Friday, November 29, 2013

मेरी छाती पर उगी फसल



अच्छा हुआ
मेरी छाती पर उगी फसल
तुम काट ले गए!
अब वो
ऊँचे दाम पर
किसी मंडी में बिकें 
या
साहित्य में पिरोये जाएँ,
किसी नाले से बीनकर
कोई पेट पाले
या
हो जाएँ
गोदामों में पलते
चूहों के हवाले,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
पर इन खूँटियों का
मैं क्या करूँ दोस्त?
जो ना तो
मुझे
बंजर रहने देती हैं
और ना ही
देती हैं
किसी नई फसल का आभास?
खूँटियों से पटी
मेरी छाती
जैसे ठूँठे वृक्ष
की जड़ों में
दीमकों की बामी,
सबको पता है
क्या होने वाला है
दृश्य आगामी।

(मृत्युंजय)
२४.११.२०१३

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