कुछ हिले
तो देखूँ
बादलों के पीछे
तुम्हारे मुस्कान का विस्तार।
हवा है
जो ठहरी है तो ठहरी है
सत्ता है
जो हर बात पे बहरी है।
बाहर का सत्य
दिखाई नहीं देता
अंदर का कुछ भी
सुनाई नहीं देता
मैं तुम्हारा,
पर छूटा जा रहा हूँ,
एक ऐसा आगत
जो बिन आये ही टल गया
एक भविष्य
जो विगत में ही ढल गया
तुम अपनी जीत में
हर हार को नकारते
चले जा रहे हो
उस धुँधले क्षितिज की ओर
जहाँ की भोर भी
अँधेरी होती है।
मैं छूटा जा रहा हूँ
पर टूटा नहीं हूँ
अब भी
प्रतीक्षा में हूँ
कि जब बादल हिलें
तो देख पाऊँ
तुम्हारे मुस्कान का विस्तार।
(मृत्युंजय)