तुम्हारे
उरोजों
की मांसल खाड़ी में
हर मशक्क़त
से उपजा
पसीना
इत्र में नहाया
एक फूल बन जाता है
और तुम्हारी
साँस की गरमी में
सराबोर
हर बबूल
एक मुलायम साया,
बस ज़ख्म
नहीं भरते
तो उस मासूम के
जिसका बाप
सरहद से लौट
घर नहीं आया
और माँ
अपनी आँखों में
सवाल टाँगे
सुन रही है
ज़माने भर की तक़रीर
जिसमें
कोई नहीं है ज़िक्र
उसके राँझे का
और ना ही कहीं
उसकी छाती में
बिलखती हीर का
तुम्हारे गुदाज़
इरादों से
पसीने की बदबू
भले ही मिट जाए
उसका खारापन
फिर भी नहीं जाता
लुटी हुई इज़्ज़त
और
देह से निकली जान
का कोई नहीं है नाता
तुम्हारे उस
मांसल आगोश से
जिसमें
सूरज का तेज
बिल्ली के पँजों में फँसा
बस खरोंचता है
चेहरा
जलाता है
सीना।
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