Monday, November 7, 2016

कविता


उस एक दिन
बड़ी कच्ची और लचीली
उम्र में
तुम्हारी छुवन की तरह
आयी थी कविता
मेरी खोज में।
पता नहीं कहाँ से -
उड़ते हुए पतंग से जुड़े
कटे हुई धागे के संग
ये कहने
कि पतंग नहीं कटती,
कटते हैं बस धागे,
ये बात है तब की
जब हम
पतंग लूटने भागे।
साँय-साँय
भाग रही हवा जो मेरे संग,
उसी में लिपटा निःशब्द,
सन्नाटा या शून्य
की तरह लिपट गयी थी कविता
मेरे उस चेहरे को टटोलते
जो मेरा था ही नहीं
जैसे मस्त
तिरते हुए पतंग से लगा
एक कटा हुआ धागा
जो किसी का नहीं होता।
मैं अबोला, मैं अवाक्
आँख से अँधा
हाथों से शून्य टटोलता
और मन से मूल्य
कि तभी
कोई छू गया देव-तुल्य,
मेरी आत्मा काँपी
एक अनजाने डर से
शरीर तपने लगा
उस छुवन के ज्वर से
और मैं बड़बड़ाया -
कुछ गूढ़
किन्तु निरा बकवास
या कुछ ऐसा विशुद्ध ज्ञान
उस जीव का
जो कुछ नहीं जानता
कुछ नहीं पहचानता।
एक स्वर्ग जैसे खुल गया
इन्द्रियाँ सब गल गईं
नक्षत्र, काँपते वनस्पति, तारे
छिदे-भिदे सारे
छलनी-से छींटते
कुछ आग, कुछ पानी
कुछ बादल,
कुछ पुष्प-दल,
लोटती रात पर
जुगनुओं-सा चिपका उजाला
सब उसकी
माँसल भुजाओं में सिमटने लगे।
मैं जैसे एक अतिसूक्ष्म जीव
रहस्य की छाया
अजीव बन तैरता
सजीव एक माया
नक्षत्रों पर तनी
आकाशगंगा में
धुएँ-सा टूटा
हवा पर बिखरा मेरा ह्रदय
एक प्रेम-कथा
सुनाता है
सारे ब्रह्मांड को।

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