Tuesday, June 9, 2020

कलकत्ता में 'हिंदुस्तानी'


कलकत्ता में 'हिंदुस्तानी'

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी
जिसे भी देखना हो, कई बार देखना।.....
कलकत्ता शहर और उसके इर्दगिर्द बसे बंगाली समाज में 'हिंदुस्तानी' के नाम से परिचित लोगों के बारे में सोचते हुए याद आई निदा फ़ाज़ली के ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ। साथ ही उमड़ आयी कई घटनाएँ, परतों में दिख रहे कई चेहरे, कई व्यक्तित्व और उनसे जुड़ी एक इतर क़िस्म की ज़िन्दगी। रिसड़ा के छाई-रोड पर रात भर के लिए भाड़े पर लगे रिक्शे की सीट और उस पर सिकुड़ कर सिमटे हुए कई आदमी, हावड़ा के लिलुआ, घुसुरी इलाकों में जी.टी. रोड से लगे  दुकानों में खैनी की ताल ठोकते और रात गए उन्हीं सड़कों के नालों के ऊपर लगी खाट पर अपने जीवन को लिटाए लोग, राज्य-सरकार के एक कर्मचारी का पुत्र होकर मौलाली में पला-बढ़ा, कलकत्ता को अपना दूसरा घर चुना और यहीं मध्यमग्राम में रहकर, अपनी बेटी का दो बार बलात्कार सह कर, उसकी अकाल-मृत्यु देख कर, उसकी लाश जलाकर, प्रताड़ित बिहार लौटने को विवश एक व्यक्ति। हावड़ा स्टेशन के कुली, पोस्ता बाज़ार के मुठिआ-मज़दूर, फल-मंडी में घुटने भर कीचड़ में विचरते प्राणी, स्ट्रैंड रोड पर गाड़ियों की बेतरतीब दौड़ के बीच अपनी जगह बनाए ठेला पर सामान खींचते कई कृशकाय लेकिन जीवट से तने स्नायु वाले हाथ-पाँव, आदमी द्वारा खींच कर चलने वाले  'हाथ-रिक्शा' पर अपने पैसेंजर को लिए दौड़ता आदमी, जिन्हें उनके गाँव में लोग इस लिए बड़ी इज़्ज़त देते हैं क्यूँकि वो कलकत्ता शहर में काम करते हैं और सालाना अपने घर को अच्छी रक़म भेजते हैं। ब्रेबोर्न रोड, तिरट्टी बाज़ार, कोल्हू-टोला, हावड़ा से सियालदह तक बिछे एम.जी.रोड, चित्तरंजन एवेन्यू, चौरंगी-एस्प्लानेड, रबिन्द्र सरणी, ज़कारिया स्ट्रीट, फियर्स लेन, बी.बी. गांगुली स्ट्रीट, गणेश चंद्र एवेन्यू, फ्री स्कूल स्ट्रीट, एस.एन. बनर्जी रोड, लेनिन सरणी, लोहा-पट्टी, और सच पूछिए तो दक्षिण में पार्क स्ट्रीट से लेकर उत्तर में श्याम-बाज़ार तक एवं पूरब में आचार्य जगदीश चंद्र बोस- आचार्य प्रफुल्ला सेन रोड से लेकर पश्चिम में हावड़ा तक के सारे व्यापार और गतिविधियों में लगा है इनका हाथ, इनकी मेहनत और इनका साथ। टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार के २०१४ के एक रिपोर्ट के मुताबिक कलकत्ता शहर में प्रवास करने वालों में से सत्तर फ़ीसदी लोग बिहार, यू.पी. और झारखण्ड से हैं। इनमें से लगभग दस फ़ीसदी लोग एक पुश्त से ज़्यादा समय से यहाँ बसे हुए हैं। यह तथ्य ये बताता है कि आज के कलकत्ता में इन देशान्तरित प्रवासियों का निवास कलकत्ता शहर के अलावा भी चारों ओर फैल गया है। ये इन प्रवासियों की कर्म-दक्षता और विश्वसनीयता का भी प्रमाण है जिसके कारण इस शहर में लगातार इनका आगमन होता रहा। 
            बंगाल में 'अप-कन्ट्री' (बिहार और यू.पी. के लोग) देशांतरण ज़्यादातर सन १८६० के आसपास ही शुरू हुआ जिसका मूल कारण था अंग्रेज़ी कपड़े के आयात से देशी बुनकरों और हथकरघों का नाश, खेतों और फसल पर उत्तरोत्तर बढ़ते कर के दवाब से छोटे और मझोले किसानों का भूमिहीन हो जाना, परमानेंट सेटलमेंट के कारण खेतों पर से किसानों के मालिकाना का अंत और उसके फलस्वरूप किसानों के ध्यान न देने के कारण खेतों की उपज कम होते जाना, दुर्भिक्ष और प्लेग जैसी जानलेवा बीमारी। सन १८९० के बाद एक बड़ी संख्या का कलकत्ता के लिए देशांतरण हुआ जो विशेष रूप से कलकत्ता के आसपास के जूट-मिलों में था। बहरहाल चाहे वो आर्थिक दिक्कतें हों या जीवन को और भी सम्पन्न व समृद्ध बनाने का सपना, जाति-प्रथा की छूआ-छूत और भेद-भाव का दवाब हो या अंग्रेजी शासन के तहत बढ़ते हुए जूट-मिल के रोजगार का आकर्षण, एक घनी तादाद में इन तथाकथित 'हिंदुस्तानियों' का देशांतरण हुआ। कलकत्ता शहर से लगे ज़िलों के जूट-मिल में, लोहा-फोंडरी में और जहाज- घाट में - सर्वत्र आ कर बस गए ये 'हिंदुस्तानी'।
           
