नयनाभिराम कुछ बादलों की टोली
जब गढ़ रहे थे क्षितिज पर रंगोली
सूरज जब जुटा रहा था रंग
धरा पर हो रहा था दिन का कौमार्य भंग
एक अंधेरे के हाथों
जिसके फैलते ही
शर्म से सब हो जाता है काला
चाहे वो गुरुत्वाकर्षण की धनी धरती हो या
अंतरिक्ष भर असीम नील-वर्ण गगन
लहराते सागर की अदम्य जल-शक्ति
या ऊर्जा से फड़कता उसका रोष सघन
बस आर्तनाद-सी कौंधती है
एक ध्वनि रह-रह
जो हरहराती आती है वहशी हाथों की तरह
और फेंक जाती है एक लिबास
अंतिम चिन्ह
अब नहीं बची कोई आस।
(मृत्युंजय)
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