Friday, October 25, 2013


गणतंत्र की कुर्सी

October 25, 2013 at 11:48am
मन मसोस कर रहना पड़े कुछ दिन
तो रह लो,
कुछ और दर्द सह लो!
तुम्हें मालूम नहीं
कई सदियों से इसी आस में बैठे हैं लोग
कि ज़ुल्म और ज़ुल्मत के अँधेरे
अब बस मिटने वाले हैं।
इसी उम्मीद में बढ़ता गया है रोग,
दवाएँ सारी हुईं बे-असर
दुआएँ सारी हुईं खाकसर,
हर दिन, जल्लाद सा खड़ा
कभी शाम से लड़ता है
कभी सुबह को घुड़कता है,
आँख मींचकती है तो बाजू फड़कता है,
ना जाने कौन किसकी हौसला-अफज़ाई में लगा है।
मेरा तो हर रोज़ जैसे बोझिल-सा रतजगा है।

कल ही तो वो मज़दूर
ढोता हुआ राजा की कुर्सी
गिरा, गों-गों करता ढेर हुआ,
साथी मजदूरों की टोली
के लिए जैसे हो ठिठोली,
घेर कर चिल्लाते, करते मिजाज़पुरसी
कहने लगे -"खाता कम है, बचाता ज़्यादा,
एक दिन यूँ ही मरेगा
ये कंजूस हरामज़ादा!"
दौड़ता हुआ मेठ ललकारता -
"अरे सालों, अपने को सम्भालो
यदि कुर्सी को कुछ हुआ तो चमड़ी नुच जाएगी!
गणतंत्र का यह अकेला पीस है,
नुमाईश तो इसी की होनी है
तुम जैसे तो दस-बीस हैं!"
मेरी बात मानो!
इसकी टाँग पकड़ कर टानो,
दूर करो, दूर करो!
साला,सारी योजना खा गया
फिर भी 'फ़ूड सिक्यूरिटी' चाहिए,
अपना गाँव तो संभलता नहीं
रहने को सिटी चाहिए!
बिजली-बत्ती, पानी कहाँ से आएगा?
गुसल के लिए जगह
रहने को खोली
फटेहाल लोगों की कभी भरी है झोली?
ये साली जनता, हो गई है बड़ी बड़बोली।
हटाओ, हटाओ
इसे मरता हुआ न देखने पाए कोई!
बाद में अर्थी के पीछे
फेंक आयेंगे कुछ खोइ¹,
कुछ पैसा,
इनका तो भाग्य ही होता है ऐसा!

हटाओ, हटाओ!
साहब-हुक्काम सब आ पहुँचे
कुर्सी का स्थान, दिशा समझाने,
काँधे पर ही रखना
जब तक ज्योतिष ठीक न कर दे
ग्रह-नक्षत्रों के ठिकाने!
अरे, आभार कैसा
ले लेना जास्ती दो-चार आने!
गणतंत्र की कुर्सी है, कोई हँसी-खेल है क्या?
क्या कहा, भारी है?
भारी तो होगी।
करोड़ों जन-गण की उम्मीदें हैं
मासूम-मरहूम के आँसू की बूँदें हैं,
बलवों में मरे लोगों की लाश
बलात्कार और हत्या की शिकार
औरतों से फूटती बास,
रुपयों की गँध, गंधाती धोती,
घर-घर की उछलती पगड़ी,
वो सारी इज्ज़त
जो रोज़ जा रही रगड़ी,
युगों से भरी चापलूसी
ढुलमुल नीतियों की कानाफूसी,
सचमुच बहुत भारी है?
भारी तो होगी!
गणतंत्र की कुर्सी है
कोई हँसी-खेल है क्या?

(मृत्युंजय)

1. खोइ: पूर्व-भारत में मृतदेह की अंतिम यात्रा या विभिन्न पूजा आदि में प्रयुक्त धान की सफ़ेद फड़ही/भूँजा.

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