गवना कराइ सैंया घर बइठवले से
अपने लोभइले परदेस रे बिदेसिया।
(विरह की मारी एक स्त्री कहती है कि गवना कराके मुझे घर में ला बिठाया और स्वयं परदेस से आकर्षित होकर परदेस चले गए) - भोजपुरी के प्रसिद्ध रचनाकार भिखारी ठाकुर की इन पंक्तियों से साफ पता चलता है कि अपना गाँव-घर छोड़ कर कलकत्ता को आए अधिकांश लोगों ने कलकत्ता को अपना सामयिक पड़ाव ही माना और उसे 'परदेस' के नाम से ही पुकारा जाता रहा। बिहार और उसके समीपवर्ती यू.पी. की लोक-परंपरा (लोक-गीत, लोककथा आदि) से यह स्पष्ट होता है कि उस भू-खंड के लोगों का अपने स्थान से बाहर जाना कुछ मायने में तो सामाजिक कुरीतियों से बचने का उपाय था, लेकिन अधिकतर संख्या उनलोगों की है जो अपने आर्थिक सशक्तिकरण की मंशा से ही अपना गाँव छोड़कर कलकत्ता आए। किसी अर्थ में ये उनका अपनी मिट्टी से पलायन नहीं था। यहाँ उनका वास-स्थान और उससे जुड़े जीवन के संसाधन चाहे जितने भी दुःखद रहे हों, उनके द्वारा कमाया गया धन अपने गाँव की खेती-बारी को उन्नत करने से लेकर घर के लोगों के साज-सामान में बढ़ोतरी के ही काम आता रहा है। औद्यौगिक और बहुआयामी शिल्प के शहरों में कोई भी काम करने की आज़ादी अपने-आप में एक वरदान भी है। जैसे कि एक राजपूत लड़का कलकत्ता में मालिश करने के काम कर रहा है जिससे कि वह लगभग पंद्रह हज़ार रुपए महीने में कमा लेता है। बिना किसी तकनीकी प्रशिक्षण के किसी भी काम में इतना पैसा उसे नहीं मिल सकता, साथ ही अपने गाँव या समाज में एक राजपूत लड़के को मालिश करने के काम की छूट क़तई नहीं मिलती। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा है कलकत्ता जहाँ किसी के जात से उसके पेशे की आज़ादी नहीं सिमित होती।
            कहते हैं कि डच उपनिवेशिक सरकार ने दक्षिण अमेरिका को ले जाए गए बिहार और यू. पी. के 'गिरमिटिया' मज़दूरों को 'हिंदुस्तानी' कहना शुरू किया। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि 'गिरमिटिया' के तौर पर विदेशी उपनिवेशों में ले जाए गए अधिकाँश लोग चूँकि हिंदी से जुड़ी बोलियाँ बोलते थे इसलिए ही उनलोगों को 'हिंदुस्तानी' की संज्ञा से अभिहित किया गया। लेकिन यही बात बंगाल में रहने वाले बंगालियों के लिए मान्य शायद नहीं होगी, क्यूँकि इतिहास में एक लम्बे समय तक बिहार, बंगाल प्रांत का हिस्सा बन कर रहा है, और यहाँ के साहित्यकारों एवं अभिजात्य वर्ग के लोगों का बिहार की भाषा और संस्कृति से अच्छा-ख़ासा विनिमय होता रहा है। विभूती भूषण बंदोपाध्याय के सम्पूर्ण 'आरण्यक' की कथा बिहार (अब झारखण्ड) की मिट्टी और आबो-हवा में रची गई, हालाँकि उनकी कृति में कहीं भी बिहारियों के प्रति वह कुलीन अहंकार नहीं झलकता जो यदा-कदा रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे उन्मुक्त और विश्ववादी विचार के साहित्य में सर उठाता है। समरेश बसु की कथा 'पारी', जिसके आधार पर गौतम घोष ने अपनी विख्यात फ़िल्म 'पार' बनाई, में भी बिहार के सामाजिक अन्याय और भेद-भाव के जीवन का बहुत ही मार्मिक चित्रण है। इन साक्ष्यों के मद्देनज़र यह कहना उचित नहीं होगा कि बंगाल में बिहार और उत्तर प्रदेश के समाज के बारे में जानकारी या अभिमूल्यन की कमी है।

