प्रेम विरह में मर जाता,
मुझे तो लगता है अभाव में
दिन-दूना ये बढ़ जाता I

प्रबल शोक में डूबे मन को
देकर तुम आश्वासन,
लौट यहीं फिर आना, बन
उसके सन्देश का वाहन I






बन्धु मेरे, ये काम मेरा
क्या पूरा कर पाओगे?
पता है, तुम सद्जन, याचक की
माँग ठुकराओगे I

ग्रीष्म-विकल तुमसे पाते हैं
शीतलता हर प्राणी,
नहीं माँगने पर भी देते
चातक को तुम पानी I

योग्य तुम्हारे काम नहीं ये
फिर भी तुम्हें बतलाया,
क्षमा करो, विरही मन को
अपराध समझ ना आया I
अपनी प्रेयसी से क्षण भर भी
हो ना विछोह तुम्हारा,
तेरे जल से मिले जगत को
अमृत की चिर धारा I


कभी हो ऐसा कि तू
झंझा बनकर मंडराए,
जल से भरे दयालु मन का
जल सूखने पाए I
रामगिरि से झट अलका तक
मेघ पहुँच कर आया,
और यक्ष की प्रियतमा को
उसका सन्देश सुनाया I
सुनकर करुण कथा यक्ष की
द्रवित कुबेर का मन भर आया,
आजीवन सुख का वर देकर      
यक्ष-यक्षिणी को घर लाया I