अकस्मात् देख रहा हूँ
बुरादों-से भुरभुरे लोग
हथियारों में परिणत हो गए हैं
और दीमकों की बामी
लिजलिजे केंचुओं से भर गयी है,
मवेशी देवताओं को खदेड़
गर्भ-गृह हथिया कर बैठ गए हैं
और देवता
निराकार, अदृश्य
आकाशवाणी की तरह
सुनने वाले कान ढूँढ रहे हैं,
भगोड़ा चाँद
त्योहार में घर लौटने की
अर्ज़ी लगाए बैठा है
संततिहीन लोगों के इजलास में
नदियों का नमन करने उतर आये हैं
बादलों से झूम-झूम झरते
विनाश के वृत्त -सा
मुँह फाड़े
विकास के काले करैत
खेद रहे हैं मीलों तक
करैल कीचड़ में सनी
छलछल उछलती, तड़पती मछलियाँ,
लचीले अजगर-सा काढ़े परिधि
क्षितिज पर का आसमान
पड़ गया है साँवला,
रात लेकिन
भर गई है उजास
उन्मत्त मद्यप, बेरोज़गार
उत्सव मना रही है
तीली जलाकर आस,
नदियों के तटों पर
लाशों का
शेष-क्रिया सम्पन्न कर
उलीच रहे हैं लोग
सारा कूड़ा-करकट
प्रजातंत्र की
कृशकाय नदी में,
बहती जा रही है नदी
अपने सतह पर
थरथराते सपनों का
प्रतिबिम्ब गढ़े
इस आस में
कि चाँद
लौट सके अपने घर,
मवेशी अपने स्थान पर,
देवता अपने गर्भ-गृहों में
और
मछलियाँ
काले करैत के जबड़े से
बच कर
नदी के प्रवाह में,
जिसमें पानी
बस घुटने भर ही रहता है
संस्कृति का भस्म
इसी में तो बहता है।