तुम्हारे हर झूठ का सच
हम जानते हैं
तुम्हारे हर सच में
झूठ की जो छाया झूलती है
उसे भी देखा है;
झूठ का सच, सच का झूठ
जैसे सागर की लहरें मारती हिलकोरा
वापस
खींच ले जाता पानी सब
फेंक
जाता है
बालू का ढेरा।
हत्या का कोई रूप
छुपा नहीं हमसे
लाचारी तो जैसे मियादी बुख़ार
हर दिन चढ़ आती है - दो-चार बार
फिर भी हम चूके नहीं
अपनी आस्था जताने से
देश पर, देश के तंत्रों पर
बहुत विश्वास है हमें
जादू-टोना, मन्त्रों पर।
लाचारी अब बिमारी नहीं
बिमारी ही अब लाचारी है
ऐसी ही एक सोच से
सीखा हमने, चुप रहना
चुप रहना तब तक
जब तक
अपने ही घर में
ना लग जाए आग
समझ आया,
क्यूँ कहते हैं लोग बहुधा
कि फूट गए भाग?