महज़ ख़याल ही नहीं,
शोर-शराबे से भरे मुझमें
एक स्थिरता हो तुम,
जो जड़ में अनुपस्थित हो कर भी
मेरे चेतन को हिलाता रहता है
इस ज़माने से लोहा लेने का
हौसला बढ़ाता रहता है।
क्षितिज पर बेलौस पसरी
लालिमा का औसध हो तुम
जो या तो मन के भोर पर टंगा होता है
चंचलचित्त और चपल बनाने को
या फिर उस बेचारी साँझ पर
मरहम की तरह
जिसके आगे रात के सिवा कुछ भी नहीं
दुःख-सुख के अनुभव
के बीच का वो अदृश्य सेतु हो तुम
जो दुःख को सुख से
और सुख को दुख से
जोड़े रखता है
मेरी आस्था, संकल्पों को
अगोरे रखता है
शांत एकांत की नीरवता का
वो चरम बिंदु हो तुम
जिसमें बस आत्मा से
जीया जा सकता है
शरीर जो एक नश्वर है
नश्वर ही रहे तो बेहतर है
पता नहीं ये प्रेम है
या प्रेम की विविध छाया
जो हर रूप में
तुम्हें मेरी भावना के अंक में
रख जाती है
मैं खोजता रहता हूँ
तुम्हें इन छायाओं में
और तुम उभरती रहती हो
नए रूप में, नई दिशाओं में।
मृत्युंजय
22.1.2018