आदरणीय कृपा शंकर भाई, इस अनुष्ठान में उपस्थित श्रद्धेय साहित्य के मनीषीगण, अतिथिगण, अखबारनवीश दोस्तों, भाईओं और बहनों!
आप सबको सादर प्रणाम करता हूँ और आभारी हूँ कि आपने मुझे इस विशेष चर्चा का हिस्सा बनाया.
साहित्य की शास्त्रीय शिक्षा और विधानों से मैं वंचित रहा हूँ, लेकिन साहित्य के प्रति भावनात्मक लगाव और अनुराग मेरी धमनियों में ईश्वरतत्त्व की तरह बचपन से पलता रहा. जो कुछ भी मैं लिखता, पढ़ता या गाता हूँ, यह सब उस विराट के प्रति मेरा नमन भाव है जो मस्तिस्क के स्तर पर चढ़ कर बोलता है. मैं शुरुआत में ही अपनी उन गलतियों के लिए माफ़ी मांगना चाहूँगा जो अनजाने में मुझसे शायद हो जाएँ. आशा है आपसे सब से मुझे वह अभयदान मिलेगा जो एक अबोध बालक को अपने बड़ों से सहज ही मिलता है.
आज के विषय-वस्तु पर मैं जो कुछ भी बोलने जा रहा हूँ, वह सब मेरे अपने अनुभव और भावों की अभिव्यक्ति है, ना कि किसी शास्त्रीय विचार या विचारधारा का अनुगामी.
'अनुवाद' तकनीकी रूप से किसी विशेष भाषा में उपजे शब्दों को किसी अन्य भाषा में अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया का नाम है। इस परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में यदि हम आज की विषय-वस्तु को देखें, तो समस्या कोई है ही नहीं. फिर तो किसी भी रचना के अनुवादन के लिए किसी दक्षता की आवश्यकता ही नहीं. बस एक शब्द-कोष उठायें और शुरू हो जाएँ! वस्तुतः एक अनुवादन या रूपांतरण के समय समस्या तकनीक समझने के स्तर पर तो होती ही नहीं; समस्या बहुस्तरीय रूप में रचना-सापेक्ष हो कर उभरती है: जैसे बिम्ब, स्थान-विशेष सांस्कृतिक संज्ञाएँ एवं क्रियाएँ, भावपरक परिस्थितियों का आयोजन, भाव प्रसार, उपमा-उपमेय, तुलनात्मक क्रियाओं से उत्पन्न बहुमुखी भाव-आयोजन, देशज शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियाँ इत्यादि.
इनके अतिरिक्त भी कई ऐसी समस्याएँ हैं जो अनुवादक पाठकों की सम-सामयिक जागरूकता और भावनाओं के परिप्रेक्ष्य में महसूस करता है. उदाहरण के तौर पर: लिली या डैफ़ोडिल के फूलों का प्रतीक या बिम्ब एशियाई देशों के पाठक की जागरूकता के परे है. यद्यपि उनका वर्णन क़िताबों के जरिये एक पाठक जान लेता है, किन्तु उस प्रतीक के द्वारा जिस भाव का, जिस रूप एवं परिमाण में सम्प्रेषण होना चाहिए, नहीं हो पाता। समान रूप से पश्चिमी देशों के पाठक भी हमारे ' केतकी, गुलाब, जूही, चम्पक वन फूले' का अर्थ तो समझ जाते है, पर इसमें छुपे भावों का सम्प्रेषण उनपर उस रूप में नहीं हो पाता जैसा कि हमारे अपने देशी पाठकों पर. और इसलिए, अर्थ समझ जाने के बाद भी उनमें वो भाव विह्वलता नहीं आ पाती जिससे अभिभूत हो हम 'वाह,वाह' कर उठते है. कविगुरु की 'सागरिका' इसलिए ही बाली प्रदेश के लोगों को अंग्रेजी अनुवाद पढ़ने के बाद भी वो भाव उद्दीपन न दिला सकी जो शायद अपेक्षित थी. वही भाव उद्दीपन उनमें तब देखने को मिला जब हमने उस कृति पर आधारित एक गीति नाट्य प्रस्तुत किया, जहाँ संगीत, उनके अपने परिवेश के बिम्ब और उनकी अपनी भाव मुद्राएँ देखने को मिलीं . स्वाभाविक है कि एक अनुवादक को ऐसे ही भाव सम्प्रेषण हेतु कई बार मूल काव्य रूप से हटकर नए बिम्बों या उपमावों का सृजन करना पड़ता है, जिसे शास्त्रीय विधान में शायद एक व्यतिक्रम माना जायेगा; लेकिन वो मूल काव्य के सूक्ष्म भावों को उजागर करने के लिए आवश्यक हैं.