            इस लेख के आरंभ में ही मैं यह स्पष्ट कर चुका हूँ कि प्रवासियों की एक बहुत ही सिमित संख्या ही है जो अपने परिवार को लेकर यहाँ बस गए और उनके वंशज ने कलकत्ता को अपने स्थायी घर की तरह अपनाया, हालांकि ये लोग भी बंगाली-समाज के लिए आज तक 'हिंदोस्तानी' ही कहलाते रहे। बिहार और बिहार के पूर्वोत्तर भू-भाग से शताब्दियों तक कामकाजी सम्बंध होने के बाद भी कलकत्ता के बंगाली-समाज में वहां से आए लोगों को असभ्य, फूहड़ और गंवार समझा जाता है। कभी 'छातू-खोर' कहकर उनकी सामुदायिक उपेक्षा तो कभी 'हिंदुस्तानी' कहकर उनके साहित्यिक-सांस्कृतिक अस्तित्व को ओछा बताना, कलकत्ता में आए दिन होता रहता है ठीक वैसे ही जैसे ब्रिटिश-समाज में आज भी किसी भी दक्षिण एशियाई, वो चाहे जितना संपन्न, कुलीन और शिक्षित क्यूँ न हो, बराबर की जगह नहीं दी जाती। कभी-कभी सोचता हूँ कि बंगाल के समाज में यह अवगुण क्या अंग्रेजों के दो शताब्दी तक कलकत्ता में रह कर शासन करने का नतीजा है, या फिर कन्नौज आदि से बंगाल में लाये गए उन ब्राह्मणों की सामंती छाया का परिणाम जो आज भी इनकी मानसिकता पर हावी है।
            बंगाल के लोगों की एक बड़ी संख्या बनारस, लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, गया, रांची, हज़ारीबाग़, धनबाद, गिरिडीह, मधुपुर, जसीडीह, देवघर आदि शहरों में बसी है और उनका बंगाल के अपने सगोत्रीय सम्बंध वाले लोगों से बहुत ही गहरा रिश्ता भी है; शायद ही कोई ऐसी घटना हुई हो जब उन्हें इन शहरों में अपनी भाषा, खान-पीन, रहन-सहन और संस्कृति के लिए उपेक्षा का शिकार होना पड़ा हो। बल्कि उल्टा इनके मुहल्लों की धूम-धाम वाली दुर्गा-पूजा ने सारे शहर का मन जुड़ाया है। इनके शिक्षित 'बाबू मोशाय' व्यक्तित्व, अच्छे साहित्य और संस्कार एवं भारत के स्वतंत्रता-आंदोलन में इनके महत योगदान का बखान करते लोग नहीं थकते। शरत चंद्र, रविंद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, ईश्वर चंद विद्यासागर, राजा राम मोहन राय, खुदीराम बोस जैसे नाम तो बिहार, यू.पी. और झारखण्ड के गाँव-गाँव में विख्यात हैं। आशा है कलकत्ता का समाज 'हिंदुस्तानियों' के उस योगदान को समझेगा जिसके बिना इस शहर में न तो कोई माल ढोनेवाला होता, आधे से ज़्यादा टैक्सी नहीं चलती, मिलों को ताकतवर सुरक्षा-कर्मी नहीं मिलते, कलकत्ता पुलिस के गुप्तचर-विभाग का वो सफ़ेदपोश खूँखार दल न होता जिसके नाम से कलकत्ते का हर अपराधी या अपराधी-दल थर्राता था। आज जबकि कलकत्ता में इन 'हिंदुस्तानियों' की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है और बंगाली-समाज संख्या में काम होता जा रहा है, ज़रूरत है तादात्म्य और सामंजस्य बढ़ाने की न कि अपमानजनक संबोधनों से एक-दूसरे के बीच भेद तैयार करने की। कुलीनता का अहंकार उस ढहती दीवार की तरह है जो समय के साथ दुर्बल ही होती जाएगी। बांगलादेशी चाहे जितने भी स्वभाषी हों, वो स्वदेशी तो कभी नहीं हो सकते। उनके आगमन से सामाजिक तनाव और बढ़ेगा, पृथकता और गहन होगी। 'हिंदुस्तानी' भी इस बात को समझें कि कलकत्ता अब 'परदेस' नहीं बल्कि उनके गाँव-घर का ही एक समृद्ध और प्रगतिशील रूप है। भाषायी लगाव भले न हो, लेकिन एक लंबे समय से साथ रहने से जो साझा बना है उसकी समझ तो निश्चित रूप से होनी चाहिए ताकि अपना शहर कलकत्ता सामंजस्य की मिसाल बना रहे।
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मृत्युंजय कुमार सिंह - mrityunjay.61@gmail.com.

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