Tuesday, July 8, 2014

रात कचोटती है


फिर आकाश ने
छोड़ रखा है चाँद को
टहलता हुआ,
जैसे एक मुखबिर, एक जासूस
रात कहाँ - कहाँ
कचोटती है
करके महसूस
वो दिन को बतायेगा.
फिर भरे जायेंगे
कुछ शरीर जेल में
कल
समय
तारीख बन कर
वो फैसला सुनायेगा
जो कभी भी
उनके हक़ में नहीं होगा
जिन्हें रात कचोटती है.
मरी हुई शक्लें
बुझी हुयी यादें
सुलगते सवाल
कुछ ना कर पाने का मलाल,
पटक कर चला जाता है
परेशानहाल, सांझ का कलाल
रात के ओसारे पर.
सम्बन्धी होने के नाते
रोते-बिसूरते
कुछ लोग
रहते हैं तब तक
जब तक
उन्हें ये समझ नहीं आ जाता
कि
वो मुर्दा अगोर रहे हैं.
पर दोष तब तक
चढ़ चुका होता है
उनकी आत्मा पर
और रात
भाँप लेती है
उन सबका मर्म
जिनका लहू
अभी भी है गर्म.
कल ये सब
फटकारे जायेंगे
दिन में,
आँखें जिनकी लाल हैं
रोने से,
अपने सम्बन्धियों को खोने से.
इन सब का हिसाब होगा;
फिर गणित
गिनेगा
अंकों का सिलसिला
कितने फीसदी, कौन सी जाति
कौन प्रदेश, कौन सी प्रजाति
सुवर्णी, कुवर्णी या हरिजन,
दलित-मलित, जोलहा
अहमदिया या किरिस्तान,
खान, पठान, अंसारी
सबकी आएगी बारी,
पगड़ी वाले सिख
या कटे केश का मोना
सबको पड़ेगा रोना,
क्यूंकि
इनमें से सब थे
कल रात मुर्दा अगोरते
सबकी आँखें हैं लाल.
(Mrityunjay)
8 july, 2014

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