Tuesday, May 7, 2013

बहुत देर कर दी!



"बहुत देर कर दी आते-आते 
हुज़ूर, बहुत देर कर दी आते-आते !"
कह रही है सरबजीत की बहन,
उग आया है सहसा घटनाओं का वन:
घटनाएँ
जहाँ हमारे देर से आने से
हमारा घर लुटा है,
आपस की सीनाजोरी से
भला क्या जुटा है?
घटनाएँ,
जहाँ मन में बिलबिला कर भी
हम कुछ नहीं कर पाए
बहुत उदार हुए
तो बस मांगी दुआएँ।
घटनाएँ, घटनाएँ, घटनाएँ!!

घटनाएँ
मुँह खोलती हैं जब भी
हमारी घिग्घी बंध जाती है,
हम व्यक्ति से मनुष्य बन जाते हैं
समस्याओं को जीवन-दर्शन सिखाते हैं
कि कैसे सब कुछ
जैसे प्राकृतिक है,
हम ही वर्ज्य हैं,
बाकी तो सब नैसर्गिक है।
घटनाएँ, घटनाएँ, घटनाएँ!!

घटनाएँ ही चला रही हैं
हमारी जाति को
पुरखों की थाती को,
सभ्यता तो सिर्फ़
ऐतिहासिक शोध की तरह,
विचारों से लटके
अलसाए बोध की तरह
हमें रात में
अच्छी नींद दे जाती है,
भारत की विद्रूप महानता के
सपनों से बींध जाती है।
घटनाएँ, घटनाएँ, घटनाएँ!!

घटनाएँ,
जैसे एक सुर-असुर संग्राम हैं,
चिरंतन चल रहे आणविक विस्फोट के
जैविक परिणाम हैं;
इनमें सीमा-सरहद नहीं होते
खोने-पाने की ज़द्दो-जहद से परे
इन्होंने सबको देखा है खोते,
मुख पर कालिख पोते।
जैसे हमने चमेल
और सरबजीत को खोया
अनगिनत को तो न कोई जाना,
ना रोया।
रोता बस वही है
जो जीता है पीछे,
जैसे पड़ी है सरबजीत की बीबी
निढाल, आँखें मींचे,
और गुहार कर रही है उसकी बहन:
"बहुत देर कर दी आते-आते
हुज़ूर, बहुत देर कर दी आते-आते!"

मृत्युंजय
३ मई , २०१३






















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