Friday, March 7, 2014

निर्वाचन- वसंत


बुरा न मानो होली है!

निर्वाचन की घोषणा ने जैसे वसंत में और उष्मा भर दी। होली के लिये तैयार नेता और उनके चाहने वाले सब आपस में पहले दिन ही भिड़ गये। तो क्या हुआ, यदि रंगों की जगह पत्थर, प्लास्टिक कुर्सियाँ, झाड़ू और पता नहीं कैसे-कैसे लोक-परंपरागत टुकड़े फेंके गये एक-दूसरे पर। लग रहा था कोई फिल्मी या टीवी चैनल का आकर्षक प्रचार हो जहां एक ही परिवार के लोगों के बीच एक दीवार खींच गयी थी और अब उस दीवार को लोग हटाने में लगे थे। याद आया?…."भैया ये दीवार टूटती क्यूं नहीं?…." थोड़ा अपनी दृष्टि कैनवस को और बड़ा कर के देखा तो और भी महान चित्र सामने उभर कर आया। मुझे लग रहा था जैसे पार्श्व में गाना बज रहा था: "जै-जै शिवशंकर, कांटा लगे ना कंकड़, कि  प्याला तेरे नाम का पिया।…" और सामने उसी मिजाज़ और ताल पर चल रहा था होली का हुड़दंग। बिल्कुल सही!….अफ़रा-तफ़री, मारा-मारी, पर कहीं भी हिंसक विद्वेष का कोई चिन्ह नहीं। टीवी चैनल वालों का कैमरा सबूत था और नाच-नाच, घूम-घूम तस्वीर-ए-हाल दिखा रहा था; कोई लहूलुहान सड़क पर नहीं पड़ा, किसी को कोई एम्बुलेंस में नहीं खींच रहा। वॉटर-कैनन (जल-कमान) आया तो और भी वाह-वाह मच गयी। दो-चार इस मोटी पिचकारी कि थपेड में आ कर लुढ़के ही थे कि छलाँग लगाकर एक ने उस भारी -भरकम पिचकारी को भी थाम लिया। वर्दी धारी भी हो गये पानी-पानी।

सारे देश में तहलका मच गया कि ये कैसे संस्कारहीन लोग हैं। होली के पहले ही पानी, रंग और धींगा-मुश्ती में जुट गये। अरे, पहले थोड़ी 'जोगीरा' होनी थी लोमहर्षक फिकरों के साथ, जम कर मन कि भड़ास निकालनी थी उन देवियों के प्रति जिनको फैंटसी में लिये हम साल में बस एक ही दिन तो मुँह खोल पाते हैं- जैसे "… पापिया जब है नाम तेरा, खूब पाप तुम किया करो, रात को खेलो खूब कबड्डी, दिन में जाप किया करो…. हो जोगीरा सररर... " या फिर उन महानुभावों के प्रति जो अक्सर अपने दर्शन से ही हमें टीस-सी मार जाते हैं, मसलन - "… आलू ना प्याज, खाली-खाली ब्याज, मुँह तोप के मूल खा गये, पण्डित जी महराज ….हो जोगीरा सररर .…" 
त्योहार, नशा और लुच्चापना - यदि यही है हमारे निर्वाचन का स्वरूप तो फिर हमारे गाँव की कीचड़-कादो वाली होली को क्यूं कोसते हैं लोग??

(मृत्युंजय)
५ मार्च, २०१४ 
कोलकाता 

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