कलरव या शोर
जो भी हो
हुई तो भोर,
वरना रात
बड़ी लंबी हो
रही थी।
कल के दिन
से
साँझ तक
हवा में झूलता
रक्तिम पलाश
जगा तो गया
था कुछ आस
वसंत-सा कोई
खिड़की खटखटा कर
ये भी दे
गया था आभास
कि कुछ त्योहार-सा
घटित होने वाला
है,
लेकिन मन था
चौकन्ने
रहने का
चुपचाप चिल्लाते रहने का।
फरफराती
हवा
सरसरा सरसरा कर
उड़ने को कह
जाती
लेकिन आँखें थीं
जो देखने में लगी
थी
पतझड़ में झड़े
पत्ते
बिखरे, ढेर बने
प्रतीक्षा
में जो थे
होने वाली अगजनी
के,
शाखों के पोर-पोर से
झूलते, नवजात, कोमल
पत्तों का गुलदस्ता
लिए
खड़े वृक्ष
जैसे बढ़ाए अपना
हाथ
उनके प्रति
जिनसे छूट गया
है साथ,
विलाप ही विलाप
बिछा था जहाँ
चारों ओर
वहाँ तुम
अब भी खड़ी
हो
अपने आँचल से
ढाँके
रंगों में सने
आँसुओं से धुले
आस के पलाश।
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(मृत्युंजय
)
८ मार्च, २०१६
(अंतर्राष्ट्रीय
महिला दिवस पर)