असंख्य घरों को उजाड़
बेवाओं की गोद में डालकर
बच्चे अनाथ
तुम अभी भी खड़े हो केदारनाथ !
हमारे सरकार की तरह
बेबस, असहाय, निरुपाय!!
लेकिन हमारी भक्ति देखो
मलबों में अँटकी साँस,
कटे पाँव-हाथ, कोई न बची आस,
हर प्राण पर झूलती हताशा की हाय
फिर भी जारी है महोच्चार -
'ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय!'
हमारे पुरखों ने
आस्था का कितना वाञ्छित
विकेंद्रीकरण किया,
करोड़ों हम
सबको एक देवता दिया
अब बढ़ कर हो गए हैं हम अरब
जोड़ लिया है मंदिर, दरगाह, मकबरे
और कुछ हज़ार आस्था के नुमाईन्दे भी
लेकिन नहीं मिला फिर भी
सबको अपना एक देवता,
मानव-मन संशय में भोगता;
सो हमने आस्था के
अलग-अलग समुदाय भी बनाए
टूटती नींव पर
कुछ और पलस्तर लगाए।
घरों की नींव ही केवल बच गयी,
दुर्बल थी
चक्रवातों में उड़ गई,
बाढ़ों में बह गई।
अब सोच कर क्या होगा केदारनाथ!
अन्य सम्प्रदाय या आस्थाओं को तो
मैं कुछ कह नहीं सकता
पर तुम तो अपने थे,
तुमसे जुड़े हमारे झोली भर सपने थे.
असहाय तुम दिखे नहीं,
तुम थे!
तभी तो अपनी समाधि में ग़ुम थे।
हम चीख भी नहीं पाए
और क्रुद्ध हिमालय
हमें खींच ले गया पाताल के गर्त में
तुमसे नहीं निभाई गई
वंचना-सी शर्त में।
केदारनाथ,
तुम्हें या तो गिर जाना था
या थोड़ा डर जाना था
जिससे कि हमें याद आता
तुम्हारा भी अब कम ही रहा है
मानवों से नाता।
जैसे जीवन प्रकृति का रूप है
लाशें भी तो उनका ही स्वरुप हैं,
फिर प्रकृति को प्रकृति से क्या बचाना
व्यवहारिक हो,
दर्शन का क्यूँ करो बहाना!
तुमने शायद ठीक ही किया
खड़े-खड़े
मानवों की दुर्दशा देखते रहे
हमारी करनी का फल
भला तू क्यूँ भरे!!
(मृत्युंजय)
२२.०६.२०१३
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