Monday, December 1, 2014

कैसे उड़ते हो पंछी तुम!

कैसे उड़ते हो पंछी तुम
इस दूषित व्योम में फहर-फहर
दम नहीं कभी घुटता क्या
जब साँस आती ठहर-ठहर?
कह दो कि तुमको भी
मानव का संग ही भाता है
संघर्ष भरा उनका जीवन
तुमको रोज़ हँसाता है।
तब ही तो किलकारी ले
मेरी खिड़कियों पर बहुधा
कुछ ऐसी बात सुनाते हो
जो मुझको देती लुभ-लुभा।


मैं ठगा-ठगा सा रहता हूँ
मैं ठगा-ठगा ही जीता हूँ
कुछ ठगे-ठगे से लोगों के
सपनों का अमृत पीता हूँ।
मैं सजग रहूँ, मैं जगा रहूँ
तुम भी क्या ऐसा कहते हो?
अमृत पीकर दूषित वन का
सोये में उड़ते रहते हो?
कुछ भी हो चाहे इस जग में
कुछ तो है जो सब मादक है
तब ही तो द्वंद्व के आँगन में
कुछ हिंसक है, कुछ साधक है।
चलो आस लहराओ तुम
संकल्प हमारा भी तय हो
दूषित-कलुषित इस जीवन में
कुछ तो हो, जिसमें लय हो।
चलो कि हमने व्योम तुम्हारा
छीन लिया है शक्ति से
पर दिया नहीं क्या, टुकड़े-टुकड़े
वन-उपवन कुछ, भक्ति से ?
जीना अपना इस दूषण में
प्रारब्ध है शायद, तय है
सपनों की सच्चाई सारी
कहीं खुल न जाए, भय है।

(मृत्युंजय)
१ दिसंबर, २०१४ 

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