अब सोना
एक अदृश्य अँधेरे में खोना है,
एक अदृश्य अँधेरे में खोना है,
बेतरतीब सपनों पर
अठखेलियों में मग्न इच्छाओं
और उनका गला घोंटने को आमादा
जीने की सीमाओं
पर सर रख कर रोना है।
अब सोना एक अदृश्य अँधेरे में
खोना है।
जागो,
नहीं तो धकेल देगी ये भीड़
सपनों को भी कारागार में
या बेच देगी तुम्हारी साँसें ही
तुम्हें व्यापार में;
इसलिए जागो!
जागो,
क्यूँकि यहीं, कई
प्रजन्मों को तुम्हारे रहना है,
तुम्हारे सपनों के मकबरे पर
दीया तो जलना है!
जागो,
क्यूँकि इन प्रजन्मों को वो क़िस्सा बताना है,
जो आँच हमें खा गई
उस आंच से बचाना है।
जागो,
क्यूँकि जयद्रथ अब मर चुका है
किन्तु सूरज अभी डूबा नहीं है;
अभी कुछ और युद्ध बाकी है।
जागो,
क्यूँकि नीतियों के कई
रिसते घाव अभी भरने हैं,
रीते हृदय में भाव अभी भरने हैं।
ऐसे भी
युद्धस्थल में सोना
मृत्यु को निमंत्रण है,
बेवज़ह कारणों पर किया
आमरण अनशन है।
जागो,
नहीं तो फिर पछताओगे
अभिमन्यु की दशा पर,
संतानों को लील गई
इस परिस्थिति बेहया पर।
कृष्ण माथा टेक कर बैठे हुए हैं
काल के अनुचर यहाँ ऐंठे हुए हैं ;
छोड़ कर एक आहत साँझ
दिन भाग गया है,
रात भी ठिठकी हुयी है।
सब अपेक्षा में हैं तुम्हारे जागने के,
जुलूस,नारे, विज्ञापन, प्रचार,
सिमटते हाट, चढ़ते बाज़ार,
अनाचार, अतिचार,
सब अपेक्षा में हैं तुम्हारे जागने के,
अब नहीं हैं कोई कारण तुम्हारे भागने के।
(मृत्युंजय)
१७.०७.२०१३
कोलकाता
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