Tuesday, September 2, 2014

माफ़ीनामा

My way of saying 'sorry' to those who are forced to regretfully wear the libellous existence of a 'community' to which we all belong….this is a kind of elegy to all those victims of sufferings inflicted in the hands of so-called 'moral policing' brigade....be it of any variety, any kind....at the end, all gets justified and rationalized by this community or that community.... this faith or that faith... the suffering remains as it is and keeps getting enlarged in its potential and intensity amidst a chorus of condemnation... so, finally....who does it, from whr does it get that venomous fang?

ये बात नहीं है
उस हद की
जो तुम हर रोज़ तोड़ देते ,
या मैं तोड़ देता हूँ।
ये बात नहीं है
उस ज़िद्द की भी
जिसके तहत
हम आपस में
एक-दूसरे का घर-दुकान जलाते हैं
और फिर
आस-पास के ख़ैरात वाले
कनातों में रहकर
टांग लेते हैं व्यापार
ग्राहकों का शिविर चलाकर
बेचने लगते हैं
धर्म-निरपेक्षता और सम्प्रदायिकता की
नयी-नयी किस्में।
बाकी तो सब ठीक ही है।
वो कहते हैं,
तुम कहते हो,
अखबरों में भी यही छपता है -
सब ठीक है।

किसी बच्ची के मुंह पर
कोई तेज़ाब फेंक जाये - ठीक है.
किसी बच्चे को नशीली दवाओं का
तस्कर बना दें - ये ठीक है.
बेटी को रंडी
और बीवी को रखैल बना दें -ठीक है.
बिना दवा कोई मर जाये,
या सड़क पर सोया-सोया
किसी शरीफज़ादे की कार तले
कुचल जाये -सब ठीक है.
अपनी शंकाओं
और हताशा से हतप्रभ,
विक्षिप्त
कोई ट्रीगर दबा दे - कई मर जाएँ -
ठीक है.
असले का व्यापार ज़ारी रहे - ठीक है.
हुम-तुम,
सब पर,
एक ख़ौफ तारी रहे - ठीक है.
फिर बात क्या है? किसकी है?
ओहो, माफ करना
तुम्हारे हाथ में तो व्हिस्की है!
शाम हो गयी क्या?
रात भी हो जाएगी
धीरे-धीरे
मुंह ढंक कर
सारी मानवता सो जाएगी।
तुम भी सो जाना
ताकि सुबह तक
दिमाग में ये मसले ज़िंदा न रहें
हम-तुम आपस में
शर्मिन्दा न रहें!

माफी मांगते-मांगते
हम परेशान हैं
हर सुबह
हमारे सामने
कुछ और टूटे मकान हैं
ना जाने कौन तोड़ जाता है
हमारे मकान रात में -
बारिश, बिजली, आँधी-तूफान?
लेकिन कुछ भी तो नहीं हुआ ऐसा
कल रात के दौरान.
दिन में तो सारा मुहल्ला
मातम और मिजाज़पुर्सी में
मेरे बगल में ही खड़ा होता है
फिर ये दोगलापन कौन ढोता है?

(मृत्युंजय)
३१ अगस्त, २०१४
कोलकता






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