Monday, November 6, 2017

बस छाया ही छाया


तुमने देखी ही नहीं वो निग़ाहें
आंसुओं में तैरती पुतलियों की आहें
मजबूर, बे-आवाज़ वो सिसकियाँ
जो फूट पड़ती हैं गाहे-ब-गाहे
कभी किसी फाँके में पड़े घर से
तो कभी लाशों से अंटे तलघर से
कभी हुक़्मरानों के रानों में दबी
तड़फड़ाते कबूतरी के सर
तो कभी अजगरों के
जबड़े में 
टूटते लाचार सपनों की हड्डियाँ
तुम्हें क्या,
तुम खेलो, मेरी छाती पर कबड्डीयाँ।
जब भर जाएगा मन
होकर पस्त कराहेंगी जब मांसपेशियाँ
तब क्षमा की मुद्रा में खड़े कहना -
"अब मुझे आराम चाहिए!
बहुत काम किया,
आगे बढ़ते देश के क़दमों को
थोड़ा विश्राम चाहिए!"
और हम भी
हमेशा की तरह
मढ़ कर सारा दोष अपने नसीब पर
डालेंगे मिट्टी 
अपनी-अपनी आशाओं के क़ब्र पर
इंतज़ार में उस फफूँद-मसीहा के
जो 
सोख कर, चबा कर 
हमारे सामर्थ्य की जमा-पूँजी
सूखी संठियाँ सौंप देता है
हमारे बच्चों के हाथों में
जिसमें पहना कर कोई झंडा
करते वो वाग-वितण्डा,
देकर हमीं को गाली
बन कर खड़ा सवाली
बेवड़ा, हमारा बेटा
(या पड़ोस की बेटी)
नथुने फुलाए मरखंड
एक सांढ़-सा टूट कर हम पर
दरके विश्वास में
भर जाते हैं घृणा का दहन
और नहीं होता सहन।

तुमने सुनी ही नहीं वो कराहें
नींद को काटती दंराती-सी 
चुभती हुई वो बाहें
जो चाहे प्रेम से जकड़ ले
या तिरस्कार से झटक दे
देती है हमारा अंतर नोंच
बस खरोंच ही खरोंच।
किसान बने या व्यापारी
विज्ञानी या साहित्यकार
या शायद दार्शनिक,
अफ़लातून, निर्विकार
सबके गले पर झूलता है आरा
एक ऐसी मौत का
जो सर्वविदित होकर भी
रहस्य है
अपनी ही खड़ी फ़सल में जैसे
दस्यु खड़ा हो

किस-किस को हम सराहें
कितनों की नीयत थाहें,
नंबर एक बिकेगा
नंबर दो बनेगा दास
नंबर तीन अंधेरे गलियों की चमेली
नंबर चार, राज पथ की रातरानी,
यही है 
इस गणतंत्र की कहानी
जितना मुँह फाड़ो
उतना भरेगा
जितना पेट पीटो
उतना ही दुखेगा
ये भावना कुछ भी नहीं
दृश्य जगत की अदृश्य माया
जिन्न और पिशाच जैसे
खेलते हों
एक अशरीरी खेल
बस छाया ही छाया।

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