देवियाँ
तड़के भोर
पूरा नहीं हुआ था अंजोर।
काली के मंदिर की घंटी
घन-घना-घन बजती।
चारों ओर चीख-पुकार,
फूलों की माला, खनकती रेज़गारी
उछालते भीखमंगों की कतार,
वस्त्र पहने सिंदूरी
आस्थावान भक्तों की भरमार ।
वहीं पास ही के पुल पर
उनींदी, अलसाई
सजे-धजे अंगों के झाँकते स्तर
लिए कदाचित देर से आई,
खड़ी प्रतीक्षारत
थकी मुस्कान मोहक-सी
भुरभुरी माटी-सी सेहत
टटोलती दृष्टि इच्छुक एक ग्राहक की।
दोनों ओर लगा था आस्था का बाज़ार -
एक निर्जीव,एक जीवित
एक आहत , एक सेवित
एक धर्म, एक वासना,
एक कुकर्म, एक उपासना।
अपने प्रेमियों के प्रति आशीष का
पात्र अक्षय भरा था दोनों ही शीश का-
देवियाँ - एक निर्जीव, एक जीवित!
-मृत्युंजय-
12.02.2013
तड़के भोर
पूरा नहीं हुआ था अंजोर।
काली के मंदिर की घंटी
घन-घना-घन बजती।
चारों ओर चीख-पुकार,
फूलों की माला, खनकती रेज़गारी
उछालते भीखमंगों की कतार,
वस्त्र पहने सिंदूरी
आस्थावान भक्तों की भरमार ।
वहीं पास ही के पुल पर
उनींदी, अलसाई
सजे-धजे अंगों के झाँकते स्तर
लिए कदाचित देर से आई,
खड़ी प्रतीक्षारत
थकी मुस्कान मोहक-सी
भुरभुरी माटी-सी सेहत
टटोलती दृष्टि इच्छुक एक ग्राहक की।
दोनों ओर लगा था आस्था का बाज़ार -
एक निर्जीव,एक जीवित
एक आहत , एक सेवित
एक धर्म, एक वासना,
एक कुकर्म, एक उपासना।
अपने प्रेमियों के प्रति आशीष का
पात्र अक्षय भरा था दोनों ही शीश का-
देवियाँ - एक निर्जीव, एक जीवित!
-मृत्युंजय-
12.02.2013
(Tuesdays are special days for Kaali-Puja, esp. in Kolkata which is the
abode of famous 'Kaali kalkatte wali'. I happen to go to that area today very
early morning. As usual the whole place was abuzz with religious activities.
Incidentally, there's an age-old flesh bazaar too which flourishes in the
shadow of all that is religious and spiritual in the area. Irony was too
glaring for my poet to digest. Hence, this poem!)
No comments:
Post a Comment