Friday, January 11, 2013

ऐ मेरे देशवासियों! (This poem is a cry of a disillusioned heart written after the ghastly drama of sexual assault & vandalising of a young girls' body by beastly men)




बलात्कार केवल मेरा नहीं 
तुम्हारा भी हुआ 
उस रात, संहार मेरा ही नहीं 
तुम्हारा भी हुआ।
हमारी लज्जा गयी 
हमने प्राण त्यागे 
शहर से लेकर सरहद तक
बोरी भर कानून लादे 
तुम अब भी फिरते हो अभागे।
मेरे देशवासियों 
कभी तो तुम्हारा पुरुषत्व जागे!

बेटी मरे या सिपाही 
इसकी-उसकी जिसकी भी हो तबाही,
मुख पर तो तुम्हारे भी पड़ती है स्याही 
घूम - घूमकर हर दहलीज़ पर 
केवल मौत ही क्यूँ दे गवाही 
कि तुम अपनी लाज क्या 
जान बचाने के क़ाबिल भी रहे?
भुनभुनाने के सिवा 
तुम्हें कुछ आता ही नहीं;
फिर वो ग़लत हो या सही, 
नारे, जुलुस और भाषणों में लपेट 
करके उसका पिंडदान, तेरही, 
तुम हाथ मलते 
मौसम के गणित में खो जाते हो 
सारे मृतकों के प्रतिनिधि
किसी एक समाधि पर रो जाते हो।
मेरे देशवासियों 
अब और कैसी दर्दनाक मौत मरुँ 
की तुम्हारी जड़ता भागे 
तुम्हारा पौरुष जागे?

सोचो अगर मैं तुम्हारी बेटी नहीं 
एक रंडी होती,
बलात्कारियों के नस्ल की 
तुम्हारे घर में पली शिखंडी होती;
रोज़ तुम्हारे घर से कोई अगुआ होता 
तुम्हारे घर में कोई वस्त्र नहीं
सिर्फ भगुआ होता?
तुम्हारा बेटा निकम्मा 
और तुम्हारी बीवी का कोई मुँहलगुआ होता 
जो बात-बात पर तुम्हें मारता
तुम्हारी इज्ज़त उतारता?
तब भी शायद तुम्हारी आँतों में 
इतना दर्द होता जितना मैंने 
उन कुछ घंटों में झेला
सर कटा मेरा वीर भाई सैनिक 
सरहद पर अकारण ही खेत आया 
अकेला।
मेरे देशवासियों 
श्लथ, जीवहीन, अकेला 
कोई कितना कृपाण  भाँजे 
कि तुम्हारी सोयी चेतना जागे?  
मेरे देशवासियों !

मनु, मेधातिथि, नानक,
बुद्ध,पैग़म्बर, ईसाईयों के मानक 
सब बेकार हुए,
उपनिषद, पुराण, जातक कथाएँ,
खुसरो, कबीर, ग़ालिब की व्यथाएँ 
सब तुम्हें समझा कर हार गए,
 तुम्हारी कुंठा छूटी 
तुम्हारा प्रमाद टूटा,
मूल्यों की करते जुगाली 
जीते रहे एक उन्माद झूठा।
पहले सती बनाकर आग में जलाया 
फिर पूजने की मूर्ति बनाया,
कंचुकी से जिल्बाब तक 
क्या - क्या  नहीं आजमाया।
अश्लील मन कैसे बुन सकता है  
श्लील आचरण के धागे,
बहू - बेटियों को करके आगे 
तुमने केवल प्रसाधन बेचने का 
उपक्रम सजाया;
वाह, नारियों से ही 
नारियों का व्यापार कराया
तुम्हारी प्रजातंत्र की मुंडेर पर बैठे 
विष्ठा खाने और गिराने वाले कागे,
फिर कैसे तुम्हारा पुरुषत्व जागे?
मेरे देशवासियों!
(मृत्युंजय )
10 जनवरी, 2013


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