Monday, November 6, 2017

बिल्ली के पँजों में फँसा सूरज

तुम्हारे
उरोजों 
की मांसल खाड़ी में 
हर मशक्क़त 
से उपजा 
पसीना 
इत्र में नहाया 
एक फूल बन जाता है 
और तुम्हारी 
साँस की गरमी में 
सराबोर 
हर बबूल 
एक मुलायम साया, 
बस ज़ख्म 
नहीं भरते 
तो उस मासूम के 
जिसका बाप
सरहद से लौट 
घर नहीं आया 
और माँ 
अपनी आँखों में 
सवाल टाँगे 
सुन रही है 
ज़माने भर की तक़रीर 
जिसमें 
कोई नहीं है ज़िक्र
उसके राँझे का 
और ना ही कहीं 
उसकी छाती में 
बिलखती हीर का
तुम्हारे गुदाज़ 
इरादों से 
पसीने की बदबू 
भले ही मिट जाए 
उसका खारापन 
फिर भी नहीं जाता
लुटी हुई इज़्ज़त 
और 
देह से निकली जान 
का कोई नहीं है नाता 
तुम्हारे उस 
मांसल आगोश से 
जिसमें 
सूरज का तेज 
बिल्ली के पँजों में फँसा
बस खरोंचता है
चेहरा
जलाता है
सीना।

No comments:

Post a Comment