रश्मियों में सना तुम्हारा स्वर
जंग से कलंकित
मेरी अस्मिता के धातु पर
टकरा
देता है पुनर्जन्म
मात्र एक शून्य को।
लाज से दोहरा हुआ
तुम्हारा बदन कुचल कर
कुछ मांसल हो उठा है
मेरा आत्मविश्वास,
हथियाने लगा है
पेड़ों की खूँटियों से टंगे
आत्मघाती लोगों की आशाएँ,
अभी-अभी वध किये गए
बच्चों की आत्माएँ
तगमे की तरह
सीने पर टाँके
मैं गाता फिरता हूँ
कभी कोई राष्ट्र-गान
तो कभी पढ़ता हुआ
नौहा
मुहर्रम के ताज़िए में
भरकर मातम
मैं हर मंदिर,
गुरूद्वारे और इबादतख़ाने
के सामने से निकलता हूँ
बिना कोई कारण
खोजने निवारण।
दिन बह जाता है रहस्य में
लगाए घात
घिरा हुआ एक चक्रव्यूह में
मैं सौंपता हूँ, तुम्हें
अपने खूँखार सपने
और स्तब्ध आकांक्षाएँ -
क्यूँकि
न मुझे मातम मनाने आता है
न जश्न,
मैं आज भी
पूछता रहता हूँ प्रश्न
जिसका न कोई उत्तर है
और ना ही कोई देता है।
(मृत्युंजय)
१७.१२.२०१४
कोलकाता