Friday, January 11, 2013

एक और धर्मयुद्ध (Yet another War of Virtue)




आओ देखो,
रक्त-रंजित, लोहित
पिटा हुआ आकाश
झाँकता है जिसमें
विगत की चोटों का नीलापन
कराहने का आभास,
और एक ज़मीन,
जिस पर फैली है
थूकी हुयी मानवता की सड़ी खाद
ताकि यह उगा सके
पीले पड़े संस्कृति का दूब
जिसके मुरझाये सिरे पर
लटकता है हल्का हरा वर्तमान,
सर्वोदय का एहसास,
हरित क्रान्ति का नारा
और अन्त्योदय का विश्वास।
प्रगति के इश्तेहारों पर
मानव मल -मूत्र के छींटे ,
दीवारों पर कालिख से उगाये गए
कुछ साहित्यिक-असाहित्यिक फिकरे।
नारे, निर्वाचन और न्यायालय
गीता पर हाथ रक्खे मुद्दई और मुद्दालय,
व्यक्ति और समुदाय की सुरक्षा की
क़सम खाते है।
समन्वय ढूँढते हैं
वादों के पहियों पर घूमते  व्यक्ति
और विवादों की गद्दी पर आसीन व्यवस्था।

ऐसे ही दौड़ता है
भारत के भविष्य
और योजनाओं का रथ;
अपने संविधान के सारथी
धाराओं के घोड़े
और अनुसूचियों की रास के साथ।
बीमार और भूखे घोड़े
कब तक दौडेंगे और?
टूटती धुरी और ढहते पहियों का बोझ
कब तक खिंचेगा इनके कन्धों पर?
अब अर्जुन भी चिंता नहीं करता
अपने सारथी की या घोड़ों की,
निश्चिंत है वह
कि अब ज़रुरत ही नहीं
धनुष की या वाणों की,
कौन सा युद्ध?
कैसा युद्ध?
अब ज़रुरत ही नहीं रही
शिखंडियों पर संधानों की।
अब मात्र किसी धृतराष्ट्र
या भीष्म की मौत ही
आधार बन जाती है युद्ध के निर्णय का,
और विजयी घोषित होता है
शिखंडियों की सहानुभूति के आधार पर
एक गुमनाम 'संजय',
चुपचाप युद्ध देखना
और उसकी कथा कहना ही
जिसकी नियति रही।
धरा रह जाता है
हर कर्ण का पराक्रम अछूता।

आज भी ज़ारी है कल का महाभारत
कल का कुरुक्षेत्र!
लेकिन बदल चुके हैं पात्र सब,
बदल चुका है घटनाक्रम।
यदि हलकी पड़ गयी है भीम की गदा 
तो बढ़ते जा रहे हैं
झूठ बोलने वाले युधिष्ठिर भी।
यदि अर्जुन हो गया है आदर्श से च्युत
तो अभी भी शेष है दुर्योधन को जीता जाना।
और इस अनिर्णीत युद्ध में
अभी भी मरा नहीं है कर्ण!
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                     -मृत्युंजय-

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