हिंदी के साथ-साथ बांग्ला, मराठी, गुजराती, तेलुगु, कन्नड़, नेपाली, ब्रज, अवधि आदि - सारी क्षेत्रीय भाषाओं में तत्सम शब्दों के अलावा बहुतायत से देशज शब्दों का भी दैनिक प्रयोग होता है जो उनके साहित्य में भी दिखते हैं. ये शब्द, लोकोक्तियाँ या मुहावरे एक विशेष सांस्कृतिक परिवेश और परिदृश्य को दर्शाते हैं. इनसे बनीं उपमाएँ या बिम्ब-आयोजन उन लोक-जीवन और परम्पराओं को उजागर करती हैं जिससे कि एक विशेष जनसँख्या-समूह की भावना जुडी होती है. अनुवाद निश्चित रूप से इन रचनाओं को इनकी सीमाओं से बाहर निकालकर इनको सर्वव्यापी बनाने का प्रयास है. इस प्रयास में बहुधा अनुवाद की भाषा एवं उस भाषा को बोलने-समझने वालों के अनुरूप प्रतीक, बिम्ब एवं लोकोक्तियों को रूपांतरित करना अनुवादक का धर्म बन जाता है; और इस धर्म के पालन में कई बार ऊँच-नींच हो जाना स्वाभाविक है. देखना हमें ये चाहिए कि कथावस्तु या कथ्य से जुड़े भाव उद्दीपन एवं भाव-प्रसार का समुचित पालन हुआ है या नहीं.
कालिदास रचित 'मेघदूत' का पद्यांतर करते समय भी मुझे ऐसी ही कई दुविधाओं और कठिनाईओं का सामना करना पड़ा. हालाँकि मेरे पद्यांतर में कुछ मूलभूत अंतर भी लाने पड़े, क्योंकि मेरे पद्यांतर का उद्देश्य और मनोवैज्ञानिक भाव क्षेत्र थोड़ा भिन्न है. मुझे 'मेघदूत' में निहित तुहिन-तरल प्राकृतिक सौंदर्य, अल्हड़ श्रृंगार और यक्षिणी कि वेदना के साथ-साथ यक्ष कि वेदना को भी मुखर करना था, जिसके लिए २० से २५ छंदों कि स्वतंत्र रूप से रचना करनी पड़ी. प्राकृतिक सौंदर्य की महिमा के साथ-साथ उस त्रासदी को भी दिखाना था, जो सम्प्रति उसके सुन्दर मुख को मलिन करती है और सौंदर्य को क्षीण: "ऐ मेघ! तेरे तन पर जो दिखती मुझको श्यामल छाया/ तूने भी क्या विरह में जलकर पाई ऐसी काया? या फिर, जगत के दूषण से है मलिन तुम्हारा जल भी/ रोते नयनों से रिसता है आँखों का काजल भी?" जब इस अपनी रचना का मैंने अंग्रेजी छंदों में अनुवाद करना शुरू किया तब कई बिम्बों की स्थानीयता और भाव प्रवणता के प्रश्न ने मुझे आ घेरा. 'नीलकंठ' को न चाहते हुए भी मुझे ‘Indigo Neck Pheasant’ और 'कल्पतरु' को ‘Wish-Tree’ की संज्ञा देनी पड़ी जो थोड़ी ओछी जान पड़ती है. अंग्रेजी भाषा की तुलना में संस्कृत, बांग्ला और हिंदी भाषा संज्ञाओं एवं भाव् -विशेषणों के पर्यायवाची में धनी है; यह एक अंग्रेजी अनुवादक के लिए इतना दुरूह सिद्ध होता है कि कई बार दिनों तक एक स्थान पर ही अंटके रहने पर विवश करता है और रचना की भाव सम्पूर्णता में भी बाधक होता है, विशेषकर ऐसे पाठकों के लिए जो बहुभाषी हैं और हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों ही स्वरूपों की समझ रखते है. निश्चित रूप से उन पाठकों को अंग्रेजी अनुवाद थोड़ा ढीला और बेअसर सा लगेगा, किन्तु ये अनुवादक की मजबूरी है. चूँकि मेरी मंशा ये भी थी कि हिंदी पद्यांतर और उसका अंग्रेजी अनुवाद दोनों ही साधारण पाठकों को सहज रूप में हासिल हो ताकि उनमें वो आसक्ति और भाव उद्दीपन बना रहे जिसके जरिये मैं कालिदास कि भाव-भव्यता से उनका परिचय कराना चाहता हूँ, मैंने यथासंभव सहजतम शब्दों का चयन किया. अनुवादक के लिए यह बहुत ही ज़रूरी होता है कि वह मूल रचना के भाव-प्रसार और उसके अपेक्षित भाव उद्दीपन से दूर न भटक जाएँ, साथ ही पाठकों के देश, काल और परिस्थिति जन्य सीमाओं का भी अतिक्रमण न हो. अनुवाद के आलोचकों से मेरा निवेदन रहेगा कि शब्दों या छंदों के भाव एवं अर्थ को उनकी प्रासंगिक परिधि में ही रख कर मूल्यायन करें, ना कि एक स्वतंत्र इकाई या अणु के रूप में.