Monday, December 1, 2014

करुणा: नियाग्रा के प्रति


तुम्हारी आँखों में बहती
करुणा 
वाणिज्य से बहकी 
पुतलियों में उलझ कर 
ऐसे अर्थहीन हो जाती है 
जैसे पुल के नीचे 
नाचती नदी का जल -
काला, भयावह,
आत्म हत्या को निमंत्रण देता 
पाताल के गर्त्त में 
गड़ता हुआ एक गह्वर।
स्थिर, शांत, समाप्त -
एक समझ का कफ़न
इच्छाओं के उरोज को देता 
एक असमर्थ उभार 
अपनी अनुपस्थिति को 
स्वयं ही हेरता
बार-बार 
मैं अब भी दौड़ रहा हूँ 
शून्य से संदर्भ तक 
एक अंजुरी आँसू लिये 
जो
सींच सके 
तुम्हारी करुणा।

(मृत्युंजय)
१२ अगस्त, २०१४ 
(नेवार्क से मुंबई क्रे सफ़र में)